अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ

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अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ आधुनिक काव्य adhunik kavita priyapravas ke lekhak kaun hai priyapravas mahakavya हरिऔध की भाषा शैली

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ


योध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ आधुनिक काव्य adhunik kavita priyapravas ke lekhak kaun hai priyapravas mahakavya - अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' हिंदी साहित्य में प्रमुख निबंधकार ,गद्यकार एवं महाकवि के रूप में जाने जाते हैं ।आपके सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- "साहित्य विलास की वस्तु नहीं, साहित्य का अंतिम लक्ष्य है— जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण कर मानव-हृदय साथ सामञ्जस्य स्थापन।" आचार्य शुक्ल की उक्त कसौटी पर हरिऔध पूर्णत: सफल हुए हैं। हरिऔध की कविता में आये राधा-कृष्ण रीतिकालीन कविता के राधा-कृष्ण नहीं हैं। 'प्रियप्रवास' में हरिऔध ने कृष्ण के उदात्त व्यक्तित्व का चित्रण किया है। इन चरित्रों के माध्यम से कवि ने अपनी लोकमंगलवादी दृष्टि का उद्घाटन किया है। कृष्ण की वस्तुस्थिति का उद्घाटन करते हुए हरिऔध कहते हैं- "मैंने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं।" राधा के विषय में टिप्पणी करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं- "राधा अब 'प्रियप्रवास' में पूर्णत: विरहिणी ही नहीं है। वे अपने इसी दुःख को सारे समाज के दुःख में विलीन कर देती हैं, और समाज-सेवा का व्रत लेती हैं। शताब्दियों से चले आते राधा के चरित्र में यह एक सर्वथा नयी भंगिमा 'हरिऔध' ने उकेरी है।" श्री शिवदान सिंह चौहान भी प्रियप्रवास के कृष्ण को जन-नेता बताते हैं। उनका कथन है- “प्रियप्रवास में कृष्ण अपने शुद्ध मानव-रूप में विश्व-कल्याण के काम में निरत एक जन-नेता के रूप में अंकित किये गये हैं।" 

प्रियप्रवास महाकाव्य के रचयिता

उक्त कथनों के आलोक में कह सकते हैं कि 'प्रियप्रवास' हरिऔध का उत्कृष्ट महाकाव्य है। इसके नायक-नायिका, कृष्ण और राधा हैं। इन्हें कवि ने मन्दिर से बाहर निकालकर जन के बीच खड़ा कर दिया। लोक के साथ इनका तादात्म्य स्थापित कर दिया। प्रियप्रवास की राधा कृष्ण के वियोग में बावली हो रही है, किन्तु पवन से कृष्ण तक अपना संदेश ले जाने का निवेदन करते समय, राह में मिलने वालों के दुःख को दूर करने के लिए कहना नहीं भूलती। वह कहती है- 

जाते जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे । 
तो जाके सन्निकट उसकी क्लान्तियों को मिटाना। 
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना । 
सद्गंधों से श्रमित जन को हर्षितों सा बनाना ।। 

राधा लोक की सेवा में स्वयं को लगा देना चाहती है। कृष्ण की आज्ञा का पालन करना चाहती है, विश्व के काम आना चाहती है। वह कहती है- 

आज्ञा न भूलूँ प्रियतम की, विश्व के काम आऊँ । 
मेरा कौमार्य व्रत विश्व में पूर्णता प्राप्त हो वे । । 

काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली

अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अंतएव मैंने भी 'प्रियप्रवास' की खड़ी बोली में ही लिखा है. वास्तव में बात यह है कि यदि उसमें कांतता और मधुरता नहीं आयी है, तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ी बोली का नहीं।" - हरिऔध 

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की काव्यगत विशेषताएँ
उक्त कथन से स्पष्ट है कि महाकवि हरिऔध खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पूर्णत: कटिबद्ध थे। आपने पहली बार उस धारणा का खण्डन किया कि अवधी और व्रज में ही महाकाव्यों की रचना हो सकती है। अपने काव्य-सृजन द्वारा खड़ी बोली की क्षमता और शक्ति को प्रमाणित कर दिया। अनेक उल्लेखनीय काव्य- कृतियों के माध्यम से हरिऔध जी ने यह भी प्रमाणित कर दिया कि खड़ीबोली में वह शक्ति और सामर्थ्य है कि महाकाव्यों की रचना हो सके। वास्तव में खड़ीबोली में छोटी-बड़ी कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ करके हरिऔध जी इस भाषा के प्रथम महकवि बने। 'हिन्दी साहित्य कोश' में आपके विषय में उल्लिखित है कि "खड़ी बोली को काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में 'हरिऔध' जी का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उन्होंने समय की गति शीघ्र ही पहचान ली और (ब्रजभाषा छोड़कर) खड़ी बोली में काव्य-रचना करने लगे। काव्य-भाषा के रूप में उन्होंने खड़ी बोली का परिमार्जन और संस्कार किया। 'प्रियप्रवास' की रचना करके उन्होंने संस्कृत-गर्भित कोमल-कान्त- पदावली-संयुक्त भाषा का अभिजात रूप प्रस्तुत किया। 'चोखे चौपदे' तथा 'चुभते चौपदे' द्वारा खड़ी बोली के मुहावरा-सौन्दर्य एवं उसके लौकिक स्वरूप की झाँकी दी। छन्दों की दृष्टि से उन्होंने संस्कृत, हिन्दी तथा उर्दू सभी प्रकार के छन्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया। वे प्रतिभा सम्पन्न मानवतावादी कवि थे। उन्होंने 'प्रियप्रवास' में श्रीकृष्ण के जिस मानवीय स्वरूप की प्रतिष्ठा की है। उससे उनके आधुनिक दृष्टिकोण का पता चलता है। उनके श्रीकृष्ण 'रसराज' या 'नटनागर' होने की अपेक्षा लोकविधायक जननायक हैं। खड़ी बोली काव्य के विकास में उनका योगदान निश्चित रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि 'प्रिय प्रवास' खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है, तो 'हरिऔध' जी खड़ी बोली के प्रथम महाकवि।" 

हरिऔध के काव्य की भावपक्षीय विशेषताएँ 

साहित्य में संवेदना-तत्त्व की प्रखरता रहती है। संवेदना के अभाव में भाव की अभिव्यंजना कठिन है। अभिव्यंजित भाव ही रचना की गुणवत्ता का स्तर बताता है। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का भाव पक्ष सबल है। उनके काव्य में चेतना के विविध स्तर विद्यमान हैं। आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से अतीत और वर्तमान का समन्वय करने का प्रयास किया है। उदाहरणार्थ, आपकी प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक कृति प्रियप्रवास को लिया जा सकता है। राधा और कृष्ण के जिस विकृत चरित्र का उद्घाटन आपके पहले किया जाता था, उसमें आपने सुधार किया। परिणामतः जनहित की भावना से ओत-प्रोत राधा कह सर्की कि- प्यारे जीवें, जगहित करें, गेह चाहे न आवें । 

हरिऔध के यहाँ रस तत्त्व की भी प्रचुरता है। वियोग वात्सल्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- 

प्रिय पति, वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है? 
दुःख-जलनिधि डूबी का सहारा कहाँ है? 
लख-मुख जिसका मैं आज लौ जी सकी हूँ। 
वह हृदय हमारा नैन - तारा कहाँ है? 
पल-पल जिसके मैं पन्थ को देखती थी। 
निशिदिन उसके ही ध्यान में थी बिताती ।।
 उस पर जिसके है सोहती मुक्तमाला । 
वह नवनलिनी से नैन वाला कहाँ है।। 

हरिऔध के काव्य में प्रकृति-चित्रण भी हुआ है। वस्तुत: : प्रकृति साहित्य-सृजन का मेरुदण्ड है। साहित्यकार अपनी यथार्थवादी दृष्टि और कल्पना की तूलिका से साहित्य- सृजन का सुन्दर बिम्ब उपस्थित करता है।' (डॉ० नगेन्द्र) । यद्यपि हरिऔध ने अपने काव्य में प्रकृति का उपयोग प्राचीन मानदण्डों के आधार पर किया है, किन्तु नवीनता भी कहीं-कहीं द्रष्टव्य है। प्रियप्रवास की वियोगिनी राधा पवन-दूतिका से कहती है- 

थोड़ा आगे सरस रव का ध्यान सत्पुष्पवाला। 
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्यशाली । 
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा। 
आना जाना इस विपिन से मुमाना न होना।। 

निष्कर्षत: कह सकते हैं कि हरिऔध जी का काव्य-भावों का भण्डार है। इनके काव्य में ऐसे-ऐसे मार्मिक भावों की उद्भावना हुई है, जो अद्वितीय हैं, जिन्हें पढ़कर सहृदय विभोर हो उठता है। खास बात यह है कि इनका काव्य युगानुरूप है। 

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की भाषा शैली कला पक्ष

भावपक्ष के अनुरूप हरिऔध का कलापक्ष भी उत्कृष्ट है। काव्य-सौन्दर्य के विविध उपादान जैसे- भाषा, छन्द और अलंकार आदि में पर्याप्त नवीनता का समावेश किया। आपके काव्य की कलापक्षीय विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

भाषा

आपकी भाषा विविधता-भरी है। आपने जहाँ एक तरफ सरल, मुहावरेदार एवं देशज शब्दों से युक्त ब्रज भाषा का प्रयोग किया है, वहीं दूसरी तरफ तत्सम शब्दावली से युक्त खड़ी बोली का भी प्रयोग किया है। आपकी कृति 'रसकलश' कोमलकान्त पदावली से युक्त ब्रजभाषा का उदाहरण है। 'प्रियप्रवास' में संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली का प्रयोग हुआ है तथा 'चोखे चौपदे' और 'चुभते चौपदे' मुहावरेदार बोलचाल की खड़ी बोली के उदाहरण हैं। 

छन्द

आपने हिन्दी तथा संस्कृत दोनों के छन्दों का प्रयोग किया है। आपके काव्य में जहाँ एक तरफ हिन्दी के पुराने छन्द कवित्त, सवैया, छप्पय, दोहा आदि प्रयुक्त हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ इन्द्रवज्रा, शार्दूल विक्रीडित, शिखरिणी, मालिनी, वसन्ततिलका तथा द्रुतविलम्बित आदि संस्कृत वर्णवृत्तों का भी प्रयोग हुआ है। प्रयोग ही नहीं हुआ है, बल्कि कह सकते हैं कि इन छन्दों ने हरिऔध को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया।

अलंकार

अलंकार वाणी के विभूषण हैं। अलंकारों का प्रयोग करके कवि अपनी कविता को सुसज्जित करता है। हरिऔध का काव्य भी इसका अपवाद नहीं है। यद्यपि आपने परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है, लेकिन नवीनता के साथ। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, रूपकातिशयोक्ति, अपहनुति, व्यतिरेक, सन्देह, स्मरण, विषम, प्रतीप, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त आदि आपके प्रिय अलंकार हैं। 

निष्कर्षतः डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में कह सकते हैं कि "हरिऔध जी ने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ की हैं। ब्रजभाषा में 'रसकलश' की रचना हुई, तो 'प्रियप्रवास' तथा 'वैदेही वनवास' की खड़ी बोली में। इनके काव्य में एक ओर सरल और प्रांजल हिन्दी का निरलंकार सौंदर्य है, तो दूसरी ओर संस्कृत की आलंकारिक समस्त पदावली की छटा भी विद्यमान है। एक स्थान पर मुहावरों और बोलचाल के शब्दों में झड़ी लगी हुई है, तो दूसरी जगह उन्हें तिलांजलि दे दी गयी है। कहीं वर्णनात्मक शैली का अजस्र प्रवाह है, तो कहीं चित्रात्मक शैली का चमत्कार। इन्होंने द्विवेदी युगीन भाषा की कर्कशता में सरसता का संचार किया है। वास्तव में खड़ीबोली को काव्योपयुक्त बनाने वालों में ये अग्रगण्य है। इन्होंने दोहा, कवित्त, सवैया आदि के साथ ही संस्कृत के वर्ण वृत्तों में काव्य-रचना की है और इनको सभी मैं समान रूप से सफलता मिली है। छन्दों और भावों के अनुरूप भाषा का प्रयोग करने की इनमें अद्भुत सामर्थ्य है। इनकी अपूर्व साहित्य-सेवा के कारण ही हिन्दी- संसार इन्हें 'कवि-सम्राट' के रूप में स्मरण करता है।" 

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