भाषा और सत्ता का संबंध साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति भाषा मनुष्य की सबसे प्राचीन और सबसे शक्तिशाली संपत्ति है। वह विचार को जन्म देती है, विचार को फैलाती
भाषा और सत्ता का संबंध साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति
भाषा और सत्ता का संबंध साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति भाषा मनुष्य की सबसे प्राचीन और सबसे शक्तिशाली संपत्ति है। वह विचार को जन्म देती है, विचार को फैलाती है और विचार को मार भी सकती है। लेकिन भाषा कभी-कभी भाषा खुद एक हथियार बन जाती है, जिसे सत्ता अपने हाथ में लेती है। जब सत्ता भाषा को नियंत्रित करती है, तो वह न केवल शब्दों को, बल्कि स्मृतियों को, इतिहास को और कल्पना को भी नियंत्रित कर लेती है। साहित्य इस नियंत्रण और प्रतिरोध का सबसे जीवंत दस्तावेज रहा है। वह स्थान है जहाँ भाषा सत्ता से टकराती है, कभी पराजित होती है, कभी उसे ललकारती है और कभी चुपके से उसकी जड़ें खोखली कर देती है।
प्राचीन काल से ही भाषा और सत्ता एक-दूसरे के पूरक और विरोधी दोनों रहे हैं। संस्कृत को देववाणी कहा गया, लेकिन वह ब्राह्मणों की सत्ता की भाषा भी थी। आम जन पालि और प्राकृत में बोलता था। महाभारत और रामायण जैसी रचनाएँ संस्कृत में हैं, पर उनके भीतर व्यास और वाल्मीकि ने सत्ता के प्रश्न उठाए हैं। व्यास ने युधिष्ठिर से कहा था कि धर्मसूक्ष्म है, पर उस सूक्ष्मता को समझाने के लिए उसे संस्कृत जैसी जटिल भाषा चाहिए थी, जो आम आदमी से दूर थी। वाल्मीकि ने शूद्र तपस्वी कार की हत्या का प्रसंग रखकर यह दिखाया कि सत्ता की भाषा में करुणा के लिए भी जगह सीमित होती है। इस तरह प्राचीन साहित्य में ही भाषा का वर्गीय चरित्र उभर आया था।मध्यकाल में यूरोप में लैटिन साहित्य और सत्ता की भाषा थी। बाइबिल केवल लैटिन में थी, इसलिए आम जन ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता था। जब विक्लिफ और लूथर ने बाइबिल का अंग्रेजी और जर्मन में अनुवाद किया, तो वह केवल धार्मिक विद्रोह नहीं, भाषाई विद्रोह था। सत्ता ने उन्हें विधर्मी घोषित किया, क्योंकि भाषा को जनता के हाथ में देना सत्ता को जनता के हाथ में देना था। इसी तरह भारत में भक्ति काव्य ने संस्कृत की जगह स्थानीय भाषाओं को अपनाया।
कबीर, सूर, तुलसी, मीरा ने हिंदी, ब्रज, अवधी में लिखा। तुलसी ने राम को राजा नहीं, जनता का साथी बनाया और उस जनता की भाषा में बोला। यह सत्ता के खिलाफ सबसे शांत लेकिन सबसे गहरा विद्रोह था।औपनिवेशिक काल में भाषा और सत्ता का संबंध और भी नंगा हो गया। अंग्रेजी भारत में शासक की भाषा बनी। मैकाले ने कहा था कि हमें ऐसा वर्ग चाहिए जो रंग में भारतीय हो, लेकिन स्वाद, विचार और बुद्धि में अंग्रेज हो। इसके लिए उसने अंग्रेजी शिक्षा थोपी। फलस्वरूप बंगला, मराठी, तमिल साहित्य में एक साथ दो धाराएँ चलीं—एक जो अंग्रेजी की नकल करती थी, दूसरी जो अपनी भाषा में स्वराज की कल्पना करती थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न देखा तो बैंकिमचंद्र ने ‘वंदे मातरम्’ लिखकर बंगला को राष्ट्र की चेतना से जोड़ा। रवींद्रनाथ ने अंग्रेजी में ज्ञानपीठ स्वीकार किया, लेकिन बंगला में ही अपनी सबसे गहरी बात कही। प्रेमचंद ने हिंदी-उर्दू को गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक बनाया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ गाँव की भाषा में विद्रोह रचा।बीसवीं सदी में तो भाषा सत्ता का सबसे बड़ा हथियार और सबसे बड़ा शत्रु दोनों बनी। नाजी जर्मनी में गोएबल्स ने कहा था—जब मैं भाषा शब्द सुनता हूँ, तो मेरी रिवॉल्वर अपने आप कंधे पर चढ़ जाती है।सोवियत संघ में स्टालिन ने रूसी को थोपा और अन्य भाषाओं के साहित्यकारों को गुलाग भेजा। लेकिन वहीं जॉर्ग्वेल ने ‘1984’ लिखकर दिखाया कि सत्ता भाषा को कैसे विकृत करती है—न्यूस्पीक में ‘युद्ध शांति है, गुलामी आजादी है’। उनकी यह चेतावनी आज भी प्रासंगिक है जब पोस्ट-ट्रुथ और फेक न्यूज के दौर में शब्दों का अर्थ बदल दिया जाता है। स्वतंत्र भारत में भी भाषा और सत्ता का खेल जारी रहा। संविधान ने 22 भाषाओं को मान्यता दी, लेकिन हिंदी को थोपने की कोशिशें हुईं। दक्षिण भारत में हिंदी-विरोधी आंदोलन हुए। दलित साहित्य ने मानक हिंदी को चुनौती दी और अपनी बोली में लिखना शुरू किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि, बामा, जोसेफ मेकवान ने दिखाया कि जिस भाषा में सवर्ण बोलते हैं, वह दलित के लिए अपमान की भाषा भी हो सकती है। स्त्रीवादी लेखिकाएँ—महाश्वेता देवी, इस्मत चुगताई, कृष्णा सोबती—ने पुरुष की भाषा को तोड़ा और स्त्री की चुप्पी को शब्द दिए।आज डिजिटल युग में भाषा फिर से सत्ता के हाथ में है।
सोशल मीडिया के एल्गोरिदम तय करते हैं कि कौन सी भाषा, कौन सा शब्द ज्यादा लोगों तक पहुँचे। सरकारें और कॉर्पोरेट दोनों भाषा को नियंत्रित करना चाहते हैं। लेकिन साहित्य अभी भी प्रतिरोध का सबसे पुराना और सबसे जीवंत हथियार है। जब कोई कवि अपनी मातृभाषा में लिखता है, जब कोई उपन्यासकार गाँव की बोली में दर्द उकेरता है, जब कोई नाटककार सेंसर के बावजूद मंच पर सच बोलता है—तब भाषा सत्ता से आजाद होती है और सत्ता को आईना दिखाती है। इसलिए भाषा और सत्ता का संबंध कभी समाप्त नहीं होता। वह निरंतर संघर्ष है। साहित्य उस संघर्ष का साक्षी भी है और योद्धा भी। जहाँ सत्ता भाषा को जंजीरों में जकड़ना चाहती है, वहीं साहित्य उसे पंख देता है। और जब तक मनुष्य अपने भीतर की आवाज को शब्द देने की कोशिश करता रहेगा, भाषा सत्ता की गुलाम नहीं बन पाएगी। वह हमेशा विद्रोह की भाषा बनी रहेगी।


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