हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान

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हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और विविधतापूर्ण रहा है। इन साहित्

हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान


हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और विविधतापूर्ण रहा है। इन साहित्यकारों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मध्यकालीन हिंदी साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक मुस्लिम साहित्यकारों ने विभिन्न विधाओं में अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है।

संसार में प्राय: हर देशों की अपनी एक भाषा होती है। भाषा जब साहित्य के साथ चलती है तब उसका महत्त्व स्थायी तथा व्यापक होता है। डॉ. रघुवंश के शब्दों में- "साहित्य या तो अपनी शक्ति से दूसरे साहित्य को प्रेरित या प्रभावित करता है अथवा अपनी जीवनी-शक्ति या अभिव्यक्ति के सौन्दर्य से दूसरों को आकर्षित करता है।"

हिन्दी भारत की प्रमुख भाषा है। इसका विकास कतिपय वर्षों के परिश्रम का परिणाम नहीं है, बल्कि सदियों के अनवरत संघर्ष का परिणाम है। इस भाषा को वर्तमान रूप देने में असंख्य विद्वानों का हाथ रहा है। इन लोगों में अधिकांश तो भारत के हिन्दू ही थे, किन्तु जब से मुसलमानों का शासन देश में जम गया तब से वे लोग भी हिन्दी के प्रति आकर्षित हुए। भारत में हिन्दू-मुसलमान दोनों भिन्न-भिन्न धर्मों को मानते हुए साथ-साथ रहने लगे। उनमें अनेक दृष्टियों से समानता भी है। उनमें परस्पर विचारों का आदान-प्रदान भी होता है। उनकी दैनिक प्रयोग की भाषाएँ भी प्रायः समान ही हैं। देशकाल के अनुसार अनेक मुसलमान कवियों ने हिन्दी भाषा को अपनाया तथा अपनी रचनाएँ इसी भाषा को प्रदान की। इन मुसलमानों की महत्त्वपूर्ण देन हिन्दी साहित्य की शोभा बढ़ा रही है।
 
हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार- "भारत देश महामानवता का पारावार है। ओ मेरे हृदय; इस पवित्र तीर्थ में श्रद्धा से अपनी आँखें खोलो। किसी को भी ज्ञात नहीं कि किसके आह्वान पर मनुष्यता की कितनी धाराएँ, दुर्वारवेग से बहती हुई, कहाँ से कहाँ आयी और इस महासमुद्र में मिलकर खो गयी। यहाँ आर्य है, वहाँ अनार्य है, यहाँ द्रविड़ और चीनी वंश के लोग भी हैं। शक, हूण, पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सबके सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये। समय-समय पर जो लोग रण की धरा बहाते हुए एवं उन्माद और उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर एवं पर्वतों को लाँघकर इस देश में आये थे, उनमें से किसी का भी अब अलग अस्तित्व नहीं है।" 

इतिहास साक्षी है कि भारत प्रत्येक युग में अ-भारतीयों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। यहाँ समय-समय पर आर्य, शक, हूण, पठान, मुगल, डच, षुर्तगाली और अँगरेज आदि आये। दूसरी ओर, प्राचीन काल से ही भारत ने राजनीतिक, धार्मिक, व्यापारिक और साहित्यिक आदि विभिन्न दृष्टियों से दूसरे देशों से स्वयं भी सम्बन्ध बनाये रखा। भारत ने प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षत: अन्य देशों से बहुत कुछ सीखा और उन्हें बहुत कुछ दिया भी । पारस्परिक आदान-प्रदान का यह क्रम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में रहा है- धर्म, सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य आदि में यह क्रम अधिक स्थायी सिद्ध हुआ है। अन्य क्षेत्रों में उसका सूत्र भले ही कभी-कभी टूट गया हो, किन्तु साहित्यिक क्षेत्र में वह सदैव विद्यमान रहा है और दृढ़ से दृढ़तर होता गया है। डॉ. रघुवंश के शब्दों में- “वास्तव में साहित्यिक क्षेत्र में कभी ऐसा नहीं होता कि अपनी चीज़ दूसरों के पास ले जाकर स्वीकार करायी जाये। या तो शक्तिशाली संस्कृतियाँ दूसरों पर आरोपित होती हैं अथवा व्यापक संस्कृतियाँ दूसरों को आत्मसात् कर लेती हैं। इसी प्रकार साहित्य या तो अपनी शक्ति से दूसरे साहित्य को प्रेरित या प्रभावित करता है अथवा अपनी जीवनी-शक्ति तथा अभिव्यक्ति के सौन्दर्य से दूसरों को आकर्षित करता है।"
 
भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना से पूर्व ही अरब के विद्वान भारतीय साहित्य तथा संस्कृति के वैभव से परिचित हो चुके थे। भारत के गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, विज्ञान, पदार्थ ज्ञान, सर्पविद्या, विषविद्या, संगीत, राजनीति, व्याकरण, तर्क, नीति तथा ललितसाहित्य से बहुत कुछ ग्रहण किया था। जिन विद्वानों ने भारतीय ग्रन्थों का परिचय अरबों को दिया, उनमें विशेष उल्लेखनीय है- अलबरूनी, अल-असारी, अलअदाम, अलकिंन्दी, सुलेमान और मसूदी है।
 
हिन्दी भाषा तथा साहित्य का जन्म तथा विकास और इस्लाम का प्रवेश - ऐतिहासिक दृष्टि से लगभग साथ-साथ होता है। इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारी रूप में आये थे। वे इस रूप को भूले भी नहीं। यहाँ बस जाने पर भी उन्हें देर तक याद रहा। ऐसी स्थिति में उनका भारतीय साहित्य तथा संस्कृति की ओर सहज रूप से आकृष्ट होना कठिन ही था । फिर भी, यह कैसे आश्चर्य की बात है कि हिन्दी का सबसे पहला कवि होने का श्रेय एक यवन को ही प्राप्त है। हमारा तात्पर्य अमीर खुसरों से है। अमीर खुसरों की कविताओं में ही खड़ीबोली का काव्यात्मक रूप सबसे पहली बार मिला। अमीर खुसरों से पूर्व पंजाबादि में कुछ सूफियों ने धर्म-काव्य तो रचा था, किन्तु उस काव्य की पहुँच जनसाधारण तक न थी। पहली, मुकरी तथा दोसखुने आदि के द्वारा हिन्दी को जन साधारण तक पहुँचाने अथवा उनका मनोरंजन करने का श्रेय अमीर खुसरों को ही प्राप्त है। निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है-
 
एक नार दो को लै बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी । जिसके बैठे उसे सुहाय । 
खुसरो उसके बल-बल जाय ।। अरथ तो इसका बूझेगा मुँह देखो तो सूझेगा । । 

अमीर खुसरो की मिश्रित शैली का एक नमूना द्रष्टव्य है -
 
ले हाल मिसक मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ। 
के ताबे हिज्रां न दारम ऐ जां! ने लेहु काहे लगाय छतियाँ । 
शबाने हिज्रां दराज चूँ जुल्फ बरोजे वसलत चू उम्र कोतह । 
सखी ! पिया को जो मैं न देंखू तो कैसे काटूं अंधेरी रतियाँ ।।
 
जिस समय ये अपनी मुकरियाँ और पहेलियाँ लिख रहे थे, उस समय देश में व्यापक संघर्ष चल रहा था। फिर भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने 'खालिकबारी' नाम से एक शब्दकोश भी तैयार किया, जिससे समन्वय का कार्य सरल बना। इस प्रसंग में महात्मा कबीर का नाम आदर से लिया जाता है। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान के भेदभाव को मिटाने का अथक प्रयत्न किया। अपने अनुभव के आधार पर जीवन के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डाली तथा जनता को भेदभाव और संकीर्णता से बचने की शिक्षा दी। कबीर के प्रति हिन्दू और मुसलमान दोनों ही आदर का भाव रखते थे। कबीर का प्रभाव अशिक्षितों पर अधिक पड़ा। पर शिक्षितों का भी वर्ग कबीर को गुरु मानता है। कबीर के शब्दों में - 
 
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय । 
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय ।। 
पाछे लागा जाय था लोकवेद के साथ । 
आगे थै गुरु आ मिल्या दीपक दीया हाथ ।। 
माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुख माहिं । 
मनवा तो चहुँ दिसि फिरै यह तो सुमिरन नाहिं । । 

भक्ति तथा रीतिकाल में वातावरण बदल चुका था। यवन-शासक यहीं बस चुके थे। यहाँ का अंग बन चुके थे। शासक तथा शासित की बात तो विद्यमान थी, किन्तु वे अपने को इस देश से अलग नहीं समझते थे। प्रमाण है अनेक मुसलमान कवियों का हिन्दी को अपनाना। एक ओर सूफी कवि थे, जिन्होंने अवधी में प्रबन्ध प्रस्तुत किये। जायसी का 'पद्मावत' उस परम्परा की प्रतिनिधि रचना है। दूसरी ओर रीतिकालीन प्रेमी कवि थे, जिन्होंने ब्रजभाषा में प्रेम के उदात्त-रूप का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया। रसखान तथा आलम को उस परम्परा का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। तीसरी ओर रहीम थे। उन्होंने रीतिकाव्य रचकर प्रसिद्धि प्राप्त की। उनकें सभी प्रकार के काव्य में नीतिकाव्य को ही अधिक ख्याति प्राप्त हुई। यवन-सम्राटों से भी हिन्दी कवियों को संरक्षण प्राप्त हुआ। हिन्दी साहित्य के इतिहास में अकबरी-दरबार के हिन्दी कवियों का अलग से एक वर्ग माना जाता है, किन्तु ये प्रयत्न अभारतीय कलाकारों की देन नहीं कहा जा सकता। इस समय तक मुसलमान पूर्णरूप से भारतीय बन चुके थे। सामान्यरूप से सूफी परम्पराओं, मतानुयायी साधक काव्य का लक्ष्य सूफी मत का प्रचार करना ही नहीं था। मुस्लिम कवियों ने भी अपना उद्देश्य स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है-
 
औ मैं जानि कवित अस कीन्हा । 
मकु यह रहै जगत् महँ चीन्हा।। (पद्मावत उपसंहार खण्ड) जो यह पढ़े कहानी, हम्ह सँवरै दुई बोल ।। 

कासिमशाह के शब्दों में-

बाँच कथा पोथी भुवन परसन तेहि जगदीश । 
हमहिं बोल सुमिरे सोई कासिम दई असीस ।। (हंस जवाहिर) 

विधना जब लग जगत् माँ यह पुस्तक संचार । 
सबका साथ रहीम के नाव रहै उजयार ।। (शेखरहीम : भाषा प्रेमरस) मित्र महाशय गुन सदन चित बहलावन हेत । 
कह कहानी प्रेम की होय के सुनो सचेत ।। (शेख रहीम : भाषा प्रेमरस) 
कहीँ बात सुनो सब लोग। कथा कथा सिंगार वियोग । 
सकल सिंगार बिरह की रीति । माधौ कामकंदला प्रीति ।। (आलम) 
नूर मोहम्मद यह कथा, अहै प्रेम की बात । 
जेहि मन होइ प्रेमरस, पढ़ें सोइ दिन रात।। (नूर मोहम्मद)
 
उपर्युक्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि प्रेमाख्यानक मुसलमान कवियों ने शृंगाररस के चित्रण द्वारा पाठकों का मनोरंजन करने एवं अपने नाम की प्रसिद्धि के लिए ही प्रेमकथाओं की रचना की थी- हाँ, अपनी बहुज्ञता-प्रदर्शन के लिए वेदान्त, दर्शन, योग मार्ग, इस्लाम, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र, काव्य-शास्त्र, संगीतशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र एवं भूगोल की सामान्य बातों का भी समन्वय उन्होंने कर दिया, जो कि इस युग के अन्य कवियों केशव, बिहारी आदि की प्रमुख प्रवृत्ति रही है। जायसी जैसे एक-दो साधकों को छोड़कर शेष कवि साधारण गृहस्थ थे, जिन्होंने लौकिक अनुभूतियों से प्रेरित होकर काव्य-रचना की। शेखनिसार और कवि नसीर ने पुत्र- पत्नी आदि के देहान्त-शोक को भी काव्य-रचना में प्रवृत्ति का निमित्त माना है-
 
जब ते लतीफ कर भरम विसेख्यौ । 
तप संपत भिरथा देख्यौ । 
रोय-रोय यह बिरह बखानी । 
कोउ न रहा जग रहै कहानी ।। - (शेख निसार: युसुफ जुलेखा)
 
उसमान, आलम, जान, नूरमोहम्मद, शेखनबी आदि ने अपनी रचनाओं को सर्वगुण सम्पन्न बताते हुए उन्होंने तरुणों के हृदय में काम बढ़ाने वाली एवं रसिक भोग विलासियों को तृप्ति देने वाली घोषित किया है। नसीर के शब्दों में-

अन्त वह मृत्यु रस चाखा । गयी परान तोर अभिलाखा ।। 
जस दुखी हूँ मैं जगमाँही । तस न केहू संसार । 

चित्रावली के रचयिता को तो अपनी रचना पर इतना गर्व था कि उन्होंने अन्य कवियों को इससे बढ़कर काव्य-रचना करने के लिए चुनौती दी है । उसमान के शब्दों में-
 
तरुनन्ह के मन काम बढ़ावा । भोगी कहँ सुख भोग बढ़ावा । 
प्रीतिवन्त हौ सुनै कोई । बाढ़ प्रीति हिय सुख होई । । 
वीर है प्रेम दुख सुख या माँही । को सु सुवाद जु या मँहि नाहीं। (जान कवि) 
जेहि मन होई प्रेमरस, पढ़ें सोइ दिनरात ।। (नूरमोहम्मद) 
प्रेमी सुनै प्रेम अधिकावै वीर सिंगार विरह किछू पावा । पूरन पद लै जोग सुनावा।।(शेखनबी) 

कासिम यौवन हाथ है, चहै सो काज सँवार (कासिमशाह) यहाँ ध्यातव्य है कि इन कवियों को न किसी धर्म सम्प्रदाय का आश्रय प्राप्त था । न ही राजाश्रय प्राप्त था। ऐसी स्थिति में उनके काव्य का सम्बन्ध सर्वसाधारण जनता एवं लोकाश्रय से ही था। जनता के भी अनेक वर्ग थे, कुछ तरुण युवक थे, जो सौन्दर्य और प्रेम की चर्चा सुनना चाहते थे तो दूसरी वे प्रौढ़ व्यक्ति थे, जो मनोरंजन के साथ-साथ नीतिशास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे एवं अन्य वर्ग वृद्धों का था, जिसकी रुचि धार्मिक तत्त्वों में अधिक जी। ऐसी स्थिति में इन कवियों ने सभी वर्गों के पाठकों की रुचि का ध्यान रखते हुए प्रेम, शास्त्रज्ञान एवं वैराग्य- तीनों का ही समन्वय न्यूनाधिक मात्रा में अपने काव्यों में करने का प्रयास किया। इसीलिए अनेक कवियों ने इन सभी लक्ष्यों की पूर्ति का दावा अपने काव्य किया है। 

इन सभी प्रकार के काव्यों में- चाहे उनका इतिवृत्त इतिहास पुराण पर आधारित हो या कल्पना पर कुछ घटनाएँ ऐसी मिलती हैं, जो विभिन्न काव्यों में बार-बार आवृत्त हुई हैं। उन्हें 'कथानक रूढ़ि' की संज्ञा दी गयी है। इन काव्यों में निम्नलिखित कथानक रूढ़ियों का प्रयोग बहुत अधिक मात्रा में हुआ है- 
  • नायिका का किसी द्वीप विशेषतः सिंहल में जन्म लेना ।
  • गुण श्रवण, स्वप्न-दर्शन या चित्रदर्शन द्वारा नायक-नायिका में प्रेमोत्पत्ति ।
  • शुक, हंस, मैना आदि पक्षियों द्वारा सन्देशों का आदान-प्रदान । 
  • अप्सराओं, राक्षसों या अन्य दैवी शक्तियों द्वारा नायक-नायिका को एक-दूसरे के पास पहुँचा देना । 
  • नायक का वेश बदलकर - मुख्यतः योगीवेश में- नायिका की खोज में निकलना । 
  • समुद्रयात्रा एवं उसमें जहाज का टूट जाना, किन्तु नायक का किसी प्रकार से बच जाना । 
  • नायक का किसी अन्य प्रदेश में पहुँचकर किसी राक्षस या अत्याचारी राजा से किसी अन्य सुन्दरी को बचाना और उससे विवाह कर लेना । 
  • फुलवारी या मंदिर में नायक-नायिका की प्रथम गुप्त भेंट। 
  • नायिका के पिता या संरक्षक से नायक का संघर्ष । 
  • विवाह के अनन्तर अनेक पत्नियों के साथ नायक का सुख-भोग एवं अन्त में नायक की मृत्यु एवं पत्नियों का सती हो जाना । 

पद्मावत के सम्बन्ध में यह स्वीकार करना पड़ा- "जायसी सूफियों के अद्वैतवाद तक ही नहीं रहे हैं, वेदान्त के अद्वैतवाद तक भी पहुँचे हैं। भारतीय मत-मतान्तरों की उनमें अधिक झलक है।" भारतीय अद्वैतवाद के अनन्तर इन कवियों ने सर्वाधिक स्थान नाम पंथी, योग- -साधना को दिया है। एक तो उनके नायक प्राय: योगी-वेश धारण करके घर से निकलते हैं। उन योगियों के विभिन्न उपकरणों का चित्रण इतनी स्पष्टता से किया गया है कि उनके नाथ-पंथी योगी होने में सन्देह नहीं रहता, अपितु इसका स्पष्ट निर्देश भी कई बार कर दिया गया है। जायसी के पद्मावत में-
 
तजा राज, राजा भा जोगी । औ किंगरी कर गहेउ वियोगी। 
मेखल सिंधी, चक्र कंथारी । जोग बाट, रुदराक्ष, अधारी । 
कंथा पहिर दण्ड कर गहा । सिद्ध होय कहँ गोरख कहा ।
 
इसी प्रकार उसमान की 'चित्रावली' में भी नायक योगी-वेशधारण करके गुरु गोरखनाथ की जय कहता है-
 
सिंगी पूरहु जटा बराबहु । 
खप्पर लेहु भीख जेहिं पावहु । 
काँधे लेहु बाहि मृग छाला । 
गीव पहिरुहु रुद्राष कर माला ।। 
अरहु कान जानि एकहु कहै कीउ जौ लक्ख । 
पहिरि लेहु पग पाँवरी-बोलहु सिरी गोरक्ख ।।
 
मंझन कृत मधुमालती, नूरमोहम्मदकृत इन्द्रावती आदि अन्य काव्यों में भी यह प्रवृत्ति बराबर मिलती है। अस्तु इन कवियों के नायक न केवल नाथ-पंथी योग की दीक्षा लेते हैं, अपितु वे योग-पद्धति का पूरा ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसीलिए हठयोग की शब्दावली एवं साधना-पद्धति का निरूपण इनमें बार-बार हुआ है। अनेक बार इन गायकों को सफलता भी नाथपंथियों के आराध्य देव शिव के द्वारा ही मिलती है। अतः इनके काव्य से किसी धर्म-सम्प्रदाय का प्रचार होता है तो वह योग-पंथ ही है, अन्यथा अन्य किसी भी सम्प्रदाय का इतना प्रत्यक्ष, स्पष्ट एवं प्रभावोत्पादक वर्णन इनमें नहीं मिलता। 

इस प्रकार कबीर के बाद जायसी, कुतुबन, मंझन, उसमान आदि सूफी कवियों ने हिन्दी की महान् सेवाएँ अर्पित की हैं। इन कवियों द्वारा अपनी प्रेम गाथाओं द्वारा हिन्दू और मुसलमान दोनों को समान रूप से प्रभावित किया। इनकी भावना वास्तव में समन्वय की अधिक रही। इन कवियों ने प्रेम-मार्ग की लौकिक साधना से आध्यात्मिक प्रेम की प्राप्ति को सुलभ बनाया। इन कवियों ने अपनी रचनाओं के लिए लोक प्रचलित कथाओं को अपनाया। हिन्दू घरों की कथाओं को मसनवी शैली पर अवधी भाषा में फारसी लिपि में लिखा। इसी प्रकार इन लोगों की रचनाओं को हिन्दू-मुसलमान दोनों जातियों ने अपनाया। दोनों के लिए ये लोग मान्य हुए। सामान्य जीवन को सार्वजनिक परिस्थितियों पर इन लोगों ने स्वाभाविक रीति से दृष्टिपात किया तथा इससे भी उनकी सर्वप्रियता बढ़ी ।
 
मुसलमान कवियों की अपेक्षा मुसलमान कवयित्रियों ने भी हिन्दी की अपूर्व सेवा की है। 'ताज' नाम की बेगम इनमें प्रसिद्ध हैं। उन्होंने नये-नये भावों की अभिव्यक्ति हिन्दी में की है। वे कृष्ण भगवान की भक्ति में लीन रहती थी और उनका मन कृष्ण की सुन्दर श्यामल मूर्ति में इस प्रकार रम गया कि वे हिन्दुवानी होकर रहना चाहती थीं-
 
सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी तब रस की विकानी' बदनामी भी सहूँगी मैं। 
मैं देवपूजा ठानी और निजाम हूँ भलानी, तजि कमला कुरानी सारे गुणन गहूँगी मैं ।। 
मेरा साँवरा सलोना, धरे ताज सिर कुल्लेदार तेरे नेह-दाघ में निदाघ है जलूँगी मैं। 
नन्द के कुमार कुरबान तोरी सूरत पे, हौं तो मुगलानी हिन्दुवानी है रहूँगी मैं । ।
 
इसका स्पष्ट अर्थ है कि कृष्ण प्रेम ने मुसलमान महिलाओं तक को पूर्ण रूप से आकर्षित कर लिया था। मुगलकालीन वैभव-विलास की लहर ने हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव बहुत कम कर दिया। मुसलमान तथा हिन्दू दोनों ही दरबारों में दोनों जातियों के कवियों को आश्रय और संरक्षण मिलता था। कृष्ण-भक्ति की धारा ने प्रेम के व्यापक रूप को धारण कर लिया था। अकबर के सेनापति रहीम खानखाना को कौन नहीं जानता। 
 
उनकी नीतिपूर्ण सूक्तियाँ तथा व्यावहारिक पदावलियाँ आदर के साथ पढ़ी जाती हैं। उन्होंने समाज के जीवन को गहरायी से देखा था तथा अपनी रचनाओं में अपने अनुभवों को स्थान दिया। याचकता में लघुता में स्वाभाविक स्थान बताते हुए कहते हैं-
 
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात । 
नारायण हूँ को भयो बावन आँगुर गात। । 

इसी प्रकार 'रसखान' जी की सरल पदावली से भी सभी हिन्दी जानने वाले परिचित हैं। कृष्ण प्रेम पर वे सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे, उनके कवित्त और सवैये अत्यन्त सरस तथा मधुर हैं। प्रेम और विराग की भावना को उन्होंने सुन्दर रूप दिया। रसखान के शब्दों में -

मानुष हौं तौ वही रसखानि बस ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । 
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन । 
जो खग हौं तो बसेरी करों नित कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन । 
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयो कर छत्र पुरन्दर धारन ।।
 
आलम, शेखनवी आदि अनेक मुसलमान कवियों ने हिन्दी साहित्य के विकास में योगदान किया है। इन कवियों की सुन्दर रचनाएँ आज भी चाव के साथ पढ़ी जाती हैं। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य मुसलमान साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दी की सेवा की है। 

गद्य के प्रारम्भिक विकास में भी मुसलमान लेखकों का नाम आता है। अल्ला खाँ ने रानी केतकी की कहानी लिखकर हिन्दी गद्य के शैशवकाल में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कहानी और उपन्यास दोनों क्षेत्रों का मार्ग इसी कहानी से खुला। आधुनिक काल में मुसलमानों ने अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दी साहित्य के विकास में योगदान प्रदान किया है सैयद अमीर और जहूर बख्श का नाम इस दृष्टि से स्मरणीय रहेगा। इन लोगों ने अपनी रचनाओं में हिन्दी की श्रीवृद्धि की है। अनेक मुसलमान साहित्यकारों ने हिन्दीभाषा में अपनी रचना करके अपनी उदारता का परिचय दिया है, वे बराबर हिन्दू साहित्यकारों के साथ चले हैं तथा भारतीय परम्परा को अपनाया है। हिन्दी साहित्य इन साहित्यकारों का सदा आभारी रहेगा। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में- “मुसलमान साहित्यकार सच्चे पृथ्वीपुत्र थे। वे भारतीय जनमानस के कितने सन्निकट थे, इसकी पूरी कल्पना करना कठिन है। गाँव में रहने वाली जनता का जो मानसिक धरातल है, उसके ज्ञान की जो उपकरण सामग्री है, उसके परिचय का जो क्षितिज है, उस सीमा के भीतर हर्षित स्वर से उन्होंने अपने गान का स्वर ऊँचा किया है। जनता की उक्तियाँ, भावनाएँ एवं मान्यताएँ मानो स्वयं छन्द में बँधकर उनके काव्य में गुँथ गयी हैं।"

आधुनिक काल में भी मुस्लिम साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। प्रेमचंद, जो हिंदी कहानी और उपन्यास के पितामह माने जाते हैं, ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के यथार्थ को उजागर किया। उनकी कहानियों और उपन्यासों में ग्रामीण जीवन, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं का गहरा चित्रण मिलता है। प्रेमचंद की रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और उन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई पहचान दी।राही मासूम रजा ने हिंदी उपन्यास और साहित्य को नई दिशा दी। उनका उपन्यास "आधा गांव" हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को बहुत ही सूक्ष्मता से चित्रित किया है। राही मासूम रजा ने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों को भी उजागर किया।

कुर्रतुलऐन हैदर ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई। उनके उपन्यास "आग का दरिया" को हिंदी साहित्य की एक क्लासिक कृति माना जाता है। इस उपन्यास में उन्होंने भारत के विभाजन और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभावों को गहराई से चित्रित किया है। उनकी रचनाओं में इतिहास और समकालीनता का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।इसके अलावा, अली सरदार जाफरी, शानी, और अन्य कई मुस्लिम साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक एकता, सांस्कृतिक समन्वय और मानवीय मूल्यों को बढ़ावा दिया है। उनकी रचनाएं हिंदी साहित्य की धरोहर हैं और आज भी पाठकों को प्रेरित करती हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो हिंदी साहित्य में मुस्लिम साहित्यकारों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन साहित्यकारों ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सद्भाव को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगी।

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