तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत विचार

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तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत विचार तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत भारतीय संस्कृति और अध्यात्म की गहरी समझ को दर्शाता है। उनके विचारों का मूल आधार भक्

तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत विचार


तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत भारतीय संस्कृति और अध्यात्म की गहरी समझ को दर्शाता है। उनके विचारों का मूल आधार भक्ति, धर्म और मानवीय मूल्यों पर टिका हुआ है। तुलसीदास ने अपने ग्रंथों, विशेषकर 'रामचरितमानस' के माध्यम से जीवन के गूढ़ सत्यों को सरल और सहज भाषा में प्रस्तुत किया है। उनका दर्शन वेद, उपनिषद और गीता जैसे प्राचीन ग्रंथों से प्रेरित है, लेकिन उन्होंने इसे आम जनता की समझ में आने वाले रूप में ढाला।

आचार्यों ने दर्शन को 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' कहकर व्याख्यायित किया है। अर्थात् जिस परमात्मा का प्रत्यक्षीकरण पुतलियों के माध्यम से किया जा सके, वही 'दर्शन' है, किन्तु अध्यात्म कवि को चक्षुओं के माध्यम से परमतत्त्व की अनुभूति भावगम्यता के आधार पर होती है। अनुभूतियों द्वारा जिस परम तत्त्व की अनुभूति होती है, वही अध्यात्म है। दर्शन मस्तिष्क बुद्धि जन्य है जबकि आध्यात्म अनुभूति प्रधान। दर्शन में परम तत्त्व (ब्रह्म), जीव, जगत, माया और साधन मार्ग का विवेचन बौद्धिकता के आधार पर किया जाता है। अध्यात्म में उपर्युक्त तथ्यों का विवेचन अनुभूति के आधार पर किया जाता है।
 
गोस्वामी तुलसीदास जी रामानुजी विशिष्टाद्वैत की परम्परा में आते हैं, किन्तु वे उसके अन्धपोषक नहीं हैं। उन पर शंकर के मायावाद का प्रभाव स्पष्टतः दिखायी पड़ता है। वास्तव में वस्तुस्थिति की सत्यता है कि तुलसी की विचार-पद्धति में शंकर के मायावाद तथा रामानुज के विशिष्टाद्वैत दोनों मतों का समन्वय है। यदि तुलसीदास जी किसी मत विशेष के पोषक होते तो इस प्रकार की बात न कहते-
 
"कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ युगल प्रबल कोउ मानै । 
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै।"
 
संसार की सत्यता और असत्य का निरूपण करने वाले सिद्धान्तों (विशिष्टाद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद) को तुलसीदास ने भ्रम कहा है। उन्होंने इनसे दूर रहकर आत्मतत्त्व में लीन होने का उपदेश दिया है। अब हम गोस्वामी जी के समन्वयवादी दार्शनिक विचारों पर विहंगम दृष्टि डालेंगे-
 

ब्रह्म

तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत विचार
गोस्वामी जी ने राम को ब्रह्म माना है। राम दशरथ सुत होकर भी परब्रह्मरूप है। वे सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं- "शुद्ध सच्चिदानन्दमय कंद भानुकुल केतु ।” राम सृष्टि के कर्ता, पालक एवं संहारक हैं- जो करता, भरत हरता, सुर साहिब दीन दुःखी को।।' राम को गोस्वामी जी स्वरूपत: निर्गुण सगुण दोनों मानते हैं- 

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा । 
अकथ अगाध अनादि अनूपा।।"

वे वस्तुत: अपने परमार्थिक स्वरूप में अविगत, अलख, अनादि एवं अनूप हैं तथा उन्हें ही वेद में 'नेति' कहा गया है- 
"राम बह्म परमारथ रूपा अविगत अलख अनादि अनूपा । सकल विकार रहित मतभेदा कहि नेति नेति निरूपहिं बेदा ।।'
 
दोनों में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। राम-अवतार की लीला बहुत विचित्र है। मुनियों तक को भ्रम में डाल देती है। इस विषय में 'रामचरितमानस' के भरद्वाज, सती तथा गरुण को भी संदेह हुआ था। याज्ञवल्क्य, शंकर और काकभुशुण्डि ने उसका निराकरण किया है ।

माया

राम की अभिन्न शक्ति का नाम 'माया' है। तुलसीदास जी ने माया-वर्णन वृहद् रूप से किया है। लक्ष्मण की जिज्ञासा-समाधान के लिए भगवान् राम ने 'रामचरितमानस' में माया के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-
 
"मैं अरु मोर तोर तैं माया ।" 
गो गोचर जहँ लगि मन जाई ।। 
तहँ लगि माया मानहुँ भाई ।। "
 
'मैं' तथा ' मेरा', 'तै' तथा ' तेरा' का सम्बन्ध ही माया है। जिसके वशीभूत होकर सम्पूर्ण जीव रहते हैं। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण गोचर जगत् भ्रमोत्पादक माया है। माया के दो रूप विद्या तथा अविद्या है। विद्या माया ईश्वर की प्रेरणा सृष्टि की रचना करती है। अविद्या माया तो दुःख रूपा है। जीव इसके वश में पड़कर भवसागर में पड़ा रहता है। अविद्या माया, कपट, दंभ, पाखण्ड, परदारा, परधन-अपहरण, परद्रोह आदि रूपों में सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है- 

'व्यापि रहौ संसार महु, माया कटक प्रचण्ड । 
सेनापति कामादिभट दंभ कपट पाखण्ड ।। ' - 'मानस'
 
तुलसीदास जी ने माया के प्रभाव से ईश्वर को छोड़कर किसी को बचा हुआ नहीं देखा है। यहाँ शंकर और ब्रह्म पर भी उसका प्रभाव है- 

"शिव विरंचि का मोहहिं को है वापुरा आन। 
आन जिय जामि भजहि मुनि मायापति भगवान।।” -'मानस' 

तुलसीदास जी ने माया के वर्णन में अधिकतर शंकर के मायावाद की पदावली का वर्णन किया है। उदाहरणार्थ- 

“सनेह होय भिखारी नृप, रंक नाकपति होय । 
जागे हानि न लाभ कछु तिमि प्रपंच जिय जोय।।" -'मानस'
 

जीव

जीव ब्रह्म का एक अंश है। अतएव स्पष्टत: सत्य, चेतन एवं आनन्दमय है। जीव माया के कारण ही आत्मस्वरूप को भूलकर संसार-चक्र में पड़ जाता है। उदाहरणार्थ- 

"ईश्वर अंश जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ।। 
जो मायावस भयउ गोसाईं । वधेउ कीर मरकट की नाईं । । " 

'तबसे जीव भयउ संसारी । छूट न ग्रन्थि न होई सुखारी ।। ' 

राम और जीव में शक्ति तथा मात्रा का विभेद है। राम एक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी है और जीव अनेक अल्पज्ञ, मायावश, अज्ञानी, अभिमानी है। हर्ष, विषाद, अज्ञान, अहंकार जीव के धर्म हैं। मोह के वशीभूत होकर कर्म में यह फँसा रहता है, अनेक प्रकार से क्लेश सहता है। राम-कृपा से ही उसका उद्धार सम्भव है।
 

जगत

जगत् ब्रह्म का रूप है। ब्रह्म ही जगत को निर्मित और उपादान करता है। तात्पर्य यह है कि सर्व जगत् ईश्वर कृत है। राम भी जगत्-निर्मित और उपादान कारण है संसार जीवन कृत है। वे सत्य हैं, इसलिए जगत् को भी सत्य मानना चाहिए। लेकिन तुलसी ने उसे मिथ्या कहा है- 

"एहि विधि जग हरि आश्रित रहई । 
जद्यपि असत देत दुःख अहई ।। " - 'मानस' ।

जगत् को कोई सत्य मानता है तो कोई झूठा और कोई तो भ्रम में डालने वाला ही मानता है। तुलसीदास ने जगत् की वास्तविक स्वरूप की अनुभूति करने की सीख दी है- 

"कोउ कह सत्य झूठ कह कोउ जुगल प्रवल कोड मानै । 
तुलसिदास परिहरै तीनिभ्रम, सो आपुन पहिचानै ।। " 

राम से इतर कुछ दिखायी नहीं पड़ता। यही जगत का फेर है-

"ओहि जाने जग जाइ हेराई । 
जागे जथा सकल भ्रम जाई ।। "
 
इस जगत् में सर्वथा भिन्न शुद्ध सत्त्व में बैकुण्ठलोक में भगवान् का धाम है। राम सर्वव्यापक है । भक्तजनों ने अपनी मूर्ति-भावना की तुष्टि के लिए भगवान् के लोकं विशेष की कल्पना की है।
 

मुक्ति

त्रिताप पीड़ित मनुष्य मुक्ति चाहता है। गोस्वामी जी ने मुक्ति दो प्रकार से बताया है- विदेह तथा जीवन मुक्ति । 'मुक्ति' के अर्थ में 'कैवल्य' शब्द का प्रयोग हुआ हैं- “अति दुर्लभ कैलव्य परम पद।"

मुक्ति का मार्ग- वस्तुतः मुक्ति के तीन मार्ग हैं- कर्म, ज्ञान और भक्ति । संसार में कर्म प्रधान है। जो जैसा करता है वैसा भरता है- "कर्म प्रधान विस्व करि राखा । जो जस करइ सो तस फल चाख ।।"
 
मुक्ति तथा भक्ति - भक्ति और मुक्ति के सम्बन्ध में तुलसीदास जी दो उत्तर देते हैं। प्रथम- यह कि सगुण का उपासक मुक्ति नहीं चाहता तथा दूसरा यह है कि भक्ति पर मुक्ति आश्रित होती है। वह भक्ति का परिणाम है- “सगुणोपासक मोक्ष न लेहीं । तिन्ह कहुँ भाव भगति प्रभु देहीं । । "
 
इस प्रकार, बिना भगवान् की भक्ति, अर्चन, वन्दन के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती है। मुक्ति के लिए भक्ति आवश्यक होती है।
 
भगवत्कृपा - इस मायाजाल के भवसागर से पार होने के लिए भगवत् कृपा अति आवश्यक है। इसी से मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है।
 
इस प्रकार तुलसीदास जी ने अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों को अपनाकर भी किसी एक वाद को पूर्णतः ग्रहण नहीं किया वरन् उनके बीच सामंजस्य स्थापित किया है। तुलसीदास का दार्शनिक सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। उनके विचार मनुष्य को जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने भक्ति, कर्तव्य और नैतिकता के माध्यम से मनुष्य को आत्मिक शांति और मोक्ष का मार्ग दिखाया है। तुलसीदास का दर्शन न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, जो मनुष्य को एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा देता है।

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