हिंदी संत कवियों की परंपरा एवं विकास

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हिंदी संत कवियों की परंपरा एवं विकास हिंदी संत कवियों की परंपरा भारतीय साहित्य और संस्कृति की एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने मध्यकालीन भारत में समाज,

हिंदी संत कवियों की परंपरा एवं विकास


हिंदी संत कवियों की परंपरा भारतीय साहित्य और संस्कृति की एक महत्वपूर्ण धारा है, जिसने मध्यकालीन भारत में समाज, धर्म और दर्शन को गहराई से प्रभावित किया। यह परंपरा लगभग 12वीं से 17वीं शताब्दी तक फैली हुई है और इसमें अनेक संत कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भक्ति, ज्ञान और समाज सुधार का संदेश दिया। इन संत कवियों ने जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों को व्यक्त किया, जिससे उनकी शिक्षाएं आम लोगों तक पहुँच सकीं।

हिंदी संत कवियों की परंपरा का आरंभ भक्ति आंदोलन के साथ जुड़ा हुआ है। भक्ति आंदोलन एक ऐसा सामाजिक और धार्मिक आंदोलन था, जिसने जाति, वर्ग और लिंग के भेदभाव को चुनौती दी और ईश्वर की भक्ति को सर्वोच्च माना। इस आंदोलन ने समाज में एक नई चेतना का संचार किया और लोगों को आध्यात्मिकता की ओर प्रेरित किया। संत कवियों ने इस आंदोलन को अपनी रचनाओं के माध्यम से आगे बढ़ाया और समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई।

हिंदी संत कवियों की परंपरा एवं विकास
हिन्दी-साहित्य के इतिहास को अध्ययन की दृष्टि से विद्वानों ने चार काल खण्डों में विभक्त किया है- आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल । जिसमें भक्तिकाल को हिन्दी-साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। भक्ति काल में भक्ति की दो धाराएँ-सगुण धारा एवं निगुर्णधारा प्रस्फुटित हुई। पुनः निर्गुण धारा के अन्तर्गत ज्ञान मार्ग एवं प्रेम मार्ग दो धाराएँ हुई। ज्ञान मार्ग के प्रवर्त्तक कबीर थे। ज्ञान मार्गी साहित्य को ही सन्तकाव्य की संज्ञा दी जाती है। 15वीं शती वि० के कबीर साहब से लेकर 20वीं शती विक्रम पूर्वार्द्ध तक एक लम्बी अवधि के बीच हिन्दी में जिस विशिष्ट विचारधारा और रचना पद्धति पर अनवरत साहित्य सर्जन होता रहा वह सन्त काव्य के नाम से जाना जाता है। इसके मूल में चिन्तन और अभिव्यक्ति का एक लम्बा इतिहास है जो अपने गर्भ में अनेक ऐसे रहस्य छिपाये हुए है, जिनका उद्घाटन ऐतिहासिक शोधों से भी नहीं हो सका है। इस परम्परा का साहित्य एक विशेष साधनापरक विचारों से ओत-प्रोत है और समाज को नई दिशा में मोड़ने के सफल प्रयास का एक सुन्दर माध्यम सिद्ध हो चुका है।
 
हिन्दी-साहित्य के मध्ययुगीन सन्त साहित्य में कबीर का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुत प्रखर था। कबीर से पूर्व भी अनेक सन्त मत के साधक हो गये थे जिनकी गणना साहित्य के इतिहास में होती है, किन्तु संत मत की जो सहज धारा हिन्दी साहित्य की कविता में प्रवाहित हुई, वह कबीर से ही प्रारम्भ होती है। कबीर से पूर्व जिन साधक सन्तों की रचनाएँ मिलती हैं उनमें महाराज सोमेश्वर (1127 ई०), चक्रधर महाराज (1194 ई०, नामदेव (1267 ई०), ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई आदि हैं। नामदेव जी की कुछ कविताएँ गुरुग्रन्थ साहब में मिलती हैं। इनकी भाँति ही भक्त कवि जयदेव के निर्गुण भाव के कुछ पद गुरुग्रन्थ साहब में मिलते हैं। इस तरह सन्त काव्य-परम्परा के कुछ प्रमुख कवियों एवं उनकी कृतियों का विवरण निम्नवत् है - 

कबीरदास

कबीरदास (जन्म सम्वत् 1456) सन्त काव्य-धारा के प्रवर्त्तक एवं सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। कबीरदास वैष्णवाचार्य स्वामी रामानन्द के शिष्य थे। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि ये निरक्षर थे– 'मसि कागद छुय्यौ नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ' । इसलिए इनकी रचनाओं का रूप मौखिक था जिसे इनके शिष्यों ने लिपिबद्ध किया और जो रचनाएँ मिलती भी हैं उनकी प्रामाणिकता के विषय में स्पष्टत: कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि उसमें अधिकांश प्रक्षिप्त हैं। कबीर की मुख्य रचना 'बीजक' है। इसके भी कई रूप मिलते हैं। अध्ययन की दृष्टि से बीजक के तीन भाग- साखी, सबद, रमैनी किये गये हैं।
 
कबीरदास ने निर्गुण मत के प्रचार के लिए विभिन्न प्रान्तों का भ्रमण किया जिससे उनकी भाषा में विभिन्न क्षेत्रों के बोलियों के शब्द स्पष्टतः दिखायी पड़ते हैं। इसी कारण उनकी भाषा सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कही जाती है। इन सब कारणों से कबीर की भाषा अत्यन्त अनिश्चित है, फिर भी डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है। परम तत्त्व के विषय में कबीर ने बीजक में लिखा है कि - 

भारी कहूँ तो बहु डरूँ, हलका कहूँ तो झूठ । 
मैं का जानूँ राम को, नैनों कभी ना दीठ । ।
 

दादूदयाल

सन्त दादूदयाल कबीरदास के सहज मार्ग के अनुयायी थे। कबीरदास जी के बाद सन्त काव्यधारा में आप दूसरे महान कवि के रूप में जाने जाते हैं। दादूदयाल जाति के धुनिया थे। उन्होंने दादू पन्थ की स्थापना की। इनके काव्य में भी ईश्वर की व्यापकता, हिन्दू-मुस्लिम एकता, संसार की अनित्यता, अलौकिकता आदि का चित्रण है। दादू की वाणी में यद्यपि कबीर सा उक्तियों का चमत्कार नहीं है किन्तु प्रेमभाव का निरूपण उन्होंने अधिक सरसता और गम्भीरता से किया है। इनकी भाषा में राजस्थानी का पुट अधिक है। प्रेम और विरह का वर्णन करते हुए दादू लिखते हैं- 'विरह प्रेम की लहरी में ये मन पंगुल होय । '
 

सुन्दरदास

सुन्दरदास दादूदयाल के ही शिष्य थे। इन्होंने पाँच वर्ष की अवस्था में अपने घर को त्यागकर दादू से वैराग्य की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। ग्यारह वर्ष की अवस्था में काशी जाकर इन्होंने प्राचीन साहित्य और दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया। वस्तुतः सन्त कवियों में अध्ययन व विद्वता की दृष्टि से सुन्दरदास का स्थान सबसे ऊँचा है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों में 'ज्ञान समुद्र' और 'सुन्दर विलास' उल्लेखनीय है। सुन्दरदास की निम्नवत् पंक्तियों में योग वशिष्ठ के कल्पनावाद की ही उद्धरणी की गयी है -

"मन के ही भ्रम ते जगत यह देखियत 
मन ही भ्रम गये जगत यह विलात है। "

उनकी रचनाएँ भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी भाषा अन्य सन्तों की भाषा की भाँति 'अव्यवस्थित और ऊटपटाँग' न होकर काव्य की मँजी हुई ब्रजभाषा है। इन्होंने पहली बार सन्त-कवियों की परम्परा में काव्य-पद्धति पर रचना करके अन्य सन्तों की रचनाओं से पार्थक्य दिखलाया। ये शास्त्रीय ढंग की रचना करते थे ।यथा- "तीन गुगनि की वृत्तिमहि, है थिर चंचल अंग । ज्यौं प्रतिबिम्ब हि देखिये, हालत जल के संग।।"
 
सन्त परम्परा के कवियों में इनका नाम एक और कारण से भी महत्त्वपूर्ण है और वह है इनकी कवित्त-सवैया शैली। अब तक सन्तों ने केवल पद और दोहों में ही रचना की थी। इनके कवित्त-सवैयों में अलंकारों की सुन्दर योजना है। यथा - 

गेह तज्यो अरु नेह तज्यो पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी । 
मेह सहे सिर सीत सहे तन धूप समै जो पँचागिन बारी ।। 
भूख सही रहि रुख तटे पर सुन्दरदास सबै दुख भारी । 
डासन छाड़ि कै कासन ऊपर आसन मार्यो पै आस न मारी।।
 

गुरु नानक

सिक्ख धर्म के प्रवर्त्तक गुरु नानक का भी सन्त कवियों में बहुत ऊँचा स्थान हैं। इनकी रचनाएँ गुरु ग्रन्थ साहब में संकलित हैं। कबीर की भाँति इन्होंने निर्गुणोपासना, वाह्याचारों का खण्डन, गुरु कृपा का महत्त्व आदि का वर्णन निर्भीकतापूर्वक किया है। इनकी भक्ति में हृदय की सच्ची अनुभूति मिलती है।
 
नानक साहब को बाल्यावस्था में संस्कृत, फारसी, पंजाबी एवं हिन्दी की थोड़ी बहुत शिक्षा प्राप्त हुई थी, किन्तु बचपन से ही उनका मन सांसारिक कर्मों की अपेक्षा आत्मचिंतन, भगवद्भक्ति और सन्तसेवा में अधिक लगता था। आगे चलकर वे कबीर की निर्गुणोपासना की ओर अधिक आकृष्ट हुए और उन्होंने नानकपन्थ के नाम से एक अलग सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।
 
कबीर की भाँति नानक ने भी योजनापूर्वक किसी काव्य की रचना नहीं की थी। भक्तिभाव से पूर्ण होकर समय-समय पर उन्होंने जो भजन गाए उनका एक संग्रह 'गुरु ग्रन्थ साहब' के रूप में प्राप्त होता है। इन भजनों में से कुछ की भाषा पंजाबी और कुछ की तत्कालीन सामान्य काव्य भाषा हिन्दी है। यथा- एक पद दर्शनीय है- 

जो नर दुःख में दुःख नहिं मानें। सुँख सनेह अरुभय नहि आजके कंचन माटी जाने ।। 
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना । हरण सोकतें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना । । 
आसा मनसा सकल त्यागि कै, जगतें रहै निवासा । काम क्रोध जेहिं परसैं नाहिन तेहिं घट ब्रह्म निवासा ।। 
किरपा जेहि नर पै कीन्हों तिन्ह यह जुगुति पिछानी । नानक लीन भयो गोविन्द सों ज्यों पानी संग पानी ।। 

रैदास

रैदास उच्चकोटि के सन्त कवि थे । प्रसिद्ध भक्त कवयित्री मीरा ने भी अनेक पदों में इनका स्मरण गुरु के रूप में किया है। रैदास जी के कुछ पद गुरु ग्रन्थ साहब में संकलित हैं। इनके काव्य में व्यक्तित्व की कोमलता, अनुभूति की तरलता और अभिव्यक्ति की सरलता मिलती है।
 

धर्मदास जी

कबीर के अनुयायी सन्त कवियों में धर्मदास जी का नाम उल्लेखनीय है। अपने गुरु की वाणी का संग्रह 'बीजक' के रूप में करने का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है। इनके स्वरचित पदों का संग्रह भी 'धनी धरमदास की बानी' नाम से प्रकाशित हुआ है। इनके पद भक्ति-भावना से ओत-प्रोत हैं।
 

रज्जबदास जी

दादूदयाल के दूसरे प्रसिद्ध शिष्य रज्जबदास जी थे। इन्होंने लगभग पाँच हजार छन्दों की रचना की जो उनकी 'बानी' नामक काव्य में संगृहीत हैं। इन्होंने ईश्वर प्रेम विषयक व्यञ्जना अनुभूतिपूर्ण शब्दों में की है।
 

अन्य सन्त कवि

यारी साह और पलटू साहब का सम्बन्ध बाबरी सम्प्रदाय से था। इन दोनों की कविता में भाषा की सरलता और भावों की स्पष्टता परिलक्षित होती है। पलटू साहब ने अनेक शैलियों- सबद, साखी, कुण्डलियाँ, झूलना आदि का प्रयोग किया है। अपनी फक्कड़ता के लिए प्रसिद्ध सन्त कवि मलूकदास ने भी अनेक काव्य ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ज्ञान बोध, रतनखान, भक्त बच्छावली, भक्त विरुदावली गुरु प्रताप आदि. उपलब्ध हैं। प्राणनाथ के द्वारा रचित ग्रन्थों में राम ग्रन्थ, प्रकाशग्रन्थ, षट्ऋतु, सागर सिंगार आदि उल्लेखनीय हैं। सहजोबाई और दयाबाई दोनों प्रसिद्ध सन्त चरणदास जी की शिष्याएँ थीं। सहजोबाई के उद्गार 'सहनप्रकाश' तथा दयाबाई की भावपूर्ण उक्तियाँ 'दयाबोध' और विनयमलिका' में संगृहीत हैं। इनके काव्य में नारी सुलभ कोमलता, अनुभूति की तरलता एवं अभिव्यक्ति की सरलता दृष्टिगोचर होती है। इनके अतिरिक्त भी अनेकों सन्त कवि एवं कवयित्री हुई है जिन्होंने विभिन्न पन्थों के माध्यम से अपने उद्गार व्यक्त किये हैं।
 
इस प्रकार हिंदी संत कवियों की परंपरा ने न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज को एक नई दिशा भी दी। इन कवियों ने धार्मिक कट्टरता और सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष किया और मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों को स्थापित किया। उनकी रचनाएँ आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं और उनके विचार समकालीन समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं। इस परंपरा ने हिंदी साहित्य को एक नई पहचान दी और भारतीय संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया।

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