हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श

SHARE:

हिंदी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श एक ऐसा क्षेत्र है जिसने सदियों से साहित्यकारों और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। यह विमर्श स्त्री के जीवन, अनुभव

हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श

 
हिंदी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श एक ऐसा क्षेत्र है जिसने सदियों से साहित्यकारों और पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। यह विमर्श स्त्री के जीवन, अनुभवों, संघर्षों और समाज में उसकी भूमिका को केंद्र में रखकर किया जाता है। यह सिर्फ एक साहित्यिक विषय नहीं है, बल्कि यह समाज में स्त्री की स्थिति और उसके अधिकारों से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा भी है।

इस समय दुनिया में बहुत-से सामाजिक आन्दोलन चल रहे हैं, जिन्हें नये सामाजिक आन्दोलन कहा जाता है। उनमें नारीवाद एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है। इस आन्दोलन का उद्देश्य है कि लिंग के आधार पर लोगों में भेदभाव न किया जाय। महिलाओं को समानता मिले और उन्हें सभी प्रकार के दमन व शोषण से मुक्त किया जाय। चूँकि पुराने जमाने से ऐसी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाएँ चली आ रही हैं, जो लैंगिक असमानता व लैंगिक अन्याय को वैध ठहराती हैं।

नारी मुक्ति की अवधारणा

हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श
हिन्दी कथाकारों ने अपनी रचनाओं में नारी मुक्ति की अवधारणा को ध्यान में रखकर जो विचार व्यक्त किये हैं, वे भी स्त्री-विमर्श के अन्तर्गत आते हैं। पुरुष-प्रधान समाज में नारी की स्थिति को दर्शाने के प्रयास उपन्यासों एवं कहानियों में बराबर होते आये हैं, किन्तु इधर कुछ वर्षों से इसकी चर्चा अधिक होने लगी है। विशेष रूप से कुछ लेखिकाओं ने इस दिशा में विशेष प्रयास किये हैं। उस वर्ग से सम्बन्धित होने के कारण वे नारी मन को अधिक प्रामाणिक ढंग से व्यक्त कर सकी हैं। आठवें दशक में महिला लेखिकाओं ने इसी विमर्श को अपनी रचनाओं में अधिक उभारने का प्रयास किया। उषा प्रियम्वदा, मन्नू भण्डारी, दीप्ति खण्डेलवाल, मृदुला गर्ग, मणिका मोहिनी, मंजुल भगत, कृष्णा अग्निहोत्री, सूर्यबाला, कृष्णा सोबती, निरुपमा सोबती, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, प्रभा खेतान, नासिरा शर्मा, नमिता सिंह, सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा एवं ममता कालिया जैसे अनेक नाम आठवें दशक में उभरे तथा इनकी रचनाओं ने पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया। पुरुष लेखकों ने भी नारी की दशा का चित्रण अपनी रचनाओं में किया है। सर्वप्रथम गोदान में प्रेमचंद ने मेहता के माध्यम से नारी की दशा का निरूपण किया है, किन्तु प्रेमचंद ने नारी-मुक्ति का विरोध किया है, समर्थन नहीं। पश्चिम का अनुकरण भारत की नारियों के लिए घातक है। यह प्रेमचंद ने मेहता द्वारा कहलवाया है।
 
प्रेमचंद के ऐसे विचारों को नारी-मुक्ति के समर्थकों ने ठुकरा दिया। 'मुझे चाँद चाहिए' (सुरेन्द्र वर्मा), बसन्ती (भीष्म साहनी), अर्द्धनारीश्वर (विष्णु प्रभाकर), 'बिना दरवाजे का मकान' (रामदरश मिश्र) जैसी अनेक कृतियों के लेखकों ने नारी के प्रति होने वाले अन्याय, अत्याचार का मुखर विरोध किया है।
 
'स्त्री-विमर्श' के प्रारम्भिक काल में पुरुष-प्रधान समाज में नारी की दीन-हीन स्थिति का चित्रण करते हुए लेखिकाओं ने पुरुषों को दोषी ठहराया, किन्तु बाद में इस प्रवृत्ति का विरोध भी किया। 'चित्रा मुद्गल' ने अपने उपन्यास 'एक जमीन अपनी' में लिखा- "पुरुष विरोध करते हुए पुरुष की तरह निरंकुश और स्वच्छन्द हो जाना नारी मुक्ति नहीं है।"

नारियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता

'नारी विमर्श' की अभिव्यक्ति का मूल स्वर नारियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं नारी-पुरुष की समानता के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। आर्थिक स्वावलम्बन के अभाव में नारी अपने ही परिवार में शोषित होती रहती है। नारी-पुरुष के लिए समाज ने जो अलग-अलग प्रतिमान निर्धारित कर रखे हैं, उनका मुखर विरोध भी कथा साहित्य में हुआ है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी कहानी 'बेतवा बहती रही' में लिखा है- “ विभिन्न मानसिकता के दुमुँह समाज में आज की नारी मात्र वस्तु, मात्र सम्पत्ति, मात्र विनिमय की चीज है।" 

नारी को मात्र भोग-विलास की वस्तु समझने वाली मानसिकता का विरोध भी मुखर रूप में किया गया है। पुरुष भेड़ियों की तरह 'घात' लगाए इस नरम चारे को उड़ाने के लिए उतावले रहते हैं, ऐसी धारणा कथा-लेखिका नमिता सिंह की है। 'अपनी सलीवें' नामक कहानी में वे लिखती हैं- "यह जिन्दगी तो जैसे अंधेरे घने जंगल से निकलने वाली पगडण्डी का नाम है। कब किधर से कोई बाघ या भेड़िया हमला कर दे। किस पेड़ के पीछे से जंगली सुअर दौड़ता हुआ आए और टक्कर मारकर गिरा दे, कुछ पता नहीं।"
 
समाज में बेटे-बेटी में जो फर्क किया जाता है, वह भी स्त्री को कचोटता है। रामदरश मिश्र की कहानी 'थकी हुई सुबह' की लक्ष्मी कहती है- “क्या स्त्रियों को कोई दूसरा ईश्वर पैदा करता है या यहाँ स्त्री-पुरुष के लिए दो नियम हैं।"

आज की नारियों में आत्माभिमान है, वे अपनी स्थिति को सुधारने के लिए प्राणपण से जुटी हुई हैं। वह जमाना चला गया जब स्त्रियों को गाय-भैंस की तरह चाहे जिस खूंटे से बाँध दो, वे उफ तक न करती थीं। अब वे अधिक अधिकारों के प्रति सचेत हैं। चित्रा मुद्गल की कहानी 'एक जमीन अपनी' की अंकिता सुधांशु से कहती है- “औरत बौनसाई का पौधा नहीं है। जब जी चाहे उसकी जड़ें काटकर उसे वापस गमलों में रोप लिया। वह बौना बनाये रखने की साजिश को अस्वीकार भी कर सकती है।"

विवाह संस्था का निषेध

स्त्री-विमर्श के अन्तर्गत कुछ अन्य कथाकारों ने ऐसी नारियों का चित्रण भी किया है, जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी होकर विवाह संस्था का निषेध करती हैं और पुरुष के साथ कम्पेनियन बनकर रहना चाहती हैं, पत्नी बनकर नहीं। पत्नी बनने में उन्हें गुलामी की बू आती है। अत: वह प्रेमिका बनकर रहना पसंद करती हैं, जिससे किसी बंधन में न पड़ें। वे पुरुष के स्वैराचार का अनुकरण करती हैं, पातिव्रत पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं तथा मातृत्व का निषेध करती हैं। 'मुझे चाँद चाहिए' व 'एक जमीन अपनी' में ऐसी नारियों का चित्रण है, जो ग्लैमर की दुनिया में संघर्ष, उपलब्धि एवं भटकाव का अनुभव करती हैं। वर्जनाहीन, नैतिकताविहीन, जीवन जीने की ललक पाश्चात्य नारी के लिए उपयुक्त हो सकती है, किन्तु भारतीय परिवेश में यह स्वीकार्य नहीं है ।

पुरुष अत्याचार का विरोध

कहीं-कहीं नारी पुरुष अत्याचार का विरोध करती हुई, उसकी प्रतिक्रिया में प्रतिशोध भाव से युक्त होकर वह सब करने को विवश करती है, जिससे पुरुष ने उसको पीड़ा पहुँचायी है। यदि उसका पति परनारी-संसर्ग का आकांक्षी है, तो वह परपुरुष में आसक्त क्यों न हो, इस विषय को भी कथाकारों ने लिया है। नारी-मुक्ति के समर्थकों को नारी से यौन-शुचिता की अपेक्षा करना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। जब पुरुषों में यह नहीं मिलती, तो नारी से इसकी अपेक्षा क्यों ? कौमार्य, सतीत्व, पातिव्रत जैसी अवधारणाएँ अब आधुनिक नारी के संदर्भ में अप्रासंगिक हैं। स्त्री-विमर्श के समर्थक यही तर्क देते हैं। 

नारी का अबलापन से मुक्ति भी स्त्री-विमर्श का एक तत्त्व है। 'रंगी हुई चिड़िया' कहानी की शीलारामेकर की एक आवाज पर हजारों मजदूर एकत्र हो जाते हैं। उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि नारी अबला है। 'एक जमीन अपनी' की अंकिता संघर्ष करना पसन्द करती है, किन्तु कुत्सित समझौता नहीं करती। 'अपनी सलीबे' में नमिता सिंह ने साफ कहा है- प्रबुद्ध नारियों को जनजागरण का कार्य अवश्य करना चाहिए, भले ही वे समुद्र पर सेतु न बाँधें, रावण, मेघनाद को न मारें, किन्तु ऐसा करने की इच्छा तो व्यक्त करें, यही उसकी मुक्ति है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि हिन्दी कथाकारों ने इस सोच एवं वैचारिकता वाले नारी-चरित्र गढ़े हैं और वे इस दिशा में निरन्तर गतिशील हैं। 

हिंदी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श एक ऐसा विषय है जो हमेशा प्रासंगिक रहेगा। यह न केवल साहित्य के लिए बल्कि समाज के लिए भी महत्वपूर्ण है। स्त्री विमर्श के माध्यम से हम स्त्री के जीवन को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और समाज में समानता लाने के लिए काम कर सकते हैं।

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका