हिंदी साहित्य में दलित विमर्श

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हिंदी साहित्य में दलित विमर्श हिंदी साहित्य में दलित विमर्श एक ऐसा साहित्यिक आंदोलन है जिसने भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से की उपेक्षित आवाज़ को उठाया

हिंदी साहित्य में दलित विमर्श


हिंदी साहित्य में दलित विमर्श एक ऐसा साहित्यिक आंदोलन है जिसने भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से की उपेक्षित आवाज़ को उठाया है। यह विमर्श दलितों के जीवन, संघर्षों, और सामाजिक उत्पीड़न को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्यिक कार्यों का विश्लेषण करता है।

डॉ० श्रीमती तारा सिंह ने लिखा है कि- “दलित से अभिप्राय उन लोगों से है, जिन्हें जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण सदियों से स्वस्थ एवं समुन्नत सामाजिक जीवन से वंचित, तिरस्कृत और समाज के हाशिए पर उपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश रखा गया है। इतिहास के पन्नों को पलटने से यह साफ पता चलता है कि भारतीय सभ्यता के निर्माता वैदिक जन थे, जिनका दर्शन ब्रह्मवाद रहा, जिसके कारण दलित वर्ग सदा संघर्षशील रहे। जरूरत की बुनियादी सुविधाओं के लिए यह समाज तरसते और तड़पते जीता आया। इसकी व्यथा और कथा कभी किसी ने सुनने और समझने की जरूरत महसूस नहीं की। तभी ईश्वर के वरदान स्वरूप इनके जीवन में क्रांति सूरज बनकर बाबा अम्बेडकर अवतरित हुए और जीवन भर गरीब, दलित, हताश तथा व्यवस्था के सताये लोगों के लिए स्वतन्त्रता की सच्ची लड़ाई लड़े। बाबा अम्बेडकर ने अन्धविश्वास, विकृत रूढ़ि-परम्पराओं, देवी-देवताओं से सम्बन्धित आडम्बरों, भाग्य, अवैज्ञानिक सोच तथा उन सभी बातों को नकारा जो मनुष्य को बर्बरता की ओर ले जाता है। लेकिन अफसोस, ऐसे मसीहा जो ईश्वर के खिलाफ रहे, आज उन्हें भगवान् बनाकर, उनके तस्वीर को फूल मालाएँ चढ़ाकर उनके आगे लोग भजन-कीर्तन करते हैं, वह यह नहीं सोचते, इससे बाबा साहेब की आत्मा को कितनी ठेस पहुँच रही होगी, उनकी सच्ची श्रद्धाञ्जलि तो तब होगी, जब उनके वैचारिक आन्दोलन की मशाल को लेकर दलित आगे बढ़ें।"

दलित शब्द का अर्थ

दलित शब्द का अर्थ होता है- जिसका दलन या दमन किया गया हो, दबाया गया हो, न्याय एवं सामाजिक अधिकारों से वंचित किया हो, जो मनुष्य होकर भी पशुवत् जीवन जीने को मजबूर हो, जो समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा उत्पीड़ित, शोषित एवं सताया गया हो, जो पूरी तरह हतोत्साहित हो चुका हो, जो अपना आत्मबल एवं आत्मसम्मान खो चुका हो, वही दलित है । सम्भवत: इसीलिए बाबा अम्बेडकर ने केवल दलितों के लिए ही नहीं बल्कि समाज के
उन सभी वर्गों के लिए जो दबे-कुचले दूर-दराज में नारकीय जीवन यापन कर रहे हैं उन सभी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए विधिवत् संघर्ष एवं प्रयास किया। 'दलित' शब्द को विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। यथा - डॉ. श्योराज सिंह 'बेचैन' ने कहा है कि- “दलित वह है, जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।"
 
'केवल भारतीय' ने कहा है कि- “दलित वह है, जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है, जिसे कठोर एवं गंदे काम करने को बाध्य किया गया है, जिसे शिक्षा एवं स्वतंत्र व्यवसाय करने को मना किया गया है।"
 
'मोहनदास नैमिषराय' ने भी इस सन्दर्भ में कहा है कि, 'दलित' शब्द कार्लमार्क्स के सर्वहारा शब्द के अधिक निकट का प्रतीत होता है। लेकिन दोनों में मूलभूत अन्तर यह है कि दलित शब्द की व्याप्ति अधिक है, सर्वहारा की सीमित । दलित के अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक शोषण का अन्तर्भाव होता है, जबकि सर्वहारा मात्र आर्थिक शोषण तक सीमित है, इस तरह प्रत्येक दलित सर्वहारा के अन्तर्गत आ सकता है, किन्तु प्रत्येक सर्बहारा दलित नहीं हो सकता।
हिंदी साहित्य में दलित विमर्श
 
इस तरह भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया, 'वह दलित की श्रेणी में आता है। दुर्गम पहाड़ियों या जंगलों में जीवनयापन करने के लिए बाध्य आदिवासी जनजातियाँ आदि दलित हैं। दलित शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है, जो सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत सवसे निम्न जीवनयापन करता है। जिसे न्याय एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं। वर्ण व्यवस्था ने जिसे अछूत कहा। जिसका शोषण हुआ, दलन हुआ, उन सभी को सविधान में अनुसूचित जाति के अन्तर्गत रखा गया जो वास्तव में दलित हैं।

दलित वर्गों के लिए भारतीय समाज

भारतीय धर्म-दर्शन सभी प्राणियों में एक परमतत्त्व की सत्ता स्वीकार करता है। संसार जितने भी चर-अचर प्राणी हैं, सभी उस परम ज्योति के प्रकाश से ही प्रकाशित हैं। एक उसी परमतत्त्व की सत्ता ही सर्वत्र विद्यमान है। गीता में भगवान् कृष्ण ने स्वयं कहा है कि गुण और कर्म के आधार पर सम्पूर्ण मानव जाति को चार वर्णों में विभाजित किया गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। जब तक बातें गुण एवं कर्म के आधार पर थीं तब तक तो ठीक थीं लेकिन जब गुण-कर्म की उपेक्षा कर जन्म को ही वर्णों का आधार माना जाने लगा तभी से विसंगति आ गयी। वर्ण व्यवस्था कट्टर होती गयी। उच्च समाज में जन्म लेने वाला व्यक्ति कितना भी निन्दनीय क्यों न हो लेकिन उसे समाज में सम्मानित ही माना जाता रहा। वहीं पर निम्न वर्ण या जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति कितना भी गुणवान, प्रतिभावान क्यों न हो वह समाज की मुख्य धारा से जुड़ना तो दूर बल्कि अछूत हो गया। समाज के अन्य वर्णों के लोग उसकी परछाईं का स्पर्श भी पाप समझने लगे। उसके द्वारा स्पर्श की हुई हर वस्तु अपवित्र हो जाया करती थी। स्वातन्त्र्योत्तर भारत में दलित-उत्थान के प्रयास होते रहे, जिससे आज उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक बेहतर है। शिक्षा के सुधार-प्रसार, संचार साधनों की उपलब्धता आदि ने इनके जीवन को अधिक मजबूत किया। राजनीति के क्षेत्र में रहे कद्दावर नेता बाबू जगजीवनराम दलितों के विश्वसनीय नेता थे। उन्होंने दलितों की समस्याओं, उन पर हो रहे अत्याचार का गहनता से अध्ययन किया और दलित वर्गों के लिए भारतीय समाज की सीढ़ीनुमा व्यवस्था को तोड़कर समतल मार्ग प्रशस्त करने की विधिवत् चेष्टा की।

दलित समानता का अधिकार

आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ-साथ परम्परागत जीवन-मूल्यों में परिवर्तन स्वाभाविक था। अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का खात्मा होना था और साथ ही दलित उत्थान के लिए हो रहे प्रयासों के कारण उनकी स्थिति में अधिक सुधार हुआ है, आज शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में इनकी भागीदारी देखी जा सकती है। समय की गति के साथ ही सदियों से दबे-कुचले, दुबके, गूंगे, बहरे दलित भी अपने अधिकारों की माँग के आन्दोलन की धार को पैना करके अपना अस्तित्व बचाने के लिए खड़े हो चुके हैं, आज स्थिति बदल चुकी है, पहले समाज के उच्च वर्गों द्वारा जिन गाली सूचक शब्दों- चमरा, म्लेच्छ, अछूत, दस्यु, दास आदि का प्रयोग इनके लिए होता रहा है आज वह समाप्तप्राय-सा हो चुका है। आज का दलित समानता का अधिकार पाने के लिए संघर्षरत है।
 
दलित-विमर्श वर्ण्य-विषय हिन्दी साहित्य के सन्त परम्परा के कवियों ने तो बहुत पहले ही अपना लिया था। दलित उद्धार के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया, अपनी लेखनी इस विषय पर सर्वाधिक चलायी। यथा, कबीर ने लिखा है कि-

एक बूँद एक मल मूतर एक चाम एक गूदा । 
एक ज्योति से सेब जग उपज्या को बाभन को सूदा ।।
 
आगे चलकर आधुनिक काल के रचनाकारों ने इस ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया। मुंशी प्रेमचन्द, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, बैजनाथ मिश्र, नागार्जुन आदि रचनाकारों ने इस परम्परा को और भी समृद्ध किया। मुंशी प्रेमचन्द की कहानी- सवा सेर गेहूँ, कफन, उपन्यास- गोदान, रंगभूमि, गवन, कर्मभूमि, सेवासदन; निराला की 'भिक्षुक', 'वह तोड़ती पत्थर' आदि दलित-विमर्श की ही बात करते हैं। यथा-
 
वह तोड़ती पत्थर 
मैंने देखा उसे इलाहाबाद के पथ पर । 

पेट पीठ मिलकर एक 
चल रहा लकुटिया टेक 
मुट्ठी भर दाने को 
भूख मिटाने को। 

दलित विमर्श चर्चा के केन्द्र

आज दलित विमर्श चर्चा के केन्द्र में है। दलित विमर्श को लेकर आधुनिक काल में ढेर सारा साहित्य सृजन हुआ है, जबकि दलित साहित्य के विद्वान् दलित साहित्य का इतिहास बहुत पुराना मानते हैं। सिद्ध कवियों एवं भक्तिकाल के संत कवियों की रचनाओं में दलित चेतना के सूत्र वीज रूप में मिल जाते हैं। "सरस्वती में प्रकाशित हीराहोम की कविता को भी कई विद्वान् पहली हिन्दी दलित कविता मानते हैं। अछूतानन्द के आन्दोलन और उसकी रचनाओं में सामाजिक उत्पीड़न को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। आजादी के बाद भी अनेक दलित कवि हुए हैं, जिन पर गाँधीवाद का प्रभाव ज्यादा है। उनमें हरित जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। माताप्रसाद मंशाराम विद्रोही आदि ने बहुतायत से दलित लेखन किया है।"
 
समाधान तब ढूँढ़ना पड़ता है, जब कोई समस्या हो। वास्तव में यह समस्या दलितों की थी। दलित-समस्या अर्थात् समाज के प्रतिष्ठित समझे जाने वाले लोगों के द्वारा दलितों पर अत्याचार, जिसके बीज वैदिक काल से ही मिल जाते हैं। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से जो वर्ण व्यवस्था चली वह आज भी चली आ रही है। जाति-विशेष में जन्म लेने वाले लोगों का सर्वाधिकार सुरक्षित है, वे लोग ही सामाजिक नियम में फेर-बदल करने के अधिकारी हैं। पूजा-स्थलों, धार्मिक स्थानों, मठों-मन्दिरों में वे आज भी कुंडली मारकर बैठे हैं, उनका जातिगत आरक्षण आज भी ज्यों का त्यों है। सामाजिक न्याय एवं अधिकार से वंचित दलित समुदाय स्वतन्त्रता के बाद आज भी पूर्णत: दलित बना हुआ है। बाबा अम्बेडकर के संघर्षों एवं प्रयासों से उसमें कुछ कमी तो आयी लेकिन समाप्त नहीं हो पाया है। श्रीमती तारा सिंह ने लिखा है कि, “बाबा अम्बेडकर ने अन्धविश्वास, विकृंत रूढ़ियों, परम्पराओं, देवी-देवताओं से सम्बन्धित आडम्बरों, भाग्य-सोच तथा उन सभी बातों को नकारा, कहा- ऐसी सोच मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देती, बल्कि उसे बर्बरता के हद तक पहुँचा देती है।" अपने जीवन में जिन दलित लेखकों ने जो कुछ भी झेला, उसे ज्यों का त्यों उद्घाटित किया। दलित लेखकों में भगवानदास कृत 'मैं भंगी हूँ', ओमप्रकाश वाल्मीकि कृत 'जूठन', लक्ष्मण भावें कृत ऊपरा इस सन्दर्भ में लिये जा सकते हैं।

दलित साहित्य का स्वर

दलित साहित्य का स्वर आक्रोशात्मक एवं आक्रामक है। आक्रोश ही उसकी पहचान है। यह आक्रोश होता भी क्यों नहीं। सदियों से नारकीय जीवन जी रहे दलित समुदाय को न्याय एवं अधिकार के लिए संघर्ष तो करना ही था और जब संघर्ष की बात आती है तो आक्रोश स्वयमेव जन्म लेता है। उनकी यह आक्रामकता भीतरी और बाहरी दबावों से उपजी है। अटूट सामाजिक हिंसा से टकराती दलित लेखकों की लेखनी स्वाभाविक रूप से आक्रामक हो गयी। इन लेखकों ने आक्रोश की धार कुंद किये बिना अपने लेखन को संवादधर्मी बनाया और रचना को आयाम दिया। साहित्य के साथ दलित शब्द जुड़ते ही उसकी व्यापकता और अधिक क्रांति बोधक हो जाती है, अर्थ और अधिक व्यंजनात्मक होकर साहित्य की भूमिका और सामाजिक उत्तरदायित्व को और अधिक विश्लेषित करने की क्षमता हासिल कर लेता है। 

अन्ततः कहा जा सकता है सदियों से दलित समझे जाने वाले समुदाय उच्च प्रतिष्ठित लोगों के अत्याचार से पीड़ित रहे, उन्हें सदियों से न्याय एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं हुआ। इसके लिए भारतीय समाज की सड़ी-गली मान्यताएँ, रूढ़िवादिता, वर्णव्यवस्था भी उत्तरदायी है। दलित समर्थक विद्वानों ने इस कलंक को मिटाते हुए भारतीय संविधान में प्राविधान भी रखा; फलत: भारत में किसी भी नागरिक के साथ जातिभेद करना, उससे अमानुषिक व्यवहार करना अपराध की श्रेणी में माना गया। हरिजन एवं गिरिजन जातियों को अनुसूचित जाति में सूचीबद्ध किया गया। परिणामस्वरूप आज भारतीय भाषाओं में रचित १. दलित साहित्य की नयी प्रवृत्ति सामने आने लगी है। ध्यातव्य है कि अगर दलित साहित्य का उद्देश्य जाति उन्मूलन करना है तो साहित्य सामाजिक का टकराव का नहीं बल्कि दलित विमर्श पर होना चाहिए तभी साहित्य एवं समाज दोनों का कल्याण संभव है, अन्यथा स्थिति विकट हो सकती है। 

इस प्रकार हिंदी साहित्य में दलित विमर्श एक महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन है जिसने दलितों की आवाज़ को दुनिया के सामने रखा है। इस विमर्श ने साहित्य को एक शक्तिशाली हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है और समाज में बदलाव लाने का प्रयास किया है।

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