साहित्य में नारी का बदलता स्वरूप: महादेवी वर्मा से समकालीन लेखिकाओं तक हिन्दी साहित्य में स्त्री-चेतना का विकास एक लम्बी और सतत यात्रा है, जो भावुकता
हिंदी साहित्य में नारी का बदलता स्वरूप | महादेवी वर्मा से समकालीन लेखिकाओं तक
साहित्य में नारी का बदलता स्वरूप: महादेवी वर्मा से समकालीन लेखिकाओं तक हिन्दी साहित्य में स्त्री-चेतना का विकास एक लम्बी और सतत यात्रा है, जो भावुकता के कोमल किनारों से प्रारम्भ होकर आज विद्रोह, आत्मखोज, अधिकारों की मांग और बहुआयामी पहचान की सशक्त अभिव्यक्ति तक पहुँच चुकी है। इस यात्रा का प्रारंभिक और महत्त्वपूर्ण पड़ाव महादेवी वर्मा हैं, जिन्हें हिन्दी की पहली आधुनिक नारी कवयित्री माना जाता है। छायावादी युग की शिखर कवयित्री महादेवी का काव्य नारी के आंतरिक दर्द, करुणा, सौन्दर्य और प्रकृति से एकात्मता को गहराई से उकेरता है। उनकी अमर रचनाएँ—“मैं नीर भरी दुख की बदली”, “जो तुम आते एक बार”, “दीपक तुम जलो”—नारी के हृदय की पीड़ा को इतनी कोमलता से व्यक्त करती हैं कि वह पीड़ा स्वयं सौन्दर्य की सृष्टि कर लेती है। महादेवी की नारी त्यागमयी है, प्रेम और मातृत्व की मूर्ति है, पर उसका व्यक्तित्व अभी पुरुष-केंद्रित संसार के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है—चाहे वह प्रियतम हो या ईश्वर। विद्रोह का स्वर उनकी रचनाओं में बहुत ही सूक्ष्म है, लगभग अनुपस्थित; वह अपने दुख को स्वीकार कर गाती है, पर उससे मुक्ति की चेतना अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुई है।
महादेवी के बाद का दौर
महादेवी के बाद का दौर प्रगतिशील और प्रयोगवादी प्रवृत्तियों का है। इस युग में सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी कवयित्री पहले से ही उपस्थित थीं, जिनकी “झाँसी की रानी” जैसी रचना में नारी का वीर रस उभरता है, किंतु वह राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा अधिक था, नारी-मुक्ति का नहीं। असली परिवर्तन पचास के दशक के बाद आता है, जब पुरुष लेखकों की कलम से भी नारी को नए दृष्टिकोण से देखा जाने लगा—जैसे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की “राम की शक्ति पूजा”। किंतु साठोत्तरी कविता और नई कविता के आगमन के साथ नारी स्वयं अपनी आवाज बुलंद करने लगी। इस दौर में नारी के शरीर, कामनाओं और अधिकारों को खुलकर अभिव्यक्त करने वाली कवयित्रियाँ और लेखिकाएँ उभरीं—अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, मनु भंडारी, उषा प्रियंवदा, मैत्रेयी पुष्पा और मृदुला गर्ग जैसी।अमृता प्रीतम की पंजाबी रचनाएँ—“अज्ज आखां वारिस शाह नू” या उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट”—नारी की यातनाओं को विभाजन की त्रासदी से जोड़ती हैं और प्रेम में स्त्री की स्वतंत्रता को बेबाकी से स्थापित करती हैं। हिंदी क्षेत्र में कृष्णा सोबती की “मित्रो मरजानी” ने तो क्रांति का बिगुल फूँक दिया। इस उपन्यास की नायिका मित्रो अपनी शारीरिक भूख, कामनाओं को बिना किसी संकोच के व्यक्त करती है—यह वह काल था जब हिंदी साहित्य में ‘सेक्स’ शब्द लिखना भी वर्जित माना जाता था। सोबती ने न केवल इसे लिखा, बल्कि नारी की कामुकता को मुक्ति का आधार बनाया। उनकी अन्य रचनाएँ—“ऐ लड़की”, “जिंदगीनामा”—माँ-बेटी के रिश्तों में भी स्त्री की स्वतंत्र चेतना को उजागर करती हैं। मनु भंडारी का “आपका बंटी” घरेलू विघटन के दौर में बच्चे के मनोविज्ञान के साथ-साथ नारी के टूटते सपनों की मार्मिक कथा है। यह पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा औरत है जो घर और समाज के द्वंद्व में पिसती है, फिर भी अपनी पहचान तलाशती है। उषा प्रियंवदा की कहानियाँ—“पचपन खंभे लाल दीवारें”, “रुकोगी नहीं राधिका”, “वापसी”—नारी की एकाकीता, संघर्ष और आत्मनिर्भरता को सूक्ष्म संवेदना से चित्रित करती हैं, जहाँ विदेशी अनुभवों के साथ भारतीय मध्यवर्गीय जीवन का द्वंद्व प्रमुख है।नारीवादी आंदोलन का स्वर्णिम काल
सत्तर और अस्सी के दशक नारीवादी आंदोलन के स्वर्णिम काल थे, जब दलित चेतना और स्त्री चेतना साथ-साथ उभरीं। इस अवधि में मैत्रेयी पुष्पा, मृदुला गर्ग, चंद्रकांता, नमिता सिंह और सुशीला टाकभौरे जैसी लेखिकाएँ सक्रिय हुईं। मैत्रेयी पुष्पा की “इदन्नमम”, “बेतवा बहती रही”, “चाक” ग्रामीण नारी की अमानवीय यंत्रणाओं को इतनी तीव्रता से उकेरती हैं कि पाठक स्तब्ध हो जाता है। उनकी नायिकाएँ अब चुप्पी तोड़ती हैं—प्रतिकार करती हैं, चाहे घर त्यागकर या चरम विद्रोह के रूप में। मृदुला गर्ग की “चित्तकोबरा” नारी के शरीर और मन की जटिल यात्रा है, जहाँ वह अपनी देह से शर्मिंदगी नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान और स्वेच्छा का अनुभव करती है। यह दौर था जब नारी लेखन ने पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती देना शुरू किया।
नब्बे के दशक के बाद का काल बाजारीकरण, वैश्वीकरण और डिजिटल क्रांति का है, जिसने नारी लेखन को और अधिक बहुआयामी बना दिया। गीतांजलि श्री, अनामिका, गगन गिल, सविता सिंह, नीलकमल, प्रभाती नौटियाल, कात्यायनी, अंजना वर्मा, रश्मि भारद्वाज जैसी लेखिकाओं ने नए आयाम जोड़े। गीतांजलि श्री की “रेत समाधि” (अंग्रेजी में ‘Tomb of Sand’) ने अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर वैश्विक पटल पर हिंदी नारी लेखन को स्थापित किया। इसकी नायिका एक अस्सी वर्षीय वृद्धा है जो सीमाओं—उम्र, राष्ट्रीयता, रिश्तों—को लाँघकर अपनी मर्जी से जीना-मरना चाहती है। अनामिका की कविताएँ—“पोस्टमॉडर्न वनिता”, “टोकरी में दिगंत”—नारी की कामुकता, राजनीति और देह को हास्य, विडंबना और सौंदर्य के मिश्रण से प्रस्तुत करती हैं। कात्यायनी मार्क्सवादी नारीवाद की प्रखर आवाज हैं, उनकी रचनाएँ मेहनतकश स्त्रियों के संघर्ष को केंद्र में रखती हैं।समकालीन लेखन में सोशल मीडिया का प्रभाव स्पष्ट है।
नारी लेखन अब दर्द की एकांगी भाषा नहीं रहा
इंस्टाग्राम और ट्विटर जैसी प्लेटफॉर्म्स पर हुस्ना शिप्रा, साक्षी सुंदरम, प्रिया मलिक, शालिनी पांडेय जैसी युवा कवयित्रियाँ छोटी-छोटी कविताओं में नारी के दैनिक विद्रोह को व्यक्त करती हैं। ये रचनाएँ प्रकाशकों के बंधनों से मुक्त होकर सीधे पाठक तक पहुँचती हैं—ब्रा की स्ट्रैप से लेकर मासिक धर्म के दर्द, बलात्कार की ट्रॉमा से ब्रेकअप के बाद पुनरुत्थान तक, सब कुछ बिना संकोच के। ये नारियाँ अब शर्माती नहीं, समाज को शर्मसार करती हैं। एक अन्य उल्लेखनीय धारा क्वीयर नारीवाद की है, जहाँ नीलिमा डालमिया, रचना शाह, लिविंग स्माइल विद्या (तमिल से अनुवादित) और अंकिता जैन जैसी लेखिकाएँ ट्रांसजेंडर, लेस्बियन तथा नॉन-बाइनरी पहचानों को चुनौती देती हैं। यह नारी अब लिंग-द्वंद्व से परे जाकर हर सीमा को ध्वस्त कर रही है।
इक्कीसवीं सदी का हिंदी नारी लेखन अब दर्द की एकांगी भाषा नहीं रहा; यह आक्रोश, हास्य, आत्मविश्वास, आत्मनिरीक्षण और सृजनात्मक स्वतंत्रता की बहुल भाषा है। महादेवी की नारी दुख को गाती थी, आज की नारी दुख के विरुद्ध गीत रचती है। महादेवी की नारी प्रकृति से एकरूप थी, समकालीन नारी प्रकृति-संरक्षण की लड़ाई भी लड़ रही है—जैसे अरुंधति रॉय या वंदना शिवा की रचनाओं में। महादेवी की नारी प्रेम में डूबकर अकेली थी, आज की नारी अकेलेपन को अपनी शक्ति बनाती है। यह परिवर्तन साहित्यिक ही नहीं, सामाजिक है। जब तक समाज नारी की स्थिति को पूर्णतः परिवर्तित नहीं करेगा, साहित्य में उसका स्वरूप भी विकसित होता रहेगा। किंतु साहित्य ही समाज को दिशा देता रहा है—महादेवी की दुखमयी बदली आज विद्रोही आंधी बन चुकी है, जो पुरानी संरचनाओं को उखाड़ फेंक रही है और नए क्षितिज रच रही है। यह यात्रा अभी समाप्त नहीं, बल्कि त्वरित गति से आगे बढ़ रही है, हर नई लेखिका इसमें अपना अनूठा रंग भर रही है। यही साहित्य की जीवंतता है और नारी मुक्ति की अनंत प्रक्रिया।


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