आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा आधुनिक युग की मीरा क्यों कहा जाता है Mahadevi Verma ko Adhunik Meera Kyon Kahate Hain छायावादी युग नारी हृदय की वेदना
महादेवी वर्मा को आधुनिक युग की मीरा क्यों कहा जाता है?
आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा Mahadevi Verma ko Aadhunik Meera Kyon Kahate Hain महादेवी वर्मा को आधुनिक मीरा कहना कहाँ तक तर्क-संगत है—इस पर गम्भीरता से विचार करना उचित है; क्योंकि केवल एकांगी साम्य को देखकर ही इस प्रकार की स्थापना अधिक समीचीन नहीं कही जा सकती। दोनों की वेदना के उद्गम स्रोत एवं स्वरूप पर विचार करने पर उनमें विद्यमान् मौलिक अन्तर स्पष्ट हो उठता है। कदाचित् यही कारण है कि स्वयं महादेवी ने अपनी तुलना मीरा से करना असंगत बताया है। महादेवी की कविता में सर्वत्र करुणा की टीस पायी जाती है। वेदना की अनुभूति ही उनके काव्य का प्राण है। वेदना उनके जीवन में इस प्रकार घुल-मिल गयी है कि वे वेदना में ही रहना चाहती हैं। विरहाग्नि के कारण ही इनको आधुनिककाल की मीरा कहा जाता है। मीरा की विरह वेदना में जो स्वाभाविकता, सरलता और सजीवता पायी जाती है, वही महादेवीजी की विरह-वेदना में है। वैसे महादेवीजी करुणा में तो मीरा से बढ़कर हैं। मीरा की वेदना उनकी व्यक्तिगत वेदना है।
मीरा जन्मजात साधिका भक्तिन हैं
मीरा जन्मजात साधिका हैं, भक्तिन हैं। उनका आराध्य सगुण-साकार नटवर नागर है, जिसका परिचय उन्हें शैशवावस्था में ही प्राप्त हो चुका था तथा जिसकी मनोहारी मूर्ति भी बचपन में ही एक साधु से मिल गयी थी। आधुनिक युग की मीरावे तभी से अपने गिरधर पर न्यौछावर हो गयी थीं- “मीरा गिरधर हाथ बिकानी।” वे अपने प्रियतम के रूप और गुणों पर मुग्ध हैं, जिसकी लीला का वे गायन अनेक पदों में बड़ी तन्मयता से करती हैं-
बसो मोरे नैनन में नंदलाल ।
मोहनी मूरति, साँवरी सूरति, नैना बने विसाल ।
वे उस प्रियतम से अपनी बालपन की प्रीति को डंके की चोट पर उद्घोषित करने को तत्पर हैं। यही नहीं, उनकी प्रीति जन्म-जन्मान्तरों की है; क्योंकि वे पूर्वजन्म में व्रजांगना (गोपी) ही तो थीं। वे गोपिका-भाव (माधुर्य भाव) से ही कृष्ण की आराधना करती हैं-
मेरी उनकी प्रीति पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ ।
इस प्रकार मीरा के सम्मुख उनका लक्ष्य स्पष्ट है, जिसे प्राप्त करने के लिए वे कृतसंकल्प हैं-
निसदिन जोऊँ बाट पिया की, कबरु मिलहुगे आइ।
मीरा के प्रभु आस तुम्हारी, लीज्यौ कंठ लगाइ ॥
महादेवी वर्मा का रहस्यवाद
दूसरी ओर महादेवी गार्हस्थ्य जीवन की विफलता एवं ससुराल के कटु अनुभवों से उत्पन्न पीड़ा से संतप्त होकर अव्यक्त की ओर उन्मुख हुईं; अतः उनकी वेदना का स्रोत लौकिक है, जिसे उनके दार्शनिक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन ने अद्वैतवाद के प्रभाववश रहस्यवाद का रूप दे दिया। उनका प्रियतम अव्यक्त, निराकार होने के कारण अस्पष्ट है, जिसे वे प्रकृति में ढूँढने का प्रयास करती हैं-
कनक से दिन मोती-सी रात, सुनहली साँझ गुलाबी रात,
मिटाता रँगता बारम्बार कौन जग का यह चित्राधार ?
स्वभावतः ही अव्यक्त होने के कारण उनके सामने अपने प्रिय का स्वरूप स्पष्ट नहीं। इसके फलस्वरूप उनकी पीड़ा भी सच्ची अनुभूति से कम, चिन्तन-मनन से अधिक प्रेरित लगती है और वे इस वेदना को ही अपना लक्ष्य बना डालती हैं-
मिलन का मत नाम लो
मैं विरह में चिर हूँ।
साथ ही महादेवी में अहं का भाव इतना प्रबल है और अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा की आतुरता इतनी अधिक है कि वे मिलन नहीं चाहतीं; क्योंकि ऐसा होने पर उनका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, जलन का सुख निश्शेष हो जायेगा। फलतः वे अतृप्ति में ही जीवन की सार्थकता समझने लगती हैं-
मेरे छोटे जीवन में देना न तृप्ति का कण-भर,
रहने दो प्यासी आँखें भरती आँसू के सागर ।
वस्तुतः महादेवी की कविता भावुकता के ताने-बाने की कविता नहीं, उसमें चिन्तन की छाप और कल्पना का उन्मेष है। वे विरह में रस अधिक ढूँढती हैं, सच्ची विकलता का अनुभव कम ही करती हैं। उनकी विरह-वेदना की इसी बौद्धिकता को देखकर — जिसमें कल्पना का रंग इतना गहरा है, कलात्मक साज-सज्जा इतनी चटक है कि उनकी अनुभूति की सच्चाई पर सन्देह होने लगता है।आधुनिक युग की मीरा
महादेवी की अनुभूति सांसारिक है
कहाँ भक्त-हृदय (मीरा) का वह उद्दाम भाव-प्रवाह, कहाँ दार्शनिक (महादेवी) की वह ठंडी बौद्धिकता। मीरा की अनुभूति प्रिय- विरह के पर्वत से निकली वह वेगवती उच्छ्वसित तरंगिणी है, जो अपने दुर्धर्ष भाव-प्रवाह में सब कुछ बहाकर ले जाती है, जिसने 'लोकलाज' की विराट् चट्टानों को तिनके की तरह बहाकर पल-भर में चकनाचूर कर डाला है, जो विष का प्याला पीकर खिलखिलाकर हँसती, कलकल करती, प्रियतम रूपी सागर से मिलने की अदम्य आतुरता में मर्यादा के कूलों को आप्लावित करती भागती चली जा रही है। उधर महादेवी की अनुभूति सांसारिक पीड़ा की नदी से निकली वह सुनियोजित नहर है, जो धीर मन्थर गति से बहती हुई मर्यादा के कूलों का कभी अतिक्रमण नहीं करती, जिसमें दार्शनिक चिन्तन की शीतलता, विवेक की निर्मलता एवं सुचिन्तित कलात्मकता की अभिरामता है, जिसकी प्रतीकात्मकता, लाक्षणिकता एवं आलंकारिकता की सज्जा उसे नदी के सदृश सर्वजनसुलभता से वंचित कर केवल कुछ ही विशिष्टजनों के उपभोग योग्य बनाती है तथा जिसे सागर से मिलने की उत्सुकता नहीं, इस भूतल पर बने रहकर अपने अलग अस्तित्व की रक्षा की उत्कण्ठा है ।
फलतः महादेवी की कविता में नारी-हृदय की वेदना-विकलता तो है, पर मीरा-जैसा उद्दाम प्रेम-प्रवाह नहीं-
मेरी उणकी प्रीत पुराणी, उचैं बिन पल न रहाऊँ।
जहाँ बैठावें तितही बैठूं बेचैं तो बिक जाऊँ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ ॥
कैसा विलक्षण आत्म-समर्पण है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रिय की सत्ता में लीन करने की कैसी निस्सीम आतुरता है। यह प्रिय वियोग में भक्त का एक-एक पल युगों-सा बीतता है, पर महादेवी विरह के लिए विरह की साधना करती हैं। हाँ, उनके पास एक ऐसी चित्रमय संगीतात्मक भाषा है, कला की ऐसी बारीक पकड़ है, शैली का ऐसा मनोहारी सौष्ठव है कि वे अपनी अभिव्यक्ति को ऐसे इन्द्रधनुषी रंगों वाले मोहक छायाचित्रों के रूप में सँजोने में समर्थ हुई हैं कि उनकी अनुभूति की वास्तविकता तक पहुँचने में विज्ञजनों तक को कठिनाई का अनुभव होता है।आधुनिक युग की मीरा
सारांश यह है कि मीरा का काव्य यदि अश्रुगद्गद कंठ से निकली भावसिक्त भर्रायी आवाज है, जो सहृदयमात्र को रस-विभोर कर देती है तो महादेवी का काव्य मँजे गले की शास्त्रशुद्ध तान, जो कला-मर्मज्ञों को ही चमत्कृत करती है। मीरा की वाणी यदि मधुचक्र (शहद के छत्ते) का अपरिष्कृत मधु (शहद) है, तो महादेवी की गिरा (वाणी) कुशल कारीगर द्वारा परिष्कृत सितखण्ड (मिश्री का डला) और यदि मीरा की सरस्वती वन-पर्वतों पर उन्मुक्त विचरण करने वाली निराभरणा पर स्वस्थ-सुघड़ वनचारिणी है तो महादेवी की भारती अमूल्य वस्त्राभरणभूषिता असूर्यम्पश्या कुलवधू, जिसकी छवि निकटस्थ स्वजनों को ही दृष्टिगत है । आधुनिक युग की मीरा
मीरा और महादेवी के विषय में कतिपय सुविज्ञ समालोचकों ने भी अपने विचार व्यक्त किये हैं, जिनमें राजेन्द्र सिंह गौड़ का मन्तव्य द्रष्टव्य है-"साहित्यिक बारीकियों से दूर होते हुए भी मीरा में जो छटपटाहट है, जो टीस और वेदना है, वह महादेवी में नहीं हैं ।"
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