केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ

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केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ केशवदास की प्रमुख रचनाएं केशवदास की काव्य कला केशवदास का प्रकृति चित्रण संवाद योजना आचार्यत्व व कवित्व भाषा शैली हिन्दी

केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ


केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ महाकवि केशवदास हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक थे। वे संस्कृत काव्यशास्त्र का सम्यक् परिचय कराने वाले हिंदी के प्राचीन आचार्य और कवि हैं।आचार्य केशवदास का जन्म ओरछा (बुन्देलखण्ड) में विक्रम संवत् १६१२ (सन् १५५५ ई०) में हुआ था। वे सनाढ्य ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम पं० काशीनाथ था। आचार्य केशवदास का कुल संस्कृत के पांडित्य के लिए प्रसिद्ध था। केशवदास स्वयं कहते हैं कि उनके कुल के दास तक संस्कृत में वार्तालाप करते थे, भाषा बोलना नहीं जानते थे। 

भाषा बोलि न जानहीं, जिनके कुल के दास । 

राजदरबार में प्रतिष्ठा

ओरछा नरेश महाराजा इन्द्रजीतसिंह इन्हें अपना गुरु मानते थे और उनके दरबार में इनका बड़ा मान था । महाराज इन्द्रजीतसिंह ने इनको २१ गाँव दानस्वरूप दिये थे। इनका जीवन राजसी ठाठ-बाट का था। ये स्वभाव से गम्भीर और स्वाभिमानी थे। अपनी प्रशंसा के एक पद पर बीरबल ने छह हजार रुपये की हुण्डियाँ न्यौछावर की थीं। एक बार अकबर ने इन्द्रजीतसिंह पर एक करोड़ रुपये का जुर्माना कर दिया, जिसे केशव ने आगरा जाकर बीरबल की सहायता से माफ करवाया। सम्वत् १६६२ के लगभग जहाँगीर ने ओरछे का राज्य बीरसिंहदेव को दे दिया। कुछ काल तक नये राजा के दरबार में रहकर ये गंगाघाट पर जाकर रहने लगे। 

मृत्यु-विक्रम संवत् १६७४ (सन् १६१७ ई०) के लगभग इनका देहावसान हुआ। 

केशवदास की प्रमुख रचनाएं 

(क) रीतिग्रन्थ - (१) कविप्रिया, (२) रसिकप्रिया । 
(ख) महाकाव्य-(३) रामचन्द्रिका । 
(ग) ऐतिहासिक काव्य - (४) जहाँगीर जस चन्द्रिका, (५) रतन बावनी, (६) वीरसिंह देवचरित । 
(घ) वैराग्यपरक - (७) विज्ञान गीता। 

केशवदास की काव्य कला / काव्यगत विशेषताएँ 

केशव चमत्कारवादी कवि केशव चमत्कारवादी कवि थे। वे अलंकारों से रहित कविता को कविता मानने को ही
केशवदास की काव्यगत विशेषताएँ
तैयार न थे। उन्होंने प्रबन्ध और मुक्तक-दोनों प्रकार के काव्य रचे । 'रामचन्द्रिका' में उन्होंने रामचरित का विस्तृत वर्णन किया है, पर चमत्कारप्रियता के कारण वे इसमें उतने सफल नहीं हो पाये। 'रामचन्द्रिका' छन्दों का अजायबघर-सा प्रतीत होती है; क्योंकि इन्होंने एक सर्ग में एक छन्द के नियम का पालन न करके एक सर्ग में अनेक छन्दों का प्रयोग किया है, जिससे कथा-प्रवाह बार-बार खण्डित हो जाता है। विविध अलंकारों के विधान एवं शब्दों के अप्रचलित अर्थों के प्रयोग के कारण उनकी भाषा बड़ी क्लिष्ट हो गयी है, जिससे इन्हें कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है- 

विषमय यह गोदावरी अमृतन के फल-देत । यहाँ 'विष' का अर्थ 'जल' है, जो अत्यधिक अप्रचलित है । 

इसके अतिरिक्त इनके प्रबन्धकाव्य में कथा के मार्मिक स्थलों; जैसे-रामविवाह, रामवनगमन, चित्रकूट में भरत-राम-मिलन, सीताहरण, अशोक वाटिका में सीता आदि की पहचान के अभाव के कारण कई आलोचक इन्हें हृदयहीन तक कह देते हैं। वस्तुतः केशव दरबारी कवि थे, इसलिए चमत्कारप्रदर्शन में वे इतने उलझ गये कि प्रबन्धकाव्य की अन्य आवश्यकताओं का उन्होंने ध्यान न रखा। वैसे मानव-स्वभाव का उन्हें अच्छा ज्ञान था और उन्होंने कहीं-कहीं इसका सुन्दर चित्रण किया है।
 

महाकवि केशवदास का प्रकृति चित्रण

प्रकृति के सौन्दर्य में केशव का मन न रमा। उन्होंने व्यापक भ्रमण द्वारा प्रकृति का निकट से सूक्ष्म परिचय भी प्राप्त नहीं किया था। इसीलिए वे मिथिला (बिहार) के वनों में 'एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहे' कहते समय यह भूल जाते हैं कि इलायची, लौंग और सुपारी आदि के वृक्ष समुद्र-तट पर होते हैं न कि बिहार में। इसके अतिरिक्त वे प्रकृति पर उत्प्रेक्षा, सन्देह, रूपक आदि अलंकारों का इतना अधिक आरोप देते हैं कि उससे प्रकृति की शोभा का भाव लुप्त होकर कई बार बड़ी नीरसता उत्पन्न हो जाती । उदाहरणार्थ-वे प्रातःकालीन अरुण सूर्य-बिम्ब को काल-रूपी कापालिक का खून से भरा खप्पड़ बताते हैं - 

कै सोनित कलित कपाल यह किल कापालिक काल को ।

वस्तुतः उनका हृदय प्रकृति की सुषमा में न रमकर मानव-सौन्दर्य में रमा है । 

महाकवि केशवदास की संवाद योजना

केशव की प्रसिद्धि रामचन्द्रिका की संवाद-योजना के कारण है। केशव दरबारी कवि थे, इसलिए इन्हें राजनीतिक दावपेंच के साथ उत्तर-प्रत्युत्तर देने का ढंग खूब आता था। फलतः उनके संवाद बड़े नाटकीय बन पड़े हैं। उनमें वाग्वैदग्ध्य (वाणी की चतुरता) खूब मिलता है। इनमें पात्रों के अनुरूप क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुन्दर हुई है। संवादों की भाषा भी अलंकारों के बोझ से रहित सरल और स्वाभाविक है और इसीलिए इनके संवाद बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। केशव के अंगद रावण संवाद जैसे सुन्दर संवाद हिन्दी के अन्य प्रबन्धकाव्यों में नहीं मिलते।
 
पाण्डित्य प्रदर्शन केशव अपने पाण्डित्य की धाक जमाना चाहते थे। संस्कृत काव्य की उक्तियों को उन्होंने अपने काव्य में सँजोया है, किन्तु भाषा की असमर्थता के कारण वे उन्हें स्पष्ट नहीं कर सके। परस्त्री गमन के विषय में उनकी अनुभूति द्रष्टव्य है- 

पावक पाप शिखा बड़वारी। जारत है नर को पर नारी ॥ 

'विज्ञान गीता' में वैराग्य उक्तियाँ हैं । 

केशवदास का आचार्यत्व व कवित्व

प्रबन्धकाव्य के अतिरिक्त केशव ने मुक्तककाव्य भी रचा है। 'कविप्रिया' में मुख्य रूप से अलंकारों के लक्षण-उदाहरण तथा काव्यदोष आदि का वर्णन है तथा 'रसिक प्रिया' में रस तथा उसके अंगों (भाव, विभाग, अनुभाव आदि) तथा नायिका-भेद आदि का वर्णन है। इन प्रन्थों में केशव का कवि हृदय देखा जा सकता है। इन प्रन्थों के कारण केशव को रीतिकालीन काव्य-परम्परा में प्रथम आचार्य का पद प्राप्त हुआ ।
 

केशवदास की भाषा शैली

केशव की भाषा ब्रज है, कुछ क्लिष्टता और जटिलता लिये हुए है, जिस पर बुन्देली का भी प्रभाव है। 'रामचन्द्रिका' की भाषा प्रायः संस्कृत की तत्सम शब्दावली के अत्यधिक प्रयोग से बोझिल है, पर 'रसिक प्रिया' की भाषा बड़ी सरल और सरस है। सामान्यतः कवित्त और सवैयों में केशव की भाषा बहुत प्रवाहपूर्ण और सुन्दर है। वीर रस के वर्णन में केशव को अच्छी सफलता मिली है; क्योंकि ओजयुक्त भाषा लिखने में केशव सिद्धहस्त थे। संवादों की भाषा भी प्रायः ओजस्विनी और प्रवाहपूर्ण है। 

निष्कर्ष

सारांश यह है कि केशव अपने आचार्यत्व और कवित्व दोनों के कारण हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों में उच्च स्थान के अधिकारी हैं। उनके किसी प्रशंसक ने तो 'सूर-सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास' लिखकर उन्हें हिन्दी कवियों में सूर-तुलसी के बाद तीसरे स्थान का अधिकारी बताया है। इतना भी न मानें तो भी यह तो निःसंकोच कहा ही जा सकता है कि केशवदास हिन्दी के समर्थ कवियों में से एक हैं। 

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