गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में लोक कल्याण भावना गोस्वामी तुलसीदासजी की उदारता और हृदय की व्यापकता राजनीतिक आदर्श पारिवारिक आदर्श पत्नी सामाजिक आदर्श
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में लोक कल्याण भावना
गोस्वामी तुलसीदासजी की उदारता और हृदय की व्यापकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वे आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत की जनता के हृदय मन्दिर में विराजमान हैं। वे ऐसे काल में उत्पन्न हुए थे, जबकि हिन्दू जाति घोर संकटापन्न थी। आन्तरिक विघटन और बाह्य अत्याचारों की दोहरी मार से हिन्दू-समाज इतनी दुर्दशा को पहुँच चुका था कि उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नसूचक चिह्न लग गया था। ऐसी ही परिस्थिति में गोस्वामीजी का आविर्भाव हुआ और उन्होंने मृतप्राय समाज में नवचेतना का संचार कर उसे उज्जीवित किया। इस प्रकार गोस्वामीजी का मुख्य कार्य ही लोकादर्श की स्थापना था; अतः क्या आश्चर्य, यदि उनके सभी ग्रन्थों का मुख्य स्वर-लोकसंग्रहपरक हो और 'रामचरितमानस' का तो वह प्राण ही है।
गोस्वामीजी ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लिए कल्याणकारी आदर्शों की स्थापना की। इनकी दृष्टि बड़ी व्यापक थी, जिससे जीवन का कोई क्षेत्र अछूता न बचा। ये क्षेत्र हैं - राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और वैयक्तिक (व्यक्तिगत) ।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में राजनीतिक आदर्श
राजनीतिक क्षेत्र में गोस्वामीजी की दृढ़ मान्यता थी कि जब तक राजा या शासक आदर्श न होगा, तब तक आदर्श राज्य की स्थापना सम्भव नहीं। इसलिए गोस्वामीजी ने शक्ति-शील-सौन्दर्य के अनुपम अधिष्ठान, अधर्म का उन्मूलन करके धर्म की स्थापना करने वाले, एकपत्नीव्रती, आत्मजयी (जितेन्द्रिय) राम को आदर्श राजा के रूप में सामने रखा और उनके राज्य को रामराज्य की संज्ञा दी, जो चिरकाल से भारतीय जनता का चिरकाम्य आदर्श रहा है।
राजा राम की सबसे बड़ी विशेषता थी उनके द्वारा लोकतान्त्रिक मूल्य की स्थापना। उनके राज्य में प्रजा के छोटे-से-छोटे व्यक्ति की आवाज केवल सुनी ही नहीं जाती थी, अपितु उसको सन्तुष्ट करने के लिए महाराज राम अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा तक की तिलांजलि देने में क्षणमात्र का विलम्ब न करते थे। राजा राम का आदर्श वाक्य था-
नहीं है।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी ॥
इसलिए राजा का प्रधान कर्त्तव्य था प्रजापालन, न कि व्यक्तिगत सुख-भोग। राम की दृष्टि में राज्य एक क्षण के लिए भी उपेक्षणीय नहीं है ।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में पारिवारिक आदर्श पत्नी
राजपरिवार में सेवक और सेविकाओं की कमी नहीं है, परन्तु सीताजी अपने घर की परिचर्या स्वयं करती हैं-
निज कर गृह परिचरजा कर ही । रामचन्द्र आयसु अनुसर ही।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में सामाजिक आदर्श
गोस्वामीजी यद्यपि वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे, पर उनका दृष्टिकोण संकुचित न था। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि प्रत्येक व्यक्ति आदर का अधिकारी तभी माना जा सकता है, जब वह अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करे। इस प्रकार गोस्वामीजी ने जन्म की अपेक्षा कर्म (या कर्तव्यपालन) पर अधिक बल दिया है। भागीरथी में स्नान के लिए आपने लिखा है-
राजघाट सब विधि सुन्दर वर। मज्जहि तहां वरन चारौ नर ॥
साथ ही उन्होंने उच्च और निम्न वर्णों के मध्य सौन्दर्यपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना पर विशेष ध्यान दिया। इसी कारण तुलसी के राम श्रृंगवेरपुर में निषादराज का आलिंगन कर उसे भाई बताते हैं, मार्ग के ग्रामीण नर-नारियों के सहज प्रेम का समादर करते हैं और चित्रकूट की कोल-किरात-भील आदि जंगली जातियों को सस्नेह अपनाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में धार्मिक आदर्श
गोस्वामीजी के समय में धार्मिक क्षेत्र में भी बड़ी विशृंखलता (अव्यवस्था थी। विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रचार से जनता दिग्भ्रमित थी। गोस्वामीजी ने देखा कि लोक-वेद-विरोधी सम्प्रदायों के कारण समाज से सच्चे धर्म का लोप होता जा रहा है। सामान्यतः ये सम्प्रदाय तीन प्रकार के थे-
(१) ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी निर्गुण योगी- इन्होंने ज्ञान और भक्ति को तो अपनाया, पर कर्म का तिरस्कार कर दिया।
(२) सिद्ध और नाथपंथी योगी-ये शुष्क ज्ञान को लेकर चले एवं इन्होंने कर्म और उपासना का तिरस्कार कर दिया ।
(३) वाममार्गी आदि निकृष्ट साधकों ने कर्म, ज्ञान और भक्ति (उपासना) तीनों का तिरस्कार कर दिया।
गोस्वामीजी जानते थे कि सच्चे लोकधर्म की प्रतिष्ठा कर्म, ज्ञान और भक्त—इन तीनों के समन्वय से ही सम्भव है। इसलिए उन्होंने एक ओर तो इन लोक-वेद विरोधी सम्प्रदायों के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन कर जनता को सावधान कर दिया और दूसरी ओर उपर्युक्त तीनों अवयवों (कर्म, ज्ञान, भक्ति) के सामंजस्य से आदर्श धर्म-मार्ग का स्वरूप निरूपित किया-
श्रुतिसम्मत हरि-भक्ति-पथ संजुत विरति विवेक ।
उनकी कृपा से उत्तर भारत में शैव-वैष्णव-विवाद उत्पन्न ही न हुआ, यद्यपि दक्षिण भारत को उसने अत्यधिक कुप्रभावित किया। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि गोस्वामीजी की "शान्तिप्रदायिनी मनोहर वाणी के प्रभाव से जो सामंजस्य बुद्धि जनता में आयी, वह अब तक बनी है और जब तक 'रामचरितमानस' का पठन-पाठन रहेगा, तब तक बनी रहेगी।'
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में पारिवारिक आदर्श
समाज और व्यक्ति के बीच की कड़ी है परिवार। परिवार एक ओर व्यक्ति की सुख-सुविधाओं का विधान करता है तो दूसरी ओर उसमें अनुशासन, सदाचार, कर्त्तव्यपरायणता, कष्टसहिष्णुता, त्याग एवं स्नेहशीलता आदि सद्गुणों का विकास करता है; अतः हम कह सकते हैं कि आदर्श परिवारों की समष्टि का ही नाम है आदर्श समाज। इसी बात को दृष्टि में रखकर तुलसी ने परिवार को इतना अधिक महत्त्व दिया कि उनका ग्रन्थ आदर्श पारिवारिक जीवन का महाकाव्य कहलाता है।
तुलसी ने आदर्श परिवार के विविध पक्षों को दिखाने के लिए जितने अधिक पारिवारिक सम्बन्धों की योजना की है, उतनी किसी अन्य कवि में नहीं मिलती। उन्होंने पिता-पुत्र (दशरथ-राम), माता-पुत्र (कौशल्या-राम), माता-पुत्री (मयना-पार्वती, सुनयना-सीता), पिता-पुत्री (जनक-सीता), भाई-भाई (राम तथा उनके भाई), समधी समधी (जनक-दशरथ), ससुर-जामाता (जनक-राम), सास-जामाता (सुनयना-राम), सास-पुत्रवधू (कौशल्या-सीता),ससुर-पुत्रवधू (दशरथ-सीता आदि पुत्रवधुएँ), बाराती (महादेव तथा राम की बारातों में गये बाराती), पति-पत्नी (राम-सीता), कुल पुरोहित (वशिष्ठ, शतानन्द), गुरु-शिष्य (वशिष्ठ-राम), मित्र-मित्र (राम और उनके सखा), पड़ोसिनें, कुलवृद्धाएँ, सखी-सहेलियाँ आदि प्रायः सभी सम्बन्धों का आदर्शपरक चित्रण करके अपनी इस मान्यता की पुष्टि की है कि आदर्श परिवार ही आदर्श समाज और राष्ट्र की धुरी है ।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में वैयक्तिक आदर्श (नैतिकता)
लोकसंग्रह का मूलाधार है नैतिकता। यह बात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र–राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक आदि पर लागू होती है, जो साहित्य नैतिकता का पोषक नहीं, वह लोकमंगलकारी कदापि नहीं हो सकता । गोस्वामीजी ने राम, सीता और भरत के रूप में नैतिकता के उच्चतम मानदण्डों की स्थापना की है। राम का सदाचार लोकविश्रुत है । यही स्थिति भरत की है। नारियों का चिरन्तन आदर्श सीता में मूर्त हुआ है। माता कौशल्या एवं सुमित्रा का नैतिकता बोध भी अनुकरणीय है । इस प्रकार गोस्वामीजी ने वैयक्तिक आदर्श की उच्चतम झाँकी प्रस्तुत करके अपने लोक-संग्राहक रूप को सम्पूर्णता में प्रदर्शित किया है।
निष्कर्ष
सारांश यह है कि गोस्वामीजी का काव्य लोकमंगल का समग्रता में विधान करता है। लोकसंग्रह की इसी कल्याणकारी भावना के कारण 'मानस' को धर्मग्रन्थ की मर्यादा प्राप्त हुई तथा उसने उत्तर भारत की जनता को विगत चार सौ वर्षों में बहुत गहरे रूप में प्रभावित किया है ।
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