सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन

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सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन गोस्वामी तुलसीदासजी तथा सूरदासजी हिन्दी काव्यक्षेत्र तुलसी लोकसंग्रही

सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन


सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन गोस्वामी तुलसीदासजी तथा सूरदासजी हिन्दी काव्यक्षेत्र के ध्रुव प्रकाश स्तम्भ हैं। दोनों की तुलना द्वारा एक को दूसरे से बड़ा या छोटा बताना कठिन ही नहीं, अपितु अनुचित भी है। बात यह है कि दोनों ही प्रतिभासम्पन्न रससिद्ध कवीश्वर थे और अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ने जो काव्य-रचना की, वह उनको संसार के महान कवियों की पंक्ति में अनायास ही बिठा देती है, फिर भी दोनों की तुलना उनकी विशेषताओं को उद्घाटित करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इस दृष्टि से उन पर विचार किया जाना चाहिए।
 
काव्य के दो पक्ष होते हैं—
(१) भावपक्ष
(२) कलापक्ष । 

सूरदास और तुलसीदास का भाव पक्ष

सूरदास और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन
भावपक्ष -
तुलसी का काव्यक्षेत्र सूर की अपेक्षा बहुत विस्तृत काव्यक्षेत्र की दृष्टि से तुलसीदास का फलक बहुत विस्तृत है । महाकाव्य लिखने के कारण उन्होंने सभी रसों का सुन्दर निरूपण किया है। उनके काव्य में मनुष्य जीवन की विविध दशाओं और वृत्तियों का बड़ा सूक्ष्म और विस्तृत चित्रण मिलता है। इस दृष्टि से उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी है। पर सूरदासजी ने गीति-शैली को अपनाया, जिसमें 'मधुर ध्वनिप्रवाह के बीच कुछ चुने हुए पदार्थों और व्यापारों की झलक भर काफी होती है।" इसलिए उनके 'सूरसागर' में अनेक पदार्थों और व्यापारों की श्रृंखला जुड़ती हुई नहीं चलती। अपनी भक्ति-पद्धति और प्रवृत्ति के कारण सूरदास का मन केवल बाललीला और शृंगार में रमा है। इस दृष्टि से उनका क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा बहुत सीमित है, पर वे वास्तव में इन क्षेत्रों का कोना-कोना झाँक आये हैं और उनके परवर्ती कवियों को इन विषयों पर कोई नयी बात कहना कठिन हो गया। शृंगार और वात्सल्य पर तुलसीदासजी ने भी लिखा है, पर इन रसों के वर्णन में गोस्वामीजी अपनी मर्यादावादिता के कारण सूर के निकट तक नहीं पहुँचते ।
 

तुलसी आदर्शवादी तो सूर आनन्दवादी

तुलसीदास ने अपने चरित्र-चित्रण द्वारा जैसे विविध प्रकार के ऊँचे आदर्श खड़े किये वैसे सूर ने नहीं। तुलसीदासजी मर्यादावादी थे और उन्होंने काव्य केवल 'स्वान्तः सुखाय' ही न लिखा, अपितु लोककल्याण को भी दृष्टि में रखा। उनको अपने समय के समाज को व्यवस्थित करना और युग-युग तक भारतीय संस्कृति की पताका को फहराना था; अतः उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का लोकरक्षक-रूप सामने रखा। इसी उद्देश्य से वे राम के ईश्वरत्व को भूलने नहीं देते। वे शुद्ध काव्य-रचना का लक्ष्य लेकर नहीं चले, अपितु काव्य के माध्यम से सन्देश देना उनका उद्देश्य था। यह उनकी असाधारण क्षमता का द्योतक है कि उच्चतम सन्देश देते हुए भी उन्होंने उच्चतम काव्य की सृष्टि की।
 
दूसरी ओर सूर वल्लभ-सम्प्रदाय में दीक्षित थे। उनके दीक्षा-गुरु वल्लभाचार्यजी का कहना था कि भगवान् की लीला का कोई प्रयोजन नहीं । भगवान् लीला के लिए ही लीला करते हैं। इसके अतिरिक्त वल्लभ-सम्प्रदाय में भगवान् की उपसाना सख्य भाव से होती है। इसलिए सूर ने भगवान् के लोकरंजक रूप को सामने रखा और लीला के लिए लीलागान किया। फलतः वे काव्य-रचना के समय कृष्ण की बाल-क्रीड़ा और यौवन-क्रीड़ा के वर्णन में पूरी तरह तन्मय हो जाते हैं। वे ईश्वर हैं, इसको सर्वथा भुलाकर उनको शुद्ध मानव के रूप में चित्रित करते हैं, जिससे उनके काव्य में शुद्ध काव्यत्व का जैसा सच्चा आनन्द प्राप्त होता है और उनके चरित्र-चित्रण में जैसी स्वाभाविकता झलकती है, वैसी तुलसीदासजी में जरा कम ही दिखायी देती है। 

चरित्र-चित्रण-सूर के बाल और युवा कृष्ण हमारे जितने निकट पहुँच पाते हैं, उतने तुलसी के राम नहीं। सचमुच सूर के चरित्र अधिक सजीव और उभरे हुए हैं। राधा की सृष्टि द्वारा सूर ने हिन्दी काव्यजगत् को एक मौलिक चरित्र दिया है, जबकि मर्यादावादी तुलसी ने इस प्रकार के किसी मौलिक चरित्र की सृष्टि न की ।
 

तुलसी लोकसंग्रही और समन्वयवादी

तुलसीदास में लोकसंग्रह (लोककल्याण) का भाव पूरा-पूरा विद्यमान् होने के कारण उनकी दृष्टि समन्वयात्मक है। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में परस्पर विरोधी मतों में समन्वय स्थापित किया। धार्मिक क्षेत्र में शिव और राम को एक-दूसरे का उपासक बनाकर उन्होंने जो महान् कार्य किया, उत्तर भारत को शैव-वैष्णव-विवाद एवं विद्वेष से जिस प्रकार मुक्त कर दिया उसका महत्त्व तभी समझा जा सकता है, जब उनके काल के दक्षिण भारत में प्रचण्ड रूप से विद्यमान् शैव-वैष्णव विद्वेष को देखा जाये। अपने 'मानस' द्वारा उन्होंने उत्तर भारत की जनता पर इतना व्यापक और गहरा प्रभाव डाला कि डॉ० प्रियर्सन ने उनको बुद्धदेव के बाद उत्तर भारत का सबसे बड़ा लोकनायक बताया। सूरदासजी ने भगवान् के लोकरंजक रूप के वर्णन द्वारा स्वयं रस लिया और दूसरों को रसप्लावित किया। वे अपने में ही मस्त रहे। लोक की ओर दृष्टि उठाकर देखने का न तो उन्हें अवकाश था, न रुचि ।

 
सूरदास और तुलसीदास का कलापक्ष 

कलापक्ष की दृष्टि से तुलसी निश्चित रूप से सूरदास से बड़े हैं। तुलसी का ब्रज भाषा और अवधी दोनों काव्यभाषाओं पर समान अधिकार था और उन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी काव्यशैलियों पर अत्यन्त उत्कृष्ट और सफल काव्य-रचना की। यह बात सूर में नहीं। 'सूरसागर' की गीति-पद्धति के जोड़ पर तुलसीदास की 'गीतावली' मौजूद है, पर 'रामचरितमानस' और 'कवितावली' की शैली पर सूर की कोई रचना नहीं । सूर का अधिकार भी केवल ब्रज भाषा पर है। काव्यशास्त्र पर अधिकार एवं पाण्डित्य की दृष्टि से भी तुलसी सूर की अपेक्षा बहुत बड़े हैं। 

निष्कर्ष सारांश यह है कि सूर का काव्य पढ़कर हम चमत्कृत और हर्षित होते हैं तथा गोस्वामीजी का काव्य हमें भक्तिरसामृतसिन्धु में डुबोकर आनन्दित करने के साथ-साथ जीवन के प्रति अपने महान् दायित्व की भावना जगाकर उसे पूरा करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार सूर और तुलसी दोनों महान् हैं, दोनों अपने-अपने स्थान पर बेजोड़ हैं। 

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