तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना

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तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना


गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी प्रार्थना में मंगल करनी कलिमल हरनि रामकथा को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं। वे समस्त विश्व के मंगल में ही अपना मंगल अनुभव करते हैं। गोस्वामी जी मानते हैं कि रामचरित्र प्रकृत्या मंगलमय है। वह प्राणी मात्र के लिए मंगल का विधायक है। वे लिखते हैं - 

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥ 

उन्होंने राम के आदर्श चरित्र द्वारा जिस मूल्यनिष्ठ जीवन शैली का विधान किया है। वह व्यापक स्तर पर मंगल साधना का उत्कृष्ट उदाहरण है। बाल्यकाल से ही राम वही करते हैं जो लोकहित साधक होता है -
 
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥

राम का आदर्श चरित्र

तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना
किशोरवय में विश्वामित्र के यज्ञशाला की रक्षा ,ताड़का वध ,मारीच सुबाहु से युद्ध,अहिल्या उद्धार ,जनक का शोक शमन कर धनुष तोड़ना आदि लोकमंगल क्रियाएँ है। वे लिखते हैं कि - 

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।

संसार में जब भी धर्म की हानि होती है तथा असुरों का अत्याचार बढ़ता है। तब तब प्रभु श्रीराम मानव शरीर धारण कर असुरों का संहार कर लोकमंगल का कार्य करते हैं। महाकवि तुलसीदास जी हिंदी साहित्य के एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल का विधान करना स्वीकार किया है। वे लिखते हैं -

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥

अर्थात कीर्ति ,कविता एवं ऐश्वर्य वही अच्छा होता है जो गंगा के समान सबका हित साधक हो। जो कविता मंगल का विधान नहीं करती है ,जिसे पढ़ने के बाद मन में सद्भाव नहीं उत्पन्न होते हैं ,वह भला किसी काम की ,तुलसी ने इन पंक्तियों में इसी प्रकार की अभिव्यक्ति की है। उनेक द्वारा रचित विश्वविख्यात महाकाव्य 'रामचरितमानस' लोकमंगल का विधान करने वाला सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। उनमें प्रस्तुत किये गए आदर्श चरित्रों के बल पर यह ग्रन्थ जन जन का कंठहार बना हुआ है और हिन्दुओं के मंदिरों में स्थान पा रहा है। 

लोक व्यवहार में कुशलता

विश्व में लोक व्यवहार सम्बन्धी उपदेश देने वालों का उतना अधिक महत्व नहीं होता ,जितना उन कर्मों को किसी चरित्र के रूप में प्रस्तुत करके मन को उसकी ओर प्रवृत्त करने वाले कवियों का है। इसीलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कहा है कि व्यक्ति संबंधहीन सिद्धांत मार्ग निश्चयात्मक बुद्धि को चाहे व्यक्त हों ,पर प्रवर्तक मन को अव्यक्त रहते हैं। वे मनोरंजनकारी तभी लगते हैं जब किसी व्यक्ति के जीवन क्रम के रूप में देखे जाते हैं। 

कविता हमें केवल मनोरंजन ही नहीं कराती अपितु वह हमें मानवता की उस उच्चभूमि पर ले जाती है,जहाँ मनुष्य का जगत के साथ पूर्ण तादाम्त्य हो जाता है। ऐसी स्थिति में पहुँचने पर मनुष्य का ह्रदय संसार के सुख दुःख से प्रभावित होता है ,वह स्वार्थ के संकुचित घेरे से ऊपर उठ जाता है। कविता का एक सर्वप्रमुख उद्देश्य लोकमंगल का विधान करना भी है। वह मनुष्य के लिए अत्यंत प्रयोजनीय वस्तु है। कवि तुलसीदास ने अपनी कविताओं में लोकमंगल का उत्कृष्ट विधान किया है। 

मानवता की उच्च भूमि

मध्यकालीन भारत जब राजनीतिक अस्थिरता ,सामाजिक विश्रृंखलता ,धार्मिक वितंडावाद और सांस्कृतिक विमूढ़ता की मार झेल रहा था। उस समय तुलसीदास जी लोगों के कल्याण एवं मंगल के लिए रामचरितमानस की रचना कर रहे थे। उनका किसी से विरोध नहीं था ,वे समन्वयवादी थे और समन्वय के द्वारा लोक धर्म स्थापित करना चाहते थे और पारंपरिक नैतिकता के प्रबल समर्थक थे।

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  1. तुलसी दास के रामचरितमानस में लोक मंगल की भावना

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