तुलसीदास सबसे बड़े राजनीतिक कवि है !

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तुलसीदास सबसे बड़े राजनीतिक कवि है कालिदास, वाल्मिकी, तुलसी, रहीम, गालिब, मीर, कबीर, नागार्जुन, शमशेर सबकी सारी कविताएं सदैव उद्धरण योग्य दिखती हैं

तुलसी सबसे बड़े राजनीतिक कवि है !


माज में कविता की मुख्य भूमिका और ताकत पर मेरे कुछ फुटकर विचार हैं ये। कविता कोई ऐसा भौतिक अस्त्र नहीं जिसे लेकर पाठक किसी समर में उतर जाएं और शत्रु का अंत कर के विजय पा लें। 

कविता एक तरह की नैतिक ढाल है, जो पाठक को उसके कर्तव्यों और दायित्वों का सांस्कृतिक राजनीतिक बोध कराती है। वह अच्छे बुरे का विभाजन करते हुए बुरे से भी यह उम्मीद रखती है कि एक दिन वह भी अच्छे की ओर आ जाएगा। अच्छाई का पक्ष पाती हो जायेगा।कविता का कोई शत्रु नहीं होता। बुरे से बुरा क्रूर व्यक्ति भी कविता का पाठक हो सकता है और उसी समय यह भी हो कि वह कविता उसे संवेदित न भी करे। मामला संवेदित होने का है। यदि किसी के मनोभाव परहित के लिए और पर पीड़ा से द्रवित नहीं होते तो वह कविता पढ़ने पर भी शायद द्रवित ना हो!
तुलसीदास सबसे बड़े राजनीतिक कवि है !

कई बार कुछ कविताएं कौंध कर अपना होना सिद्ध करती हैं। एक कविता भी या एक कविता पंक्ति भी यदि अपना होना सिद्ध कर देती है तो वह संसार भर की कविता के जीवित होने का प्रमाण है! क्या कालिदास, वाल्मिकी, तुलसी, रहीम, गालिब, मीर, कबीर, नागार्जुन, शमशेर सबकी सारी कविताएं सदैव उद्धरण योग्य दिखती हैं? ऐसा तो नहीं है? मौके पर ही पंक्तियां या कविताएं याद आती हैं और अपना औचित्य सिद्ध कर जाती हैं।

कविता का कभी हस्तक्षेप करना ना करना व्यक्ति के अपने पढ़े लिखे और स्मृति संपन्न होने पर भी निर्भर करता है, लेकिन कोई कविता पूरी सृष्टि में यदि किसी को भी याद रहती है तो इसका यही अर्थ है कि वह कविता अमर है!
यही इस बात का यह अर्थ भी नहीं कि जो कविता उद्धरण के योग्य नहीं वह सार्थक नहीं! कई बार कविता गहरी अनुभूतियों को भी समझने में मदद करती है। एक बात और की समर्थ और अर्थवान कविता आवश्यक नहीं कि सनसनीखेज भी हो! उदाहरण के लिए: 

"परहित सरिस धरम नहीं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई"

इस पंक्ति में तुलसी बिल्कुल गंभीर भाव से अपनी बात कर गए हैं। बिना सनसनी फैलाए। चार पांच सौ साल से इससे बड़ी राजनीतिक कविता या पंक्ति मैंने नहीं देखी सुनी पढ़ी! कह सकते हैं कि हिंदी के सबसे बड़े राजनीतिक कवि तुलसीदास हैं!

ऐसे ही कुम्भनदास की यह पंक्ति भी बिना शोर गुल के अपना संदेश सैकड़ों वर्षों से दे रही है:

"संतन को कहां सीकरी सो काम
आवत जात पनाहियां टूटी बिसरि गयो हरिनाम।" 

सीकरी राजधानी है और राजधानी का निषेध तत्कालीन ही नहीं आज भी कवियों संतों के लिए भारी दुष्कर कार्य है। 
कविता का पूरा प्रभाव पाठक की संवेदना पर ही निर्भर है। उसकी अमरता भी और उसकी क्षण भांगुरता भी। क्या हत्यारे ने कभी कोई कविता नहीं पढ़ी होगी। क्या हिटलर खुद और उसके के यंत्रणा शिविर में काम करने वाले उसके क्रूर कारकून अनपढ़ थे या वे अपने समय के पूरे महान साहित्य से अनभिज्ञ रहे होंगे? 

कभी कभार तो संसार का घटिया से घटिया शासक या व्यक्ति भी कविता उद्धृत करते पाया जा सकता है! ऐसी स्थिति में कविता क्या कर रही होती है? हमें इस पर भी विचार करना चाहिए!


- बोधिसत्व, भदोही

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