तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ

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तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ


तुलसीदास जी की काव्यगत विशेषताएँ tulsidas ki kavyagat visheshta in hindi तुलसीदास की काव्य भाषा तुलसीदास की भाषा शैली तुलसीदास के काव्य की विशेषता तुलसीदास का भावपक्ष और कलापक्ष यदि किसी एक कवि को किसी भाषा और साहित्य की सम्पूर्ण शक्तियों के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित करना पड़े तो निसंदेह हिंदी अपने लिए गोस्वामी तुलसीदास को चुनेगी। तुलसीदास जैसी अशेष सामर्थ्यवान और प्रतिभाशाली कवि जाति और देश के इतिहास में कभी न कभी ही जन्म लेते हैं। किसी ने उन्हें बुद्धदेव के बाद भारत का सबसे बड़ा लोकनायक माना है तो किसी ने उन्हें मुगलकाल का सबसे बड़ा व्यक्ति की उपाधि दी है। तुलसीदास के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ रामचरितमानस को उत्तर भारत की बाइबिल कहा जाता है। ये सभी कथन तुलसीदास की महाप्राणता ,उनकी गहरी जीवन दृष्टि ,असाधारण लोक चेतना और अनुपम कला निपुणता के प्रमाण है। तुलसीदास पर हिंदी भाषा को ही नहीं ,समूचे भारतवर्ष को गर्व है ,उसी प्रकार जिस प्रकार शेक्सपियर पर इंग्लैंड को गर्व है। 

तुलसीदास की भक्ति भावना 

गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन सगुण उपासक धारा की रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।
तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ
तुलसीदास 

इनके काव्य का वर्ण विषय एकमात्र रामकथा है। गोस्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है - अन्तकरण की प्रेरणा से लिखा है। उन्होंने अपनी स्वांत: सुखाय रचना कवित्व प्रदर्शन अथवा उपदेश देने के उद्देश्य से कदापि नहीं रची है। फिर भी उनकी कविता में लोकहित की भावना इतनी प्रबल है है कि उनकी स्वांत: सुखाय रचना ,बहुजन हिताय हो गयी है। गोस्वामी जी आशावादी कवि हैं। उनका अडिग विश्वास है कि रावणत्व की पराकाष्ठ पर लोकरक्षक राम का आभिर्भाव अवश्यभावी है। यथा - 

जब जब होई धरम की हानि । बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।। 
तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।। 

गोस्वामी तुलसीदास ने अपने काव्य में भक्ति के साथ शील आचार ,मर्यादा और लोक संग्रह का सन्देश सुनाकर हिन्दू जाति में अटूट दृढ़ता प्रदान की है। भावपक्ष और कलापक्ष का जैसा समनवय उनकी रचनाओं में हुआ है ,वैसा अन्यत दुर्लभ है। सारे भेदभावों से पृथक हो सियाराम मय सब जग जानी द्वारा इनकी उदार कल्पना में विश्व वन्धुत्व का अमर सन्देश छिपा हुआ है। उनके काव्य का यह स्वरुप लोक कल्याण की प्रेरणा का स्त्रोत है। रामचरितमानस उनका सर्वोत्तम महाकाव्य है। मानव जीवन की सारी समस्याओं का सूक्ष्म विवेचन गोस्वामी जी ने अपने इस महाकाव्य ग्रन्थ में किया है। वे एक ओर जहाँ सामाजिक एवं सांस्कृतिक मर्यादा की रक्षा करते हैं ,वहीं दूसरी ओर पारस्परिक मतभेदों को दूरकर उनमें समनव्य भी स्थापित करते हैं। रामचरितमानस के राम वन गमन ,भारत -मिलाप ,सीता हरण ,सीता का अशोक वाटिका में विलाप आदि अनेक मार्मिक स्थलों के चित्रण में गोस्वामी जी के काव्यगत भावपक्षीय गंभीरता की अभिव्यक्ति हुई है। गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं को देखने से उसमें दो प्रकार की विचारधाराएँ विशेष रूप से दिखलाई पड़ती है - 

  1. लोकमंगल की भावना , 
  2. भक्ति भावना 

तुलसीदास की समन्वय भावना 

गोस्वामी तुलसीदास को लोकनायक ,सम्नावाय्कारी ,युग परिवर्तक एवं लोक मंगलकारी सभी कुछ कहा जा सकता है। वे सच्चे अर्थों में साहित्यकार थे। उनके काव्य में तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण बड़ी ही निर्भीकता के साथ किया गया है। उनके काव्य में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में सामायिक विषम परिस्थितियों के निराकरण हेतु अनेक समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया गया। जैसे - धार्मिक समन्वय ,शैव और वैष्णव का समन्वय ,सगुनापसना ,ज्ञान -कर्म और भक्ति में समन्वय आदि। उक्त समन्वयवादी विचारों के अतिरिक्त गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य में निम्नलिखित लोक मंगलकारी भावनाओं का समावेश भी है - 

  • उच्च सामाजिक आदर्शों की स्थापना का प्रयास 
  • समाज के निराश और हतप्रभ व्यक्तियों को भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयास। 
  • कर्तव्यनिष्ठा और मानवीय भावनाओं के उदय का प्रयास। 
  • भक्तिभावना के अनुपमेय उदारहण द्वारा समाज को प्रेरणा प्रदान करने का प्रयास। गोस्वामी तुलसीदास जी की भक्ति भावना सेवक सेव्य भाव की कोटि में आती है। राम इनके उपास्य हैं ,उनके प्रति इनकी दास्य भक्ति अत्यंत ही उच्चकोटि की है। भक्ति भावना का निखार इनके विनय पत्रिका नामक काव्य ग्रन्थ में हुआ है। इनकी भक्ति में समर्पण भावना का बाहुल्य है। गोस्वामी जी का दृढ़ विश्वास है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं ,ईश्वर की इच्छा से ही कर रहे हैं। वे बराबर भगवान से प्रेम भक्ति और अनुराग की भीख मांगते हैं। 
यद्यपि गोस्वामी जी साधना के क्षेत्र में ब्रह्म के सगुण -निर्गुण दोनों रूपों को मानते हैं ,किन्तु भावना के क्षेत्र में केवल सगुण भक्ति को ही प्रधानता देते हैं ,फिर भी वे निर्गुण भक्ति के विरोधी कदापि नहीं है। निर्गुण भक्ति ज्ञान द्वारा संभव है ,किन्तु वे ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को ही श्रेयकर मानते हैं। उनकी भक्ति आडम्बर -विहीन है। राम के उपासक होने के साथ -साथ युग के बहुदेववाद का भी वे समर्थन करते चलते हैं। ग्रंथों में मंगलाचरण में गणेश ,शंकर ,हनुमान ,पार्वती ,सरस्वती आदि देवताओं की स्तुति उनके इस दृष्टिकोण का पूर्ण परिचायक है। 

तुलसीदास की भाषा शैली 

गोस्वामी तुलसीदास जी भाषा के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने काव्य भाषा के रूप में प्रचलित अवधी और ब्रजभाषा दोनों भाषाओँ का अपने काव्य में प्रयोग किया है। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग से भाषा शुद्ध साहित्यिक हो गयी है। वर्णन के अनुसार भाषा में ओज ,प्रसाद और माधुर्य गुणों का भी यथास्थान बड़ा ही सुन्दर प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग ने इनकी रचनाओं को लोककंठ का आभूषण बना दिया है। रामचरितमानस ,बरवै रामायण ,जानकी मंगल ,पार्वती मंगल ,रामलला नहछू में अवधी और विनय पत्रिका ,कवितावली ,गीतावली आदि में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। यथा - 

अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥

शैली की दृष्टि से इनकी रचनाओं मुक्तक और प्रबंध दोनों प्रकार की है। इनकी शैलिओं में स्वाभाविक भावव्यंजना है। रामचरितमानस में सूफियों के दोहा चौपाई की प्रबंधात्मक शैली का ,दोहावली में कबीर की साखी पद्धति और मुक्तकशैली का ,विनयपत्रिका में विद्यापति और सूर की गीतशैली का ,कवितावली में गंग आदि दरबारी कवियों की कवित्त सवैया पद्धति तथा वीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति की कथा शैली का ,बरवै रामायण में रहीम की कथा शैली का ,रामलला नहछू ,पार्वती -मंगल ,जानकी मंगल आदि रचनाओं में लोकशैली का अनुसरण किया है। 

गोस्वामीजी की रचनाओं में प्रायः सभी रसों का समावेश है। यद्यपि मर्यादा पालन के लिए गोस्वामीजी ने संयोग श्रृंगार को पूर्णतः विकसित नहीं होने दिया है ,फिर भी उन्होंने जो कुछ भी चित्रण प्रस्तुत किया है ,वह अत्यंत ही मर्यादित है। यथा - 

दूलह श्री रधुनाथु बने दुलहीं सिय सुंदर मंदिर माहीं। 
गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।। 
रामको रूप निहारति जानकी कंकनके नगकी परछााहीं। 
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही , पलकें टारत नाहीं।

गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं में दोहा ,चौपाई ,सोरठा ,हरिगीतिका ,छप्पय ,रोला पद ,त्रिभंगी ,कवित्त ,सवैया आदि प्रचलित सोहर आदि लोक छंद का भी प्रयोग हुआ है। इनकी रचनाओं में छंदों के प्रयोग में अत्यंत स्वाभाविकता है। इनके रूपक और उपमाएं बड़ी ही सुन्दर ढंग से प्रयुक्त हुई है। इसके अतिरिक्त इनकी रचनाओं में उत्प्रेक्षा ,दृष्टान्त ,उल्लेख अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतिप ,व्यतिरिक आदि सभी अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है। 

तुलसीदास का भावपक्ष और कलापक्ष

काव्य के भाव एवं कला दोनों दृष्टियों से विवेचन करने पर गोस्वामी तुलसीदासजी हिंदी के शीर्षस्थ कवियों में अपना सर्वोत्तम स्थान रखते हैं। इनका काव्य केवल लोकरंजक ही नहीं है ,वह लोकमंगलकारी भी है। उसमें सत्यम शिवम और सुन्दरम तीन तत्वों का पूर्णतः विकास हुआ है। तुलसीदास ने अपने रामकाव्य के माध्यम से जीवन की कठिन से कठिन ग्रंथियों को सुलझाने का प्रयास किया है। अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण से देश की राजनितिक, सामाजिक,साम्प्रदायिक ,आध्यात्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में सामंजस्य स्थापित करके उन्होंने जो लोकहित चिंतन किया है ,उसके लिए हिंदी साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा। निश्चय ही गोस्वामी जी हिंदी साहित्याकाश के सूर्य हैं। हरिऔध जी ने तुलसीदास को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए ठीक ही कहा है - 

कविता करके तुलसी न लसै, 
कविता लसी पा तुलसी की कला। 


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