तुलसीदास की समन्वय भावना

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तुलसी का समन्वयवाद तुलसीदास की समन्वय भावना तुलसी का काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है शैव एवं वैष्णव का समन्वय ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय ब्राह्मण और शु

तुलसी का काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है


तुलसी का समन्वयवाद तुलसीदास की समन्वय भावना - समन्वय शब्द संस्कृत भाषा के सम + अनु + ई + अच् से मिलकर बना हुआ है जिसका साधारण अर्थ होता है -मिलाना या सम्यक योग करना। साहित्य ,धर्म एवं दर्शन आदि के क्षेत्र में समन्वय का तात्पर्य अनेकानेक परम्पराओं ,दृष्टिकोणों ,विश्वासों ,विचारों आदि में परस्पर सम्यक सामंजस्य स्थापित करना। महाकवि तुलसीदास जी का उदय ऐसे युग में हुआ जब धर्म समाज और राजनीति आदि क्षेत्रों में पारस्परिक सामंजस्य का अभाव था। समकालीन संतकवि भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। 

समन्वयवादी दृष्टिकोण के कारण तुलसीदास जी का लोकनायक के रूप में स्वीकार किया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। तुसलीदास महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक थे। उनका सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। "

तुलसीदास के समन्वय भाव को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है - 

तुलसीदास की समन्वय भावना निर्गुण एवं सगुण का समन्वय 

भक्तिकाल ने निर्गुण व सगुण दो भक्ति धाराएँ चल रही थी। तुसलीदास जी की मान्यता है कि दोनों धाराएँ तत्वत: एक ही है। वे कहते हैं कि राम ही भक्ति के प्रेमवश सगुण रूप में प्रकट होते हैं। वे लिखते हैं कि -

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥

शैव एवं वैष्णव का समन्वय 

तुलसीदास की समन्वय भावना
तुलसी के समय में शैव एवं वैष्णव का मतभेद अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। विष्णु को अपना ईष्टदेव मानने वाले वैष्णव तथा शिव को अपना इष्टदेव मानने वाले शैव कहलाते हैं। शिव के भक्त राम का विरोध करते थे एवं रामभक्त शिव का विरोध करते थे। दोनों मतों में समन्वय स्थापित करने के लिए एक ओर तो उन्होंने शिव के मुँह से कहलवाया - 

जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।।
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।

इस प्रकार शिव को राम का उपासक सिद्ध कर दिया ,दूसरी ओर राम के मुँह से कहलवाया - 

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।

इस प्रकार तुलसीदास ने शिव व राम को निकट लाने का प्रयास किया। 

ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय 

तुलसीदास के युग में ज्ञानियों एवं भक्तों में बड़ा विद्वेष चलता था। ज्ञानी जन भक्तों को तुच्छ एवं स्वयं को श्रेष्ठ समझते थे तथा भक्तगण स्वयं को श्रेष्ठ समझते थे। तुलसीदास दोनों का उद्देश्य एक मानते थे। वे लिखते हैं कि - 

भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥

ब्राह्मण और शुद्र का समन्वय 

वर्णाश्रम धर्म का मुक्तकंठ से समर्थन करने वाले तुलसीदास ने भक्ति के क्षेत्र में ब्राह्मण एवं शूद्र को समान स्थान दिया है। क्षत्रिय वंश में उत्पन्न राम को तुच्छ वानर ,भालू ,विभीषण राक्षस तक को आलिंगन करते हुए दिखाकर उच्चवर्ग एवं निम्नवर्ग का सुन्दर समन्वय स्थापित किया है। ब्राह्मणरत्न वशिष्ठ ने निम्नवर्ण निषाद को आत्म विस्मृत  होकर गले लगाया - 

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥

भाग्य एवं पुरुषार्थ में समन्वय 

तुलसीदास एक महान कलाकार थे। उन्होंने भाग्यवाद एवं पुरुषवाद में समन्वय स्थापित किया है। वे लिखते हैं कि -

जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥

उपयुक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि तुलसीदास का काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।  आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है ,लोक और शास्त्र का समन्वय ,गृहस्थ और वैराग्य का समन्वय ,भक्ति और ज्ञान का समन्वय ,भाषा और संस्कृति का समन्वय ,निर्गुण और सगुण का समन्वय ,कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय ,पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय ,रामचरितमानस प्रारंभ से लेकर अंत तक समन्वय का काव्य है।  

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