सोशल मीडिया और युवा साहित्य अभिव्यक्ति की नई विधाएँ सोशल मीडिया ने पिछले डेढ़ दशक में जिस तरह युवा पीढ़ी की अभिव्यक्ति को नया आकार दिया है, वह साहित्
सोशल मीडिया और युवा साहित्य अभिव्यक्ति की नई विधाएँ
सोशल मीडिया ने पिछले डेढ़ दशक में जिस तरह युवा पीढ़ी की अभिव्यक्ति को नया आकार दिया है, वह साहित्य के इतिहास में एक मौन क्रांति की तरह है। पहले जहाँ कविता, कहानी या निबंध लिखने के लिए कागज़, कलम और प्रकाशक की मुहर चाहिए होती थी, वहीं आज एक स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्शन ही काफी है। फेसबुक की दीवार, इंस्टाग्राम की स्टोरीज़, ट्विटर के धागे, टंबलर के लंबे पोस्ट, वॉटपैड की सीरीज़ और टिकटॉक के पंद्रह सेकंड के वीडियो—ये सब अब साहित्य की नई विधाएँ बन चुके हैं। यहाँ प्रकाशन और पाठक के बीच का फासला लगभग शून्य हो गया है। लिखते ही पढ़ा जा रहा है, पढ़ते ही प्रतिक्रिया आ रही है। यह तात्कालिकता ही युवा साहित्य को सबसे ज़्यादा प्रभावित कर रही है।
पहले की पीढ़ी का लेखक अकेले में लिखता था, महीनों सोचता था, फिर संपादक की लाल पेंसिल झेलता था। आज का युवा लेखक लिखते वक्त ही अपने पाठकों को देख रहा होता है। लाइक, कमेंट, शेयर उसकी भाषा को तुरंत दिशा देते हैं। इससे एक नई तरह की संवेदनशीलता पैदा हुई है—संक्षिप्त, तीखी, चित्रात्मक और भावुक। ट्विटर पर 280 अक्षरों में पूरी प्रेम कहानी लिख दी जाती है, इंस्टाग्राम कैप्शन में दर्द की गहराई नापी जाती है, रील्स में कविता को बैकग्राउंड म्यूज़िक और विज़ुअल के साथ परोसा जाता है। ये सब पारंपरिक साहित्य की दृष्टि से “अशुद्ध” लग सकते हैं, पर यही अशुद्धता आज की सच्चाई है। यहाँ व्याकरण से ज़्यादा भाव की तीव्रता मायने रखती है, पूर्ण विराम से ज़्यादा इमोजी।हिंदी के युवा लेखक इस बदलाव को सबसे ज़्यादा जी रहे हैं। फेसबुक पर “शब्दांकुर”, “काव्यांजलि”, “मेरी कलम से” जैसे पेज और ग्रुप लाखों सदस्यों वाले साहित्यिक मंच बन गए हैं। यहाँ हर रोज़ हज़ारों कविताएँ, ग़ज़लें, मुक्तक और माइक्रोटेल्स पोस्ट होती हैं। कोई “याद आया करो” लिखता है तो सैकड़ों लोग अपनी-अपनी यादों के साथ उसमें खुद को देख लेते हैं। कोई “तुम ऑनलाइन हो, पर बात नहीं करते” लिखता है तो हज़ारों दिल टूटने और जुड़ने की आवाज़ एक साथ सुनाई देती है। ये रचनाएँ जितनी निजी होती हैं, उतनी ही सार्वजनिक भी।
प्रेम, विरह, अवसाद, संघर्ष, ख़्वाहिशें—सब कुछ बिना किसी सेंसर के, बिना किसी डर के बाहर आ रहा है।इंस्टाग्राम ने तो कविता को विज़ुअल बनाया है। सफ़ेद बैकग्राउंड पर काले अक्षर, बीच में एक सूखा पत्ता या टूटा कप—और दर्द बिकने लगता है। “इंस्टापोएट्री” अब हिंदी साहित्य का एक स्थापित उपविधा है। यहाँ कविता पढ़ी नहीं जाती, देखी जाती है, महसूस की जाती है। पाठक स्क्रॉल करते-करते रुक जाता है क्योंकि उसकी अपनी ज़िंदगी का कोई टुकड़ा अचानक शब्दों में उतर आया है। वॉटपैड ने लंबी कहानियों को फिर से ज़िंदा किया है। यहाँ की ज़्यादातर लेखिकाएँ सोलह-अठारह साल की लड़कियाँ हैं जो कॉलेज के प्रेम, फैंटसी, थ्रिलर या समलैंगिक प्रेम पर सीरीज़ लिख रही हैं। इन कहानियों को लाखों-करोड़ों व्यूज़ मिलते हैं। ये लड़कियाँ प्रकाशक के दरवाजे खटखटाने से पहले ही अपनी आवाज़ पूरी दुनिया तक पहुँचा चुकी होती हैं।सोशल मीडिया ने साहित्य को लोकतांत्रिक भी बनाया है।
अब लेखक बनने के लिए डिग्री, उम्र, लिंग या जाति की ज़रूरत नहीं। कोई छोटे शहर का लड़का है जो दिन में मज़दूरी करता है और रात में फेसबुक पर कविताएँ लिखता है। कोई लड़की है जो हिजाब पहनती है और इंस्टाग्राम पर अपनी प्रेम कविताएँ डालती है। कोई ट्रांसजेंडर है जो अपनी पहचान की लड़ाई को शब्दों में लड़ रहा है। ये सब आवाज़ें पहले साहित्य की मुख्यधारा में नहीं आ पाती थीं। अब आ रही हैं और मुख्यधारा को बदल रही हैं।लेकिन इस नई अभिव्यक्ति के अपने खतरे भी हैं। तात्कालिकता गहराई छीन लेती है। लाइक्स के लिए लिखना पड़ता है, इसलिए ज़्यादा दर्द, ज़्यादा नाटकीयता, ज़्यादा क्लिष्ट रूपक। एक ही तरह की कविताएँ बार-बार दोहराई जाती हैं—“तुम्हारी यादें”, “खुद से मुलाकात”, “मैं टूट चुका हूँ”। साहित्यिक गुणवत्ता पीछे छूटने लगती है। प्रतिक्रिया न मिले तो लेखक लिखना छोड़ देता है। यहाँ धैर्य बहुत कम लोगों के पास है। साथ ही कॉपी-पेस्ट का बोलबाला है। एक अच्छी पंक्ति लिखी नहीं कि दस जगह चस्पाँ हो जाती है, बिना क्रेडिट के। मौलिकता संकट में है।फिर भी यह सच है कि सोशल मीडिया ने युवा पीढ़ी को वह आत्मविश्वास दिया है जो पहले नहीं था।
आज का युवा यह मानता है कि उसकी बात मायने रखती है, उसका दर्द लिखने योग्य है, उसकी ख़ुशी साझा करने योग्य है। वह संपादक की मेज पर नहीं, सीधे पाठक के दिल पर लिख रहा है। यह अभिव्यक्ति की नई विधा है—कच्ची, अधूरी, शोर वाली, लेकिन ज़िंदा और सच। यह साहित्य का भविष्य है, चाहे हम इसे स्वीकार करें या नहीं। और यही भविष्य अभी सोलह-सत्रह साल के किसी लड़के या लड़की के मोबाइल की स्क्रीन पर टाइप हो रहा है, इस वक्त भी।


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