भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध

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भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली कृषि न केवल देश की अधिकांश आबादी का मुख्य आजीविका स्रोत है, बल्कि

भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध


भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली कृषि न केवल देश की अधिकांश आबादी का मुख्य आजीविका स्रोत है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा, रोजगार सृजन और ग्रामीण विकास का आधार भी है। स्वतंत्र भारत में कृषि ने हरित क्रांति के माध्यम से आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, लेकिन आजादी के सात दशकों बाद भी यह क्षेत्र अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के दबाव में कृषि भूमि का सिकुड़ना, जलवायु परिवर्तन के असर और तकनीकी पिछड़ेपन जैसी समस्याएं न केवल किसानों की आय को प्रभावित कर रही हैं, बल्कि समग्र आर्थिक विकास को भी बाधित कर रही हैं। इन समस्याओं का समाधान ढूंढना और कार्यान्वित करना आज के समय की अनिवार्य आवश्यकता है, ताकि कृषि को एक सतत और लाभकारी क्षेत्र के रूप में मजबूत किया जा सके। इस निबंध में हम भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं का विश्लेषण करेंगे और उनके संभावित समाधानों पर विचार करेंगे, जो न केवल किसानों के हित में होंगे बल्कि देश की समृद्धि को भी बढ़ावा देंगे।

कृषि क्षमता में लगातार गिरावट

ऐसे समय में जब खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं और दुनिया में भुखमरी आपने पैर पसार रही है, जलवायु परिवर्तन से संबंधित विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि आने वाले वक्त में हमें और भी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ेगा। दिनों-दिन बढ़ते वैश्विक तापमान की वजह से भारत की कृषि क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षमता में 40 फीसदी तक की कमी हो सकती है। (ग्लोबल वार्मिंग एंड एग्रीकल्चर, विलियम क्लाइन)। कृषि के लिए पानी और ऊर्जा या बिजली दोनों ही बहुत अहम तत्त्व हैं, लेकिन बढ़ते तापमान की वजह से दोनों की उपलब्धता मुश्किल होती जा रही है। तापमान बढ़ने के साथ ही देश के एक बड़े हिस्से में सूखे और जल संकट की समस्या भी बद से बदतर होती जा रही है। एक तरफ वैश्विक तापमान से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर ब्रेक लगाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वहीं दूसरी ओर कृषि कार्य के लिए, पानी की आपूर्ति के वास्ते बिजली की आवश्यकता भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

जलवायु परिवर्तन की वजह

भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध
खाद्य सुरक्षा, पानी और बिजली के बीच यह संबंध जलवायु परिवर्तन की वजह से कहीं ज्यादा उभरकर सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक अगले दशक में भारतीय कृषि की बिजली की जरूरत बढ़कर दोगुनी हो जाने की संभावना है। यदि निकट भविष्य में भारत को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के समझौते को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो सबसे बड़ा सवाल यही उठेगा कि फिर आखिर भारतीय कृषि की यह माँग कैसे पूरी की जा सकेगी। इसका जवाब कोपेनहेगन में नहीं, बल्कि कृषि में पानी और बिजली के इस्तेमाल को युक्तिसंगत बनाने में निहित है। कृषि में बिजली का बढ़ता इस्तेमाल इस तथ्य से साफ है कि अब किसान पाँच हार्सपॉवर के पंपों के बजाय 15 20 हार्सपॉवर के सबमर्सिबल पंपों का इस्तेमाल करने लगे हैं। पाँच हार्सपॉवर के पंप 1970 के दशक में काफी प्रचलन में थे। इससे राज्य सरकारें अत्यधिक दबाव में हैं, क्योंकि कृषि क्षेत्र की बिजली संबंधी जरूरतों की पूर्ति उसे ही करनी होगी। जमीन के भीतर से पानी खींचने के लिए बिजली की अधिक जरूरत पड़ती है। 

पंजाब में बिजली की जितनी खपत होती है, उसका एक तिहाई हिस्सा अकेले पानी को पंप करने में ही खर्च हो जाता है। हरियाणा में यह आँकड़ा 41 और आंध्र प्रदेश में 36 फीसदी है। हालांकि सरकार वृहद सिंचाई परियोजनाओं और नहरों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन तथ्य यह है कि नहरों के पानी का महज 25 से 45 फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है, जबकि कुओं और नलकूपों का 70 से 80 फीसदी तक पानी इस्तेमाल कर लिया जाता है। भूजल से कृषि उत्पादकता नहरी सिंचाई से कृषि उत्पादकता की तुलना में डेढ़ से दो गुनी ज्यादा है। यही वजह है कि निजी क्षेत्र भूजल में ही निवेश को प्राथमिकता दे रहा है। देश के सिंचाई साधनों में 60 फीसदी हिस्सा भूजल स्रोतों का है जिनके विकास पर निजी क्षेत्र 2.2 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहा है, लेकिन भूजल से सिंचाई तब तक टिकाऊ नहीं हैं, जब तक कि जल संरक्षण के लिए उतनी ही राशि खर्च नहीं की जाती जितनी कि भूमिगत जल स्रोतों के विकास पर खर्च की जा रही है। उन क्षेत्रों में जल प्रबंधन बहुत जरूरी है जो सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूमिगत पानी पर निर्भर है, ताकि वहाँ भूजल के स्तर के साथ संतुलन बनाया जा सके, लेकिन हमारे नीति निर्माताओं ने अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया। है। अभी पूरा ध्यान नहरी सिंचाई पर ही दिया जा रहा है। भारत में भूमिगत जल का भौगोलिक बँटवारा असमान है। 
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और इसका इस्तेमाल भी बेहद गलत ढंग से किया जा रहा है। देश के 70 फीसदी प्रखंडों में भूजल का स्तर संतोषजनक है, लेकिन उन 30 फीसदी प्रखंडों में पानी का अधिकतम दोहन किया जा रहा है, जहाँ पहले से ही पानी का संकट है। भूजल में कमी की प्रमुख वजह नलकूपों से सिंचाई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब है। वहाँ भूजल का स्तर 50 से 100 फीट तक नीचे गिर चुका है, लेकिन इसके बावजूद वह अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का 'निर्यात' कर रहा है। वहाँ भूजल का दोहन 145 फीसदी तक हो रहा है। इसी तरह उत्तर प्रदेश भी अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है, लेकिन भूजल का दोहन 70 फीसदी तक सीमित है। हरियाणा 14 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है और भूजल दोहन का आँकड़ा 109 फीसदी है। कुछ राज्यों ने जल प्रबंधन की दिशा में कई कदम उठाए हैं। महाराष्ट्र ने 'वाटर आडिट' करने की व्यवस्था शुरू की है। पंजाब और हरियाणा अब चावल की रोपाई मशीन से करने लगे हैं, ताकि ग्रीष्मकाल में सबसे गर्म दिनों से बचा जा सके। जल-संरक्षण आज के समय की सबसे महती जरूरत है। भारत में करीब एक करोड़ कुएँ हैं, लेकिन उनमें से 35 फीसदी निष्क्रिय है। भूमिगत जलस्रोतों को रिचार्ज करके इन कुओं को आसानी से बहाल किया जा सकता है। देश के कई इलाकों में लोग ऐसा करके दिखा भी चुके हैं, लेकिन लगता है हमारे नौकरशाह अब भी इससे सहमत नहीं है। 

खान पान की आदतों में बदलाव

हमारी खान-पान की आदतों में बदलाव भी जल संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकता है। एक टन गोमांस के लिए 16.726 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि एक टन मक्के के उत्पादन में महज 1020 क्यूबिक मीटर पानी ही चाहिए। एक टन आलू के उत्पादन में महज 133 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतने ही पनीर या चीज के उत्पादन में 40 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होगी। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के भय को भुनाने का प्रयास करते हुए बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ ऐसे बीजों के विकास का दावा कर रही हैं जिनसे सूखे में भी उत्पादन लिया जा सकेगा, लेकिन जेनेटिकली मॉडीफाइंड बीजों को लेकर ऐसे दावे प्रमाणिकता से कोसों दूर हैं किसान अब फिर से बीजों की पारंपरिक किस्मों की ओर लौट रहे हैं जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ काफी प्रयासों के बावजूद मिटा नहीं सकी।

इन समस्याओं का समाधान एक बहुआयामी दृष्टिकोण से ही संभव है, जिसमें सरकारी नीतियां, तकनीकी नवाचार और सामुदायिक भागीदारी का समन्वय आवश्यक है। सबसे पहले, भूमि सुधारों पर जोर देकर छोटे जोतों की समस्या को हल किया जा सकता है। भूमि समेकन कार्यक्रमों को पुनर्जीवित कर किसानों को सहकारी खेती की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए, जहां कई छोटे किसान मिलकर एक बड़ी इकाई के रूप में कार्य करें। इससे मशीनीकरण संभव हो सकेगा और उत्पादकता में वृद्धि होगी। इसके लिए डिजिटल भूमि रिकॉर्ड जैसे ई-खासरा जैसी पहलों को मजबूत करना होगा, ताकि भूमि विवाद कम हों और स्वामित्व स्पष्ट हो। सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने के लिए माइक्रो-इरिगेशन तकनीकों जैसे ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना' जैसी योजनाओं को विस्तार देकर वर्षा आधारित क्षेत्रों में जल संरक्षण संरचनाएं जैसे तालाब, चेक डैम और वर्षा जल संचयन को बढ़ावा दिया जाए। भूजल प्रबंधन के लिए सेंसर-आधारित निगरानी प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, जो अत्यधिक दोहन को रोके। मिट्टी स्वास्थ्य को सुधारने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा देना आवश्यक है। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर वर्मी-कम्पोस्ट, बायो-फर्टिलाइजर और फसल चक्र अपनाने से मिट्टी की उर्वरता बहाल होगी। सरकारी स्तर पर मिट्टी परीक्षण लैबों का विस्तार और किसानों को मुफ्त सलाह प्रदान की जानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जल-रोधक और सूखा-सहनशील फसल किस्मों का विकास किया जाना चाहिए, जैसे कि धान की नई प्रजातियां जो कम पानी में उग सकें।

'राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद' जैसी संस्थाओं को और सशक्त बनाकर किसानों तक ये तकनीकें पहुंचानी होंगी। बाजार संबंधी समस्याओं का समाधान ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से किया जा सकता है, जो पारदर्शी मूल्य निर्धारण और सीधी बिक्री सुनिश्चित करेंगे। कोल्ड चेन भंडारण और ग्रामीण गोदामों का निर्माण किसानों को उपज को सही समय पर बेचने में मदद करेगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सभी फसलों पर लागू कर मूल्य स्थिरता लाई जानी चाहिए। तकनीकी पिछड़ापन दूर करने के लिए डिजिटल कृषि को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। स्मार्टफोन-आधारित ऐप्स जो मौसम पूर्वानुमान, फसल सलाह और बाजार मूल्य प्रदान करें, किसानों को सशक्त बनाएंगे। वित्तीय समावेशन के लिए किसान क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को सरल और व्यापक बनाया जाए, ताकि कर्ज की समस्या कम हो। शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों में जागरूकता बढ़ाई जाए, जैसे कि कृषि विश्वविद्यालयों के एक्सटेंशन सेंटरों के जरिए। इसके अलावा, सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप कृषि को पर्यावरण-अनुकूल बनाना होगा, जहां कार्बन फुटप्रिंट कम करने वाली प्रथाओं को प्रोत्साहन मिले।

भारतीय कृषि की समस्याएं जटिल हैं

निष्कर्षतः, भारतीय कृषि की समस्याएं जटिल हैं, लेकिन इनका समाधान असंभव नहीं है। यदि सरकार, वैज्ञानिक, किसान संगठन और निजी क्षेत्र मिलकर कार्य करें, तो कृषि को एक लाभकारी उद्योग के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। यह न केवल ग्रामीण भारत को सशक्त बनाएगा, बल्कि खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करेगा।अंततः, कृषि का उत्थान देश के समग्र विकास का आधार बनेगा, जहां हर किसान न केवल जीविका चलाने वाला, बल्कि एक समृद्ध उद्यमी के रूप में उभरे। हमें अब कार्रवाई का समय है, ताकि हरे-भरे खेतों से ही देश का भविष्य हरा-भरा हो।

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