भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली कृषि न केवल देश की अधिकांश आबादी का मुख्य आजीविका स्रोत है, बल्कि
भारतीय कृषि की समस्या और समाधान पर निबंध
कृषि क्षमता में लगातार गिरावट
जलवायु परिवर्तन की वजह
खान पान की आदतों में बदलाव
हमारी खान-पान की आदतों में बदलाव भी जल संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकता है। एक टन गोमांस के लिए 16.726 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि एक टन मक्के के उत्पादन में महज 1020 क्यूबिक मीटर पानी ही चाहिए। एक टन आलू के उत्पादन में महज 133 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतने ही पनीर या चीज के उत्पादन में 40 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होगी। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के भय को भुनाने का प्रयास करते हुए बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ ऐसे बीजों के विकास का दावा कर रही हैं जिनसे सूखे में भी उत्पादन लिया जा सकेगा, लेकिन जेनेटिकली मॉडीफाइंड बीजों को लेकर ऐसे दावे प्रमाणिकता से कोसों दूर हैं किसान अब फिर से बीजों की पारंपरिक किस्मों की ओर लौट रहे हैं जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ काफी प्रयासों के बावजूद मिटा नहीं सकी।
इन समस्याओं का समाधान एक बहुआयामी दृष्टिकोण से ही संभव है, जिसमें सरकारी नीतियां, तकनीकी नवाचार और सामुदायिक भागीदारी का समन्वय आवश्यक है। सबसे पहले, भूमि सुधारों पर जोर देकर छोटे जोतों की समस्या को हल किया जा सकता है। भूमि समेकन कार्यक्रमों को पुनर्जीवित कर किसानों को सहकारी खेती की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए, जहां कई छोटे किसान मिलकर एक बड़ी इकाई के रूप में कार्य करें। इससे मशीनीकरण संभव हो सकेगा और उत्पादकता में वृद्धि होगी। इसके लिए डिजिटल भूमि रिकॉर्ड जैसे ई-खासरा जैसी पहलों को मजबूत करना होगा, ताकि भूमि विवाद कम हों और स्वामित्व स्पष्ट हो। सिंचाई व्यवस्था को मजबूत करने के लिए माइक्रो-इरिगेशन तकनीकों जैसे ड्रिप और स्प्रिंकलर सिस्टम को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 'प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना' जैसी योजनाओं को विस्तार देकर वर्षा आधारित क्षेत्रों में जल संरक्षण संरचनाएं जैसे तालाब, चेक डैम और वर्षा जल संचयन को बढ़ावा दिया जाए। भूजल प्रबंधन के लिए सेंसर-आधारित निगरानी प्रणाली विकसित की जानी चाहिए, जो अत्यधिक दोहन को रोके। मिट्टी स्वास्थ्य को सुधारने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा देना आवश्यक है। रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर वर्मी-कम्पोस्ट, बायो-फर्टिलाइजर और फसल चक्र अपनाने से मिट्टी की उर्वरता बहाल होगी। सरकारी स्तर पर मिट्टी परीक्षण लैबों का विस्तार और किसानों को मुफ्त सलाह प्रदान की जानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जल-रोधक और सूखा-सहनशील फसल किस्मों का विकास किया जाना चाहिए, जैसे कि धान की नई प्रजातियां जो कम पानी में उग सकें।
'राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद' जैसी संस्थाओं को और सशक्त बनाकर किसानों तक ये तकनीकें पहुंचानी होंगी। बाजार संबंधी समस्याओं का समाधान ई-नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार) जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से किया जा सकता है, जो पारदर्शी मूल्य निर्धारण और सीधी बिक्री सुनिश्चित करेंगे। कोल्ड चेन भंडारण और ग्रामीण गोदामों का निर्माण किसानों को उपज को सही समय पर बेचने में मदद करेगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सभी फसलों पर लागू कर मूल्य स्थिरता लाई जानी चाहिए। तकनीकी पिछड़ापन दूर करने के लिए डिजिटल कृषि को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। स्मार्टफोन-आधारित ऐप्स जो मौसम पूर्वानुमान, फसल सलाह और बाजार मूल्य प्रदान करें, किसानों को सशक्त बनाएंगे। वित्तीय समावेशन के लिए किसान क्रेडिट कार्ड और फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को सरल और व्यापक बनाया जाए, ताकि कर्ज की समस्या कम हो। शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों में जागरूकता बढ़ाई जाए, जैसे कि कृषि विश्वविद्यालयों के एक्सटेंशन सेंटरों के जरिए। इसके अलावा, सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप कृषि को पर्यावरण-अनुकूल बनाना होगा, जहां कार्बन फुटप्रिंट कम करने वाली प्रथाओं को प्रोत्साहन मिले।
भारतीय कृषि की समस्याएं जटिल हैं
निष्कर्षतः, भारतीय कृषि की समस्याएं जटिल हैं, लेकिन इनका समाधान असंभव नहीं है। यदि सरकार, वैज्ञानिक, किसान संगठन और निजी क्षेत्र मिलकर कार्य करें, तो कृषि को एक लाभकारी उद्योग के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। यह न केवल ग्रामीण भारत को सशक्त बनाएगा, बल्कि खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करेगा।अंततः, कृषि का उत्थान देश के समग्र विकास का आधार बनेगा, जहां हर किसान न केवल जीविका चलाने वाला, बल्कि एक समृद्ध उद्यमी के रूप में उभरे। हमें अब कार्रवाई का समय है, ताकि हरे-भरे खेतों से ही देश का भविष्य हरा-भरा हो।


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