तो अच्छा है मुझे जैसा इश्क़ हुआ है, वैसे तुझे हो जाए तो अच्छा है।बुझें हुए चेहरे का हाल क्या जानना,तेरी भी नींद हराम हो जाए तो अच्छा है। वो दिल
तो अच्छा है
मुझे जैसा इश्क़ हुआ है,
वैसे तुझे हो जाए तो अच्छा है।
बुझें हुए चेहरे का हाल क्या जानना,
तेरी भी नींद हराम हो जाए तो अच्छा है।
वो दिल से खेल रहे थे मेरे,
उनके भी दिल से कोई यूँ खेल जाए तो अच्छा है।
दिललगी का मर्ज़ लाइलाज है,
कोई और दर्द मिल जाए तो अच्छा है।
वक़्त के साथ उड़ जाती है यह आशिक़ी की गर्द,
किसी पर न पड़े यह गर्द तो अच्छा है।
चश्म में वो पिन्हाँ है,
दरिया बन के न उभरे तो अच्छा है।
तअस्सुर उनका मुझ पर कम हो रहा है,
यह तख़य्युल न हो तो अच्छा है।
हो किस्से-कहानियों में इश्क़,
असल में किसी को न हो तो अच्छा है।
मेरी वफ़ा का कफ़्फ़ारा न पूछो,
तुम्हें माफ़ कर दिया — यही तुम्हारे लिए अच्छा है।
सुन 'हबीब' मेरी यह बात,
इश्क़नामा अफ़सानों में ही अच्छा है।
होती हैं
बिछड़ते वक़्त थीं खामोशियाँ,
आँसुओं की आवाज़ें कहाँ होती हैं
चलते-चलते पहुँचे इतना दूर,
दूरी फिर कहाँ दूर होती है
बज़्म में था वो साथ मेरे,
तन्हाई भी अब कहाँ दूर होती है
मक़बूल हुए इस क़दर,
सबको भाए ऐसी क़िस्मत कहाँ होती है
मिलने को तो सबको मिलता ‘हबीब’,
सबकी लकीरें इक-सी कहाँ होती हैं।
क्या करूँ
मुझे ईमानदारी नहीं देखती तो मैं क्या करूँ
कहने के बाद भी उन बे-बयान बातों का क्या करूँ,
तुम ने तो सब कह दिया, अपने ख़यालों का क्या करूँ
बुझे हुए रुखसार के रौनक की क्या बात करूँ,
मैं अश्कों से भीगी हुई हातेलियों का क्या करूँ
दुनियाभर के तुम्हारे सारे हुनर का क्या करूँ,
मुझ से तो सिर्फ झुठ बोलना हैं बाकियों का क्या करूँ
तुम अर्श का सितारा होना चाहों मैं क्या करूँ,
मेरी किस्मत में मेरे लिए कुछ नहीं मैं क्या करूँ
तुम्हारा समीर से होने का क्या करूँ,
मैं मुझ जैसे "हबीब" का क्या करूँ।
बोल
कोई चुप रहकर भी इतना कैसे बोल सकता है,
कोई बोलकर भी इतना व्यर्थ।
हर इंसान की बोलचाल अलग है,
हर इंसान की चाल, बोल से अलग।
खामोश नयन की गंगा,
जो तुमने नहीं देखी,
वो दूर की दृष्टि से देख रहा है तुम्हें।
समय के काँटों में फँसा हुआ इंसान,
टुकड़ों में चलता है।
वो जो नहीं रुकता,
वो जो नहीं रुक सकता।
बोझिल कदम, झुके हुए कंधे —
जो बिन बोले बोलते हैं,
जिसे बोल नहीं सकता हर कोई,
जिसे सुन नहीं सकता हर कोई।
मुमकिन की दहलीज़
तू मिलने आए
फूल लाए
सिरहाने बैठे
बातचीत की कोशिश हो
जवाब की तलब हो
पर्दा उठाना चाहों
मिट्टी ढहना चाहों
मिलने की ख़्वाहिश हो
क़यामत का इन्तिज़ार हो
ये जानते हुए भी
मुमकिन की दहलीज़ बहुत छोटी है
तभी भी चाहती हूँ
तू मिलने आए
फूल लाए
सिरहाने बैठे।
तैबा “हबीब” लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मी एक उभरती हुई उर्दू कवयित्री और लेखिका हैं।वह अपनी निजी ज़िंदगी को हमेशा सीमित दायरे में रखती हैं, लेकिन लिखने का शौक उन्हें बचपन से है। लखनऊ के साहित्यिक माहौल ने उनके भीतर के लेखक को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय, भोपाल से ब्रॉडकास्ट जर्नलिज़्म में मास्टर डिग्री हासिल की। पेशेवर रूप से वह एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल में काम कर चुकी हैं और वर्तमान में एक विज्ञापन एजेंसी में कॉपीराइटर के पद पर कार्यरत हैं। उर्दू साहित्य में वह “हबीब” नाम से लिखती हैं और उनका लेखन सामाजिक घटनाओं, व्यक्तिगत अनुभवों और मानवीय भावनाओं से प्रेरित होता है। तैबा का मानना है कि लेखन लोगों से जुड़ने का सबसे सशक्त माध्यम है, और इसी वजह से वह अपने अनुभवों व विचारों को सरल,स्पष्ट और भावपूर्ण शब्दों में साझा करना पसंद करती हैं।


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