बढ़ती आबादी देश की बरबादी आधुनिक भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या, जो न केवल संसाधनों पर बोझ डाल रही है बल्कि देश
बढ़ती आबादी देश की बरबादी पर निबंध
बढ़ती आबादी देश की बरबादी आधुनिक भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है अपनी तेजी से बढ़ती जनसंख्या, जो न केवल संसाधनों पर बोझ डाल रही है बल्कि देश के समग्र विकास को भी बाधित कर रही है। स्वतंत्रता के समय, 1947 में अविभाजित भारत की जनसंख्या लगभग 39 करोड़ थी, लेकिन विभाजन के बाद भारत का हिस्सा करीब 33 करोड़ रह गया। तब से आज तक, यानी नवंबर 2025 तक, यह आंकड़ा 1.47 अरब से अधिक हो चुका है, जो दुनिया की कुल आबादी का लगभग 18 प्रतिशत है। हर साल लगभग 18 मिलियन लोग जुड़ रहे हैं, जो एक मध्यम आकार के देश के बराबर है, और संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार 2050 तक यह 1.67 अरब तक पहुँच सकती है। यह वृद्धि दर भले ही 1950-60 के दशक की 2.5 प्रतिशत से घटकर अब 0.88 प्रतिशत हो गई हो, लेकिन सीमित संसाधनों वाले देश के लिए यह अभी भी एक अभिशाप सिद्ध हो रही है।
जनसंख्या विस्फोट का कारण
जनसंख्या विस्फोट के पीछे शिक्षा की कमी, गरीबी, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव और सांस्कृतिक मान्यताएँ जैसे कारक हैं, जो विशेष रूप से ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में प्रजनन दर को ऊँचा रखे हुए हैं, हालाँकि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) अब 1.9 तक गिर चुकी है, जो प्रतिस्थापन स्तर 2.1 से नीचे है। फिर भी, यह गिरावट पर्याप्त नहीं है, क्योंकि शहरीकरण और प्रवास के कारण घनी आबादी वाले शहरों में दबाव और बढ़ गया है।इस बढ़ती आबादी का सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव बेरोजगारी पर पड़ा है, जो युवा पीढ़ी की आशाओं पर भारी साया डाल रही है। हर साल लाखों युवा विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों से निकलते हैं, लेकिन नौकरियों की कमी उन्हें निराशा की गोद में धकेल देती है। 2025 की दूसरी तिमाही में बेरोजगारी दर 5.2 प्रतिशत रही, जो ग्रामीण क्षेत्रों में 4.4 प्रतिशत और शहरी में 6.9 प्रतिशत है, लेकिन वास्तविकता इससे कहीं अधिक कठोर है, क्योंकि अनौपचारिक क्षेत्र में छिपी बेरोजगारी को शामिल करें तो यह आंकड़ा दोगुना हो जाता है। पढ़े-लिखे युवाओं की फौज रोजगार मेलों और ऑनलाइन पोर्टलों पर भटक रही है, जबकि डिजिटल अर्थव्यवस्था जैसे यूपीआई और स्टार्टअप्स ने कुछ नौकरियाँ तो पैदा की हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। इससे न केवल आर्थिक असमानता बढ़ी है, बल्कि सामाजिक तनाव भी पैदा हो रहा है, क्योंकि बेरोजगारी से प्रेरित हताशा युवाओं को अपराध की ओर धकेल रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, अपराध दर प्रति लाख आबादी पर 448.3 है, और 2023 में आईपीसी के तहत 37.63 लाख मामले दर्ज हुए, जो 2022 के 35.61 लाख से अधिक हैं। साइबर अपराध और युवा-केंद्रित हिंसा में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो जनसंख्या दबाव से उपजी बेरोजगारी और संसाधन संघर्ष का प्रत्यक्ष परिणाम है। अपराध न केवल व्यक्तिगत जीवन नष्ट कर रहा है, बल्कि समाज की नींव को भी कमजोर कर रहा है।
खाद्य सुरक्षा की समस्या
खाद्य सुरक्षा की समस्या भी उतनी ही गंभीर है, जहाँ उत्पादन में वृद्धि के बावजूद भूख का साया करोड़ों लोगों पर मंडरा रहा है। भारत कृषि प्रधान देश है, और हरित क्रांति के बाद अनाज उत्पादन कई गुना बढ़ा है, लेकिन बढ़ती आबादी ने इस लाभ को निगल लिया है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2025 में भारत का स्कोर 25.8 है, जो 'गंभीर' श्रेणी में आता है, और रैंकिंग 123 देशों में 102वीं है। लगभग 19 करोड़ लोग कुपोषित हैं, और ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे स्टंटिंग (विकास रुकना) की चपेट में हैं। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना जैसे प्रयासों से 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज मिल रहा है, लेकिन वितरण की अक्षमताएँ और जलवायु परिवर्तन से फसल क्षति ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। भूख न केवल शारीरिक कमजोरी पैदा करती है, बल्कि शिक्षा और उत्पादकता को भी प्रभावित करती है, जिससे विकास का चक्र टूट जाता है।
स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
स्वास्थ्य सेवाएँ इस जनसंख्या बोझ के नीचे चरमरा गई हैं, जहाँ प्रति हजार लोगों पर मात्र 0.9 डॉक्टर उपलब्ध हैं। अस्पतालों में बेडों की कमी, दवाओं का अभाव और महामारी जैसी स्थितियों में ओवरलोडिंग आम बात हो गई है। आयुष्मान भारत योजना ने 50 करोड़ लोगों को कवरेज दिया है, लेकिन ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति दयनीय है। इससे मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर अभी भी ऊँची बनी हुई है, जो जनसंख्या नियंत्रण को और कठिन बना रही है। यातायात और आवास की समस्याएँ भी कम नहीं हैं; शहरों में ट्रेनें, बसें और मेट्रो तक भीड़ से लबालब हैं। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में ट्रैफिक जाम सालाना 100 घंटे से अधिक समय बर्बाद करता है, जबकि 6.5 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं। फुटपाथों और खाली जमीनों पर अतिक्रमण बढ़ते जा रहे हैं, जो न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं बल्कि शहरी योजना को भी विफल कर रहे हैं। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में भारत का मूल्य 0.685 है, जो 193 देशों में 130वें स्थान पर है, लेकिन यह प्रगति असमान है—शीर्ष 1 प्रतिशत के पास 40 प्रतिशत संपत्ति होने से आम आदमी का जीवन स्तर अभी भी निम्न है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आय में असमानताएँ जनसंख्या वृद्धि से और गहरा रही हैं।
बढ़ती आबादी का समाधान
इन समस्याओं का समाधान केवल सरकारी प्रयासों से संभव नहीं है; सामूहिक जागरूकता और सख्त नीतियों की आवश्यकता है। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 को मजबूत करते हुए, मिशन परिवार विकास जैसे कार्यक्रमों ने गर्भनिरोधक साधनों की उपलब्धता बढ़ाई है, और कुछ राज्यों में दो-बच्चे नीति लागू हो रही है। शिक्षा, विशेषकर लड़कियों की, पर निवेश से टीएफआर घट रहा है, और डिजिटल अभियान जैसे #हुम दो हमारे दो ने जागरूकता फैलाई है। आर्थिक प्रोत्साहन, जैसे छोटे परिवारों को आवास सब्सिडी या ऋण छूट, प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं। साथ ही, अवैध प्रवास पर नियंत्रण और हरित ऊर्जा आधारित स्मार्ट सिटी परियोजनाएँ संसाधनों का बेहतर उपयोग सुनिश्चित करेंगी। लेकिन यह सब तभी सफल होगा जब आम नागरिक स्वयं पहल करें—परिवार नियोजन को अपनाकर, शिक्षा को प्राथमिकता देकर और पर्यावरण संरक्षण में योगदान देकर। यदि जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं हुआ, तो 2047 तक स्वतंत्रता शताब्दी के सपने अधूरे रह जाएँगे, और भारत विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में पहुँचने के बजाय गरीबी-बीमारी के जाल में फँस जाएगा। बढ़ती आबादी वास्तव में देश की बरबादी का प्रतीक है, लेकिन समझदारी से नियोजित प्रयास इसे विकास का अवसर बना सकते हैं। यह समय है कि हम सब मिलकर इस चुनौती का सामना करें, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ एक समृद्ध और संतुलित भारत की विरासत पाएँ।


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