प्रेमचंद के साहित्य में आदर्श और यथार्थ प्रेमचंद, हिंदी साहित्य के अमर रत्न, अपने यथार्थवादी चित्रण और आदर्शवादी दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं। उनकी
प्रेमचंद के साहित्य में आदर्श और यथार्थ
प्रेमचंद, हिंदी साहित्य के अमर रत्न, अपने यथार्थवादी चित्रण और आदर्शवादी दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में यथार्थ और आदर्श का ऐसा समन्वय है जो उन्हें अन्य लेखकों से अलग करता है।प्रेमचंद ने यथार्थ और आदर्श को एक साथ पिरोकर अपनी रचनाओं को अमर बना दिया। उन्होंने यथार्थ को आधार बनाकर आदर्श की बात की। उनकी रचनाओं में यथार्थवादी चित्रण होते हुए भी पाठक को एक सकारात्मक संदेश मिलता है।
बचपन से ही जीवन के यथार्थभोगी, परन्तु आदर्श व्यवहार के प्रतीक -प्रेमचन्द का बचपन एक करुण दृश्य उपस्थित कर देता है, उनकी माँ की मृत्यु के बाद-उनकी सौतेली माँ का घर में आगमन। जैसा कि प्रायः सुना जाता है कि सौतेली माताएँ अपनी सौतेली सन्तानों को माँ का वास्तविक प्यार नहीं दे पातीं, अवश्य ही प्रेमचन्द के साथ भी यही हुआ। ऐसी अवस्था में पिता भी प्रायः अपनी वर्तमान पत्नी के अनुकूल रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं अन्यथा घर में कलह का वातावरण जन्म लेने में देर नहीं लगती। उसके बाद उन्हें पन्द्रह साल की उम्र में एक ऐसी पत्नी की प्राप्ति हुई जो कुरूप तो थी ही, उम्र में भी उनसे बड़ी थी, और वाणी की भी प्रशंसनीय नहीं थी। अपनी सास से न पटने के कारण वह एक बार लड़-झगड़कर मायके गई तो लौटकर ही नहीं आई। प्रेमचन्द भी उसे लेने नहीं गये - और उसने एक परित्यक्ता की तरह मायके में ही जीवन व्यतीत किया।
इसके बाद पिता की मृत्यु ! प्रेमचन्द पर घर-परिवार का बोझ आ गया । उम्र केवल सोलह साल, नवीं कक्षा के छात्र। किसी तरह सौतेली माँ, उनसे उत्पन्न दो भाई तथा बाद में उनके साथ ही रहने आ गये उनकी सौतेली माँ के भाई का भी बोझ उन्होंने उठाया। उन्होंने इसी युग में कर्मठता का पाठ पढ़ा, श्रम और साहस से परिचय प्राप्त किया। ईश्वर ने उन्हें उसी का फल दिया। बचपन में ही जाने कितना साहित्य पढ़ लिया था कि उनके ज्ञान का भण्डार यथार्थ जीवन की कटुताओं के साथ कल्पना के फूल चुन-चुनकर सृजन की देवी की सेवा में जुट गया। इसीलिये कहा गया है कि प्रेमचन्द पुस्तकों की पाठशाला से न आकर साहित्य में जीवन की पाठशाला से आए थे। इस कथन में इतनी ही त्रुटि है कि वह आए तो थे पुस्तकों की पाठशाला से ही, लेकिन उन पुस्तकों की पाठशाला से, जो उन्होंने अपने एक मित्र की तम्बाकू की दुकान पर बैठकर पढ़ी थीं। स्कूल में जो कुछ पढ़ा था उसकी बदौलत उन्हें सरकारी नौकरी जरूर मिल गई थी। अतः उनके जीवन की गति में दोनों पाठशालाओं को उचित मार्ग दिया, परन्तु इस सबकी पृष्ठभूमि था-लमही गाँव, लमही गाँव से बनारस तक की भाग-दौड़ ने, परिवार में उनकी सौतेली माता और अन्य लोगों ने, जिनमें से कभी किसी के प्रति उन्होंने दुर्भाव नहीं रखा।
प्रेमचन्द के लिये यथार्थ ही कर्मक्षेत्र
क्योंकि वह यथार्थ जीवन को कर्म का क्षेत्र मानते थे, जिस क्षेत्र में उन्होंने गरीबी देखी थी। किसानों की पीड़ा, साहूकार के लालचीपन से कई बेईमान जमींदारों के किसान मजदूरों पर अत्याचार होते देखे थे, और वह इस सांसारिक पटल में वह सब कुछ देखना चाहते थे, जो उन्हें आदर्श लगता था। आदर्श के उनके अपने चित्र थे— परिवार के चित्र, गरीबों के सुखी जीवन के चित्र, जाति के सांस्कृतिक आदर्श के चित्र और देश की स्वतन्त्रता के चित्र।
हिन्दू संस्कृति के उच्चादर्शों के पोषक
परन्तु किसी न किसी आदर्श के चित्र तो हर व्यक्ति के मन में होते हैं और चूँकि वह उसके आदर्श के चित्र होते हैं अतः अपने मानसिक स्तर पर वह उन्हें बनाने में भी समर्थ होता है। कुछ कल्पनाओं के सहारे वह उनकी ओर बढ़ता रहता है। फिर भी देखा यही जाता है कि यथार्थ के सामने आदर्श के ऐसे चित्र बनाने वाले लोग घुटने टेक देते हैं । लेखक और कवि के पास तो कल्पनाओं को लिख देने के लिए कलम और कागज भी होते हैं। वह उन्हें कागजों पर ही उतारने की कोशिश करता है। प्रेमचन्द ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टि से अपने युग की सभी समस्याओं और उनके विविध पक्षों को अच्छी तरह से समझा था । अतः उन्होंने अपने मनोमय आदर्श के चित्र उसी यथार्थ से बनाये। उनके सामने हिन्दू-जीवन के उच्चादर्श उपस्थित थे, परन्तु यथार्थ रूप में तत्कालीन हिन्दू जन-जीवन उन आदर्शों से दूर जिन समस्याओं से उलझ रहा था, वह चिन्तनीय थीं। वह उनके विविध पक्षों को काफी निकट से देख चुके थे । अतः वह उन समस्याओं के निदान की चिन्ता में मग्न होकर अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए कलम के आश्रित हो गये ।
प्रेमचन्द का विराट साहित्य क्षेत्र
यह भी माना जाता है कि प्रेमचन्द ने जन-जीवन की समस्याओं का गहन अध्ययन किया था। ऐसा इसलिये कहा गया है कि उनके चित्रण का चित्रपट बहुत विशाल था, समस्त मानव-जीवन और उसके व्यवहारों को समेट लेने की भूख उनमें थीं। यह बात हमें उनकी कहानियों और उपन्यासों के समग्र कलेवर को पढ़ने से मालूम होती है और वह सभी को आदर्श बनाना चाहते थे। शायद हर समाज-सुधारक, समाज के प्रति यही दृष्टिकोण रखता है, राजनीतिज्ञ का भी यही सोच होता है और कवि-साहित्यकार तो अपनी रचनाओं में आदर्श के पंखों पर बेरोक-टोक उड़ता है। कभी वह समाज के यथार्थ और मानव- जीवन के आचार-व्यवहार पर व्यंग्य करके जन-जीवन को चैतन्य करता है, तो कभी दुख प्रकट करता है, तो कभी कुछ अच्छा करने को प्रोत्साहित करता है। इसी प्रकार से धार्मिकता का बोध कराने वाले महात्मा, साधु-सन्तों का हाल है। हम चाहे किसी भी क्षेत्र में चलें, आदर्श स्थापित करने वालों के सोच अपने-अपने होते हैं, परन्तु उनके सोच वास्तविक यथार्थ से पहाड़ों में फैली अनजानी या अनदेखी सांधियों, घाटियों को अपनी ही मानसिक उड़ान से पार करने की कोशिश करते हैं।
वास्तव में वह उन सांधियों और घाटियों के अँधेरे में यथार्थ के वास्तविक दृश्यों को देख ही नहीं पाते, अतः उन्हें वह अपनी कल्पना में देखते हैं, इसलिए कभी भी कोई, सन्त-महात्मा, राजनीतिज्ञ, साहित्यकार, उपदेशक आदि यथार्थ से पीड़ित मानव को आज तक छुटकारा नहीं दिला संका, और न ही उसे कोई उचित मार्ग दिखा सका। यही बात प्रेमचन्द के बारे में भी कह सकते हैं। आदर्शवाद और यथार्थवाद के सिद्धान्त और जो कुछ उनके सामने घटित होता है, उसको बुनियाद तो दी जा सकती है, परन्तु वह बुनियाद मानव-जीवन के वास्तविक व्यवहार को पूरी तरह बदल दे यह सम्भव नहीं दिखाई देता । अतः किसी भी आदर्शवादी या यथार्थवादी की मानसिकता हमें सर्वांग नैतिकता के खरे दृश्य दिखाकर मानव जीवन को उसका अनुसरण करा सके, सम्भव नहीं है, क्योंकि मनुष्य परिस्थितियों की जटिलता पर अपनी व्यक्तिगत मनोमयता से विवश क्या प्रतिक्रिय करता है और उसके बीच से अपना कौन-सा रास्ता अपनाता है, इसको जान पाने का कोई स्वयंसिद्ध सूत्र किसी के पास नहीं है। इसी कारण जितना विराट मानव-जीवन है, उतना ही विशाल उसके व्यवहार की कहानियों और चित्रों का भण्डार है, जो अपनी वृद्धि और फैलाव में न तो कहीं रुकता है और न ही कहीं कम होता है। हाँ, यह तो प्रायः देखा जाता है कि अनेक महात्मा, सन्त, उपदेशक, साहित्यकार, नेता, सुधारक आदि के वचनों से प्रभावित होकर अपने क्रिया-कलाप को प्रभावित कर लेते हैं, परन्तु वह भी अपने वैचारिक रंगों से उसमें अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की छाप लगा लेते हैं, यही' कारण है कि एक गुरु के सभी शिष्य एक जैसे उपदेश और मार्गदर्शन पाकर भी समान भूमि पर नहीं चलते ।
सर्वदा सत्य यथार्थ के दृष्टा और उसके कुप्रभाव के स्वाभाविक सचेतक भी
प्रेमचन्द ने जिस यथार्थ को देखा था, क्या वही यथार्थ आज भी विद्यमान नहीं है ? आज भी समाज में क्या वेश्यायें नहीं हैं? क्या उनकी समस्यायें नहीं हैं? परन्तु उन सभी नारियों को वेश्या बन जाने के स्रोत वही तो नहीं जो संस्कारयुक्त सुमन (सेवासदन) के थे। भोली भी एक वेश्या थी, उसके लिये प्रेमचन्द का आदर्शवाद कौन-सा रास्ता बनाता है, यह प्रेमचन्द स्वयं ही प्रकट नहीं कर सकते हैं। अपनी विमाता के यथार्थ चरित्र में सौतेली माता के स्वभाव को उन्होंने देखा था, परन्तु सौतेली माताओं के स्वभाव को अपने आदर्श की कल्पना से तो वह बदला हुआ देख सकते हैं, परन्तु राम को वनवास देने वाली कैकई तो कभी मर ही नहीं सकती। किसी माता का पति यदि उसकी इच्छा का अनुसरण नहीं करता तो घर में गृहस्थ जीवन ही विषमय हो जायेगा या उसे स्वयं दशरथ की तरह मर जाना पड़ेगा। अतः वह उसे साहित्य में चित्रित करने की क्षमता तो रखते थे, उसे मिटा डालने के उपाय भी बता सकते थे, परन्तु मानव स्वभाव पर उनका क्या वश चलता ?
प्रेमचन्द की आदर्शवादी प्रेरणा
प्रेमचन्द का आदर्शवाद हमें सात्विक प्रवृत्तियों की ओर चलने को प्रेरित करता है, परन्तु परिवार और समाज में ऐसे चरित्र होते हैं जो हमें उनके आदर्शवाद को ग्रहण कर लेने के मार्ग पर चलने से रोक देते हैं या हमारी हत्या तक करने को तत्पर रहते हैं, ऐसे अवरोधों से छुटकारा दिलाने का मार्ग तो कोई भी आदर्शवादी नहीं दिखा सकता। अतः जो भी वह दिखाता है, निश्चय ही एकांगी होता है। मानव-चरित्र ही सात्विक, राजस और तामस प्रवृत्तियों का सम्मिश्रण है, उसी के कर्म का विधान चलता है। प्रेमचन्द ने पहली पत्नी को अस्वीकार किया था, बाद में शिवरानीजी ने उससे पत्र-व्यवहार भी किया था, और उसे अपने पास आ जाने का निमन्त्रण भी दिया था, परन्तु पहली पत्नी का आग्रह था कि यदि स्वयं प्रेमचन्दजी उसे लिवा ले जाएँ तो वह आ जायेगी, किन्तु प्रेमचन्द उसे लिवा लाने को तैयार नहीं हुए। हम उनके इस कारण में उन्हें दोषी मान सकते हैं और नहीं भी मान सकते हैं किसी आदर्शवादी के लिए कर्तव्य-दृष्टि से देखें तो कहेंगे प्रेमचन्द को उन्हें लिवा लाना चाहिए था, परन्तु एक यथार्थवादी व्यवहार-दृष्टि से देखें तो हम उन्हें दोष नहीं दे सकते । वस्तुतः उनके आ जाने (उनके स्वभाव के कारण जिसे उन्होंने देखा और भोगा था) उनकी गृहस्थी उन्हें कौन-सा रूप ले लेती इसका अनुमान उन्होंने किया होगा. इसी कारण वह उन्हें लिवाने नहीं गये, परन्तु उन्होंने यदि वह स्वयं आ जाये तो उसे भी अपनी गृहस्थी में सम्मिलित कर लेने का मार्ग बन्द नहीं किया था। अब इस बात को उनके आदर्श और यथार्थ की सीमाओं में हम जैसे चाहें आबद्ध करें, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार एक आदर्श पत्नी-प्रेमिका का चरित्र अपने स्त्री-पात्रों को दिखा दिया, उस भारतीय नारी के चरित्र की प्रतिष्ठा की है जो सती-सावित्री या अनुसुइया का था। वह उसे त्याग और पतिभक्त या, उसके सदा अनुकूल रहने वाली के रूप में देखना सुखद समझते थे । यहाँ आकर वह अपनी सत्पथ से गिरी हुई पत्नियों को सद्राह पर लाना नहीं भूलते। 'सेवासदन' में भी 'सुमन' का चरित इसका उदाहरण है। पद्मसिंह की पत्नी, आदि का भी चरित यही है ।
प्रायः वेश्याचरित-सम्बन्धी यह एक यथार्थ है कि अपने चंगुल में आई हुई किसी नई लड़की को वेश्या व्यापार में संलिप्त वेश्यायें आसानी ने छुटकारा नहीं पाने देतीं, यहाँ भोली का न तो उपरोक्त वेश्या व्यवहार ही दिखाया गया है और न उसको एक उदार वेश्या के रूप में ही चित्रित किया गया है। वास्तव में कथानक की गति में इस यथार्थ को नजरन्दाज करना अखरता है। इसी प्रकार के यथार्थ और आदर्श के बीच पात्रों के चारित्रिक आरोह-अवरोह में असंगतियाँ और भी हैं। वास्तविक बात यह है कि प्रेमचन्द आदर्शवाद से इतने आप्लावित हैं कि सहज यथार्थ उसका सहसा आच्छादन कर देते दिखाई देते हैं । सदन, पद्मसिंह, गजाधरं, कृष्णचन्द्र आदि कोई भी चरित्र उनकी इस निर्बलता से अछूता नहीं है। अन्य औपन्यासिक कृतियों में भी उनकी निर्बलता सामने आती है। उनकी यह निर्बलता एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रास्ते पर बढ़कर आदर्श चरित्र प्राप्त करने से उनके पात्रों को रोक देती है। इसी कारण उनका आदर्शवाद उतना प्रभावी नहीं हो पाता, जितना प्रभावी वे उसे बना सकते थे ।
प्रेमचन्द की दृष्टि में श्रेष्ठ उपन्यास
एक स्थान पर स्वयं प्रेमचन्द ने लिखा है कि उपन्यास वही श्रेष्ठ समझे जाते हैं जिनमें आदर्श और यथार्थ का समन्वय हो गया हो। इस बात से ऐसा तो ज्ञात होता है कि वह आदर्शवाद और यथार्थवाद के समन्वय की उपादेयता नहीं मानते थे, परन्तु उनके उपन्यासों का सूक्ष्म अध्ययन यह प्रमाणित करता नहीं दिखाई देता कि वह आदर्शवाद और यथार्थवाद का सन्तुलित समन्वय करने में सफल रहे हैं। सम्भवतः इसीलिये सुरेश सिन्हा ने लिखा है-"उन्होंने अपनी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से अपने युग की सभी समस्याओं और उनके विविध पक्षों को अच्छी तरह से समझा था, किन्तु उन्होंने अपने युग और समाज को यथार्थवादी दृष्टि से नहीं देखा था। उनमें तटस्थता का पूर्ण अभाव है। उन्होंने समाज की विशेषताओं को भी देखा था और उसकी विकृतियों को भी अच्छी तरह से देखा था, पर उनमें उस संकुचित दृष्टि एवं निःसंगता का अभाव मिलता है जो यथार्थवादी उपन्यासकार के लिए आवश्यक होती हैं, जो 'तुर्गनेव' के उपन्यासों में, 'शोलोतीव' के 'दीन' उपन्यास में या गोर्की के 'आर्टमनोव', 'फोमा गार्टमेन' आदि उपन्यासों में परिलक्षित होती है।' प्रेमचन्द के उपन्यासों में यह बात साफ तौर पर दिखाई देती है कि उन्होंने अपने आदर्श को स्थापित करने के लिये यथार्थ का उपयोग सप्रयास किया है, इसी कारण उनके कथानकों में प्रधान कथावस्तु के साथ अनेक उपकथायें इस ढंग से चलती हैं जिनका मूल कथा से केवल सांसर्गिक सम्बन्ध है, विषयवस्तु की दृष्टि से वे आवश्यक भी प्रतीत होती हैं। जिस प्रकार उन्होंने सत्-असत् की व्याख्या की है, वह उनके यथार्थवाद को फीका कर देती है। ऐसा अवश्य ही उनके द्वारा आदर्श भारतीय परम्पराओं का सम्मान करने के कारण हुआ है, जिस पर आलोचक ध्यान नहीं देते।
प्रेमचन्द का आदर्शवादी यथार्थ
प्रेमचन्द द्वारा आदर्शवाद को उभारने के लिये यथार्थ जीवन से पात्रों को चुनने के बावजूद संयोग तत्वों से उन्हें जोड़ देने के कारण कथा-विन्यास में उनका प्रयोग यान्त्रिकता के दर्शन कराता है। 'सेवासदन' में गजाधर द्वारा सुमन को घर से निकाल देना, उसे फिर पद्मसिंह द्वारा भी निकलवा देना, निश्चित रूप से उसे भोली के आश्रय में भेजकर वेश्या बना देने के लिये है। 'निर्मला' में उदयभानुलाल का घर से झगड़ा कर निकलना, लगता है जैसे उन्हें मृत्यु का ग्रास बना देने को ही है, ताकि निर्मला का अनमेल विवाह हो । 'रंगभूमि' में सोफिया का माँ से झगड़ा कर निकल जाना उसे राजा भरतसिंह के यहाँ पहुँचाने के लिये ही किया गया प्रतीत होता है। 'गबन' में रमानाथ को भी संयोगों में बाँधकर 'गबन' करने की स्थिति में लाया गया है। 'वरदान' में कमलाचरण का ट्रेन से कूदकर मरना, 'प्रतिज्ञा' में बसन्त कुमार का गंगा में डूबकर मरना, 'सेवासदन' में आजीवन ईमानदार रहे एक थानेदार को, जिसका चरित्र उज्ज्वल था, और जो अपनी विवाह योग्य होती हुई पुत्रियों के दहेज की चिन्ता करते हुए तथा अपनी पदानुकूल सामाजिक प्रतिष्ठा की चिन्ता करते हुए, अपनी बेटी के दहेज के लिए रिश्वत लेकर जेल भिजवाना, सुमन को वेश्यालय की ओर धकेलने का प्रबन्ध करने के लिए ही तो होता है। इन बातों से लगता है कि उन्होंने सामाजिक जीवन के उन कठिन यथार्थों को उतनी गहराई से नहीं समझा था, जिनका सामना करके मनुष्य परिस्थितियों के चक्र से कुछ न कुछ हो जाता है। 'प्रेमाश्रम' में गायत्री, मनोहर और ज्ञानशंकर की आत्महत्याएँ, ‘रंगभूमि' में सूरदास की मृत्यु, विनय और सोफिया की आत्महत्या, 'गबन' में जोहरा की मृत्यु पात्रों की गति को न सँभाल पाने के कारण ही हुई है।
अतः यह तो प्रतीत होता है कि प्रेमचन्द आदर्श और यथार्थ का समुचित संतुलन अपनी औपन्यासिक कथाओं में नहीं रख सके हैं, परन्तु हम यदि उन्हें एक उपन्यासकार के रूप में यह छूट दे दें कि वह अपनी मनोमय कल्पना को संयोगों द्वारा मूर्त रूप दे सकता है तो उनका यथार्थ आदर्शोन्मुख हो जाता है, अतः वह जो स्थापित करने का मार्ग-निर्देश करते हैं या वर्तमान यथार्थ को अपने आदर्श के अनुकूल यथार्थ रूप में देखना चाहते हैं तो हम उन्हें यह दोष नहीं दे सकते कि वह यथार्थ और आदर्श नहीं रख सके हैं।
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