प्रेमचंद की उपन्यास कला की समीक्षा

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प्रेमचंद की उपन्यास कला की समीक्षा

 
प्रेमचंद की उपन्यास कला हिंदी साहित्य प्रेमचन्द हिंदी उपन्यास में प्रेमचंद का योगदान प्रेमचंद हिंदी उपन्यास उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद Premchand aur Hindi upanyas - प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय जीवन और समाज का विस्तृत चित्रण हुआ है। प्रायः भारतीय समाज की कोई भी प्रवृत्ति अछूती नहीं रही। अन्य किसी उपन्यासकार में भारतीय समाज और भारतीय जीवन का ऐसा व्यापक चित्रण नहीं मिलता है। उनके उपन्यासों में समाज के प्रत्येक वर्ग के जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। 

देशकाल और वातावरण

तत्कालीन राजनितिक संघर्ष और स्वतंत्रता आन्दोलन की घटनाओं से उनके उपन्यास भरे पड़े हैं। अहिंसावादी जन आन्दोलन ,मजदूर आन्दोलन उग्रवादियों के आतंकवादी कार्य आदि का व्यापक चित्रण उनके उपन्यासों में हुआ है। देशोन्नति और समाज सुधार की धारा प्रायः प्रत्येक उपन्यास में प्रवाहित हुई है। इन सबके ऊपर शोषक और शोषित वर्ग का संघर्ष उभरकर ऊपर आ गया है। 

वातावरण की सजीवता प्रदान करने के लिए प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में प्रकृति के भी अनेक सुन्दर चित्र प्रस्तुत किये हैं। प्रेमचंद ने प्रकृति के अलंकृत चित्र बड़े कौशल से प्रस्तुत किये हैं। वर्ष ऋतू और उसके पड़े हुए झूलों का एक चित्र देखिये - 

'बरसात के दिन है ,सावन का महिना आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई है। रहकर रिमझिम वर्षा हो रही है। अभी तीसरा पहर है ,ऐसा मालूम हो रहा है ,शाम हो गयी है। आमों के बागों में झूला पड़ा है। लड़कियां भी झूल रही है और उनकी माताएँ भी। दो चार झूल रही है ,दो चार झुला रही है। कोई कजली गाने लगती है। कोई बारहमासी। इस ऋतू में महिलाओं की बाल स्मृतियों में झूम रही है। 


प्रेमचंद की भाषा शैली

प्रेमचंद जी की भाषा शैली पर उर्दू का अच्छा प्रभाव है। बात यह है कि वे उर्दू से ही हिंदी की ओर आये। उनकी शैली परिमार्जित और स्वाभाविक है। हिंदी और उर्दू के प्रभाव से उन्होंने जिस समन्वय को स्थिर किया है। वह वर्तमान हिंदी गद्य की एक विशेषता बन गया है। 

प्रेमचंद की उपन्यास कला की समीक्षा
प्रेमचंद की शैली की नाटकीयता है। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग से भाषा में प्रवाहत्मकता आ गयी है। कहीं कहीं एक ही वाक्य में मुहावरों और सूक्ति का समन्वय सौन्दर्य की सृष्टि करता है। प्रेमचंद की शैली में हास्य और व्यंग का पुट भी मिलता है। प्रेमचंद का व्यंग तीखा होता था। 

प्रेमचंद का भाषा पर ऐसा अधिकार था कि वे बड़ी सहजता से कठिन से कठिन और सूक्ष्म भाव को व्यक्त कर देते थे। उनके शब्द चित्रात्मकता की सृष्टि करते हैं। एक भाषा का उदाहरण लीजिये - 

मानव चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत उसमें दोनों ही रंगों का विभिन्न परिणाम होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषि तुल्य हो जाता है ,प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौना मात्र है। "
प्रेमचंद के उपन्यासों में सामान्य रूप से वर्णात्मक और भावात्मक दो शैलिओं का प्रयोग हुआ है। परन्तु कहीं कहीं पर विचारात्मक शैली भी मिल जाती है। 

प्रेमचंद जी अपनी भाषा शैली के निर्माता थे। उनकी भाषा शैली प्रेमचंद भाषा शैली कहलाती है ,जिसमें भाषा का अत्यंत उभरा और व्यावहारिक रूप मिलता है। उनकी भाषा का प्रतिनिधि रूप इस प्रकार की भाषा शैली में मिलता है।  एक उदाहरण लीजिये - 

'यह सोचता हुआ वह अपने द्वार पर आया। बहुत ही सामान्य झोपड़ी थी। द्वार पर एक नीम का हरा वृक्ष था ,किवाड़ों की जगह बाँस की टहनियों की एक टट्टी लगी हुई थी। टट्टी हटाई। कमर से पैसों की छोटी पोटली निकाली ,जो आजदिनभर की कमाई थी। झोपड़ी की छत में से टटोलकर एक थैली निकाली ,जो उसने जीवन की सर्वस्व थी ,उसमें पैसों की पोटली बहुत धीरे से रक्खी ,जिससे किसी को कान में भनक न पड़े। "

प्रेमचंद के उपन्यासों का उद्देश्य 

प्रेमचंद कला को जीवन एवं लोकहित के लिए मानते थे। उनके उपन्यास सौद्देश्य है। उन्होंने उपन्यास नामक निबंध में लिखा - 
'साहित्य का सबसे ऊँचा आदर्श यह है कि उसकी रचना केवल कला की पूर्ति के लिए न की जाए। 'कला - कला ' के लिए के सिद्धांत पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है। वह साहित्य चिरायु हो सकता है ,जो मनुष्य की मौलिक प्रवृत्तियों पर अवलंबित हो। ईर्ष्या और प्रेम ,क्रोध और लोभ ,भक्ति और विराग ,दुःख और लज्जा से सभी हमारी मौलिक प्रवृत्तियां हैं। इन्ही की छटा दिलाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती है। "

प्रेमचंद जी साहित्य की सिद्धि इसी से मानते हैं कि वह देश ,जाति और समाज के कल्याण का माध्यम बने। प्रेमचंद के प्रत्येक उपन्यास में कोई न कोई व्यापक उद्देश्य है। वरदान में प्रेम या कर्तव्य की विजय दिखाई गयी है। प्रतिज्ञा में विधवाओं को सामाजिक त्रास से मुक्त करने का संकल्प है। सेवा सदन में वैश्या का उद्धार करने की व्यवस्था की गयी है। प्रेमाश्रम ,कर्मभूमि ,रंगभूमि और गोदान में मनुष्य के कष्ट ,मनुष्य के शोषण का विरोध किया गया। कर्मभूमि और रंगभूमि में राजनितिक परतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता से विद्रोह व्यक्त हुआ है। प्रेमचंद पर उपदेशक या प्रचारक होने का आरोप लगता है। अपने पर लगाये गए आरोपों पर उत्तर देते हुए प्रेमचंद जी ने कहा था - 

'सभी लेखक कोई न कोई प्रोपेगंडा करते हैं - सामाजिक ,नैतिक या बौद्धिक अगर प्रोपेगंडा न हो ,तो संसार में साहित्य की जरुरत न पड़े और जो प्रोपेगंडा नहीं सकता है ,वह विचार शून्य है और कलम हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है। "

प्रेमचंद जी उच्च आदर्श की प्रतिष्ठा के लिए उपदेशक होना बुरा नहीं मानते हैं। गोदान तो प्रेमचंद की समाज और साहित्य साधना का चरमबिन्दु है। "

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्रेमचंद जी हिंदी के युग प्रवर्तक अमर कलाकार थे। उनका दृष्टिकोण निर्माणपरक था।


विडियो के रूप में देखें - 




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