प्रयोगवादी काव्य के आलोक में धर्मवीर भारती के काव्य का मूल्यांकन धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। उनके काव्य में प्रयोगवाद की
प्रयोगवादी काव्य के आलोक में धर्मवीर भारती के काव्य का मूल्यांकन
धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। उनके काव्य में प्रयोगवाद की स्पष्ट झलक मिलती है। प्रयोगवाद का तात्पर्य है साहित्यिक रचनाओं में नए-नए प्रयोग करना, भाषा और शैली में नवीनता लाना। भारती जी ने अपने काव्य में इसी प्रयोगवाद को अपनाकर हिंदी कविता को एक नई दिशा दी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जब प्रगतिवाद पूर्ण रूप से साम्यवादी खेमे में आ गया तो हिन्दी के कुछ उत्साही नये कवियों ने सन् 1943 में 'तार सप्तक' नाम से एक काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। अज्ञेय के सम्पादन में प्रकाशित इस संग्रह में घोषणा की गयी-"प्रयोग सभी कालों में कवियों ने किये हैं। यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है, परन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी छुआ नहीं गया है या अभेद मान लिया गया है।" सम्पादक ने इस संग्रह में प्रकाशित सभी सात कवियों को 'राहों के अन्वेषी' कहा। इस 'प्रयोग' शब्द के कारण समालोचकों ने इस धारा के काव्य को 'प्रयोगवाद' और कवियों को 'प्रयोगवादी' कहकर पुकारना शुरू कर दिया।
इस संग्रह के बाद सन् 1947 में अज्ञेय के ही सम्पादन में प्रकाशित मासिक 'प्रतीक' में कवियों ने अपनी कविताओं को प्रयोगवादी कहकर इस प्रचलित धारणा को बल प्रदान किया। सन् 1951 में 'दूसरा सप्तक' प्रकाश में आया, डॉ. धर्मवीर भारती इसमें संग्रहीत थे। इस संग्रह में जिन कवियों की कविताएँ संकलित थीं, उन्होंने भी अपने वक्तव्यों में प्रयोगों की महत्ता को स्वीकार किया। परन्तु कालान्तर में इन कवियों (अज्ञेय इनमें प्रमुख थे) ने अपनी कविता को प्रयोगवादी कहना उचित नहीं समझा और उन्हें 'प्रयोगशील' की संज्ञा दी गयी। प्रायः सर्वमान्य धारणा यही रही है कि 'प्रयोगवाद' अथवा 'प्रयोगशील' काव्यधारा के प्रवर्त्तक अज्ञेय ही हैं। कुछ समालोचक पंत और निराला को ही प्रवर्त्तक मानते हैं।
'प्रयोगवाद' शब्द का विरोध करते हुए अज्ञेय ने 'दूसरा सप्तक' की भूमिका में लिखा है-"प्रयोग का कोई वाद नहीं है। हम वादी न ही रहे, न ही हैं। प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है। ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है। कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना ।"
प्रयोगवाद छायावाद तथा प्रगतिवाद की कुछ मान्यताओं के विरोध में उठ खड़ा हुआ आन्दोलन है। छायावादी मांसल सौन्दर्य और प्रगतिवाद के व्यष्टि का समष्टि में तिरोहित होना ही इस विरोध का मूल आधार है। अज्ञेय ने प्रयोगवाद का विरोध करते हुए प्रगतिशील शब्द अनेक बार व्यवहृत किया है।
डॉ. धर्मवीर भारती प्रयोगवादी कविताओं के सृजन को द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका से सम्बद्ध मानवीय संकट और मानवीय विघटन से उद्भूत मानते हुए लिखते हैं- "विज्ञान की इस परिणति ने एक अजीब-सी विषम स्थिति ला दी है। इस सारे अभियन्ता का केन्द्रबिन्दु था मनुष्य और वह एक विचित्र शून्यता में परिवर्तित हो गया है इसके लिए मूल्य-निर्धारण की कसौटी क्या ? उसकी यह विकास-यात्रा हो किसलिए रही है? इसके लिए विज्ञान के पास कोई साधन नहीं था। अभी तक जो तत्व मनुष्यों को पशुओं से पृथक करते थे, यानी उसकी विवेकपूर्ण संकल्प-शक्ति, उसकी नैतिक चेतना, उन दोनों ने विज्ञान को अमान्य सिद्ध कर दिया। परिणाम यह था कि हम सारे मूल्यों का अवमूल्यन पाते हैं- एक विराट् अराजकता, एक घातक अंधकारमय शून्य। मूल्यों के इस विघटन ने कैंसर की तरह मानवीयता को अंदर से खोखला बनाना शुरू कर दिया। प्रकृति पर ज्यों-ज्यों विजय प्राप्त हुई मनुष्य त्यों-त्यों अपने को हारता गया। इसके पहले कि विज्ञान और दर्शन इस संकट का अनुभव करते साहित्य ने इस संकट का एहसास कर लिया था।"
डॉ. शिवकुमार मिश्र डॉ. भारती को प्रयोगवादी कवियों में एक विशिष्ट स्थान का अधिकारी प्रमाणित करते हुए कहते हैं-"जहाँ तक धर्मवीर भारती का प्रश्न है, अज्ञेय के बाद प्रयोगवाद के सर्वप्रमुख कवि के रूप में वे प्रारम्भ से ही मान्यता प्राप्त करते रहे हैं। उनके प्रारम्भिक रूमानी रुझानों को छोड़ भी दें तो 'सात गीत वर्ष' संग्रह की अनेक रचनाएँ प्रयोगवादी दृष्टि के साँचे में ढली वस्तु का ही बोध कराती हैं।" इसी प्रकार आधुनिक समय के प्रखर कवि तथा आलोचक गिरिजाकुमार माथुर 'नई कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ' के अन्तर्गत लिखते हैं-"आधुनिक प्रवृत्ति के दूसरे उन्मेष में वर्तमान पीढ़ी का ऐतिहासिक संताप तथा विघटित मूल्यों के संदर्भ में व्यापक सांस्कृतिक संक्रमण का सबसे प्रखर स्वर धर्मवीर भारती के कृतित्व में है जो 'पराजित पीढ़ी के गीत' से लेकर 'अन्धा युग', 'कनुप्रिया', 'सृष्टि का आखिरी आदमी' और 'सम्पाति' तक उत्तरोत्तर समृद्ध हुआ है! भारती में अन्तर्सत्य और वस्तु-सत्ता का ऐसा कलात्मक सामंजस्य है जो उन्हें दूसरे चरण के कृतिकारों से अलग पीठिका पर प्रतिष्ठित कर देता है।"
उपर्युक्त कथनों के संदर्भ में जब प्रयोगवादी काव्य-प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हैं तो निम्नलिखित प्रवृत्तियों को धर्मवीर भारती के काव्य में पाते हैं -
अहंवाद
प्रयोगवादी काव्यधारा में अहं की भावना अत्यन्त विकसित रूप में विद्यमान है। अज्ञेय के 'त्रिशंकु' में अहं की भावना अपने प्रखर रूप में स्थित है। डॉ. भारती का काव्य भी इससे कम ग्रस्त नहीं है। उनके काव्य में व्यक्ति या उसके अहं की इस अभिव्यक्ति को अनेक आवरणों में देखा जा सकता है। वह जब 'टूटा पहिया कविता में अभिमन्यु के पहिए का प्रतीक रूप में ग्रहण कर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं तो वास्तव में अपने 'व्यक्ति' की गुरुता और उसके महत्व का प्रतिपादन ही करते हैं-
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ,
लेकिन मुझे फेंको मत।
'अन्धा युग' गीति नाट्य का पात्र अश्वत्थामा भी इस अहं भावना से ग्रस्त है। वह अपने व्यक्तित्व के अलावा किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता। वह अपने अहं की रक्षा के लिए बर्बर पशु बनने को भी तत्पर हो उठता है-
किन्तु नहीं !
जीवित रहूँगा मैं
अन्धे बर्बर पशु-सा ।
अनास्थावादिता
जिन परिस्थितियों तथा प्ररेणाओं ने प्रयोगवादी को अहंवादी बनाया, उन्हीं ने उसे युग-जीवन के प्रति एक अनास्थामय दृष्टिकोण भी दिया। इस अनास्था ने ही उन्हें शंकालु बना दिया। सामाजिक पथ पर जब भी उसके पग उठने को तत्पर हुए, उसका शंकालु मन जैसे उनकी गति को बींध देता रहा। भारती जी की 'जिज्ञासा' कविता में इस अनास्था और तज्जन्य शंका को देखा जा सकता है-
कूड़े सा हमको तज कर तट के पास
मंथर गति से बढ़ जायेगा इतिहास सामूहिकता भी केवल
साबित होगी जिस दिन छल
अपनी वैयक्तिकता हार क्या पायेंगे प्रभु, हम क्या पायेंगे।
कवि के समक्ष इसके अतिरिक्त कोई मार्ग ही शेष न रहा कि अपनी टूटी हुई आस्था को लिए हुए अथवा उसके टूटने की शंका से व्याकुल किन्हीं अदृश्य चरणों में वह अपने को सौंपकर संतोष का अनुभव कर सके-
जिस दिन अपनी हर आस्था तिनके सी टूटे
जिस दिन अपने अंतरतम के विश्वास सभी निकलें झूठे । उस दिन होंगे वे कौन चरण
जिसमें इस लक्ष्य भ्रष्ट मन को मिल पावेगी अंत में शरण ।
'अन्धा युग' गीति नाट्य में यह अनास्थावादिता और शंका कई स्थानों पर देखी जा सकती है। यहाँ तक कि जीवन भर आस्थावादी रहने के बाद अंत में युयुत्सु और विदुर तक अनास्थावादी बन जाते हैं। युयुत्सु की अनास्थावादिता इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से मुखर हुई है-
आस्था नामक यह घिसा हुआ सिक्का
अब मिला अश्वत्थामा को
जिसे नकली और खोटा समझकर मैं
कूड़े पर फेंक चुका हूँ वर्षों पहले!
नैराश्य, कुण्ठा और घुटन
प्रयोगवादी काव्य में नैराश्य, कुण्ठा और घुटन की भी व्यापक अभिव्यक्ति हुई है। कवि की एकांत व्यक्तिवादिता, आत्मलीनता और सामाजिक विषमताओं से एकाकी ही संघर्ष करने से प्राप्त असफलता ही इसका कारण है। मानव मूल्यों के विघटन से उद्भूत सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक संघर्ष और वैयक्तिक स्वतन्त्रता की माँग व शून्य हृदयों की चीखों पुकारों ने प्रयोगवादी कवि को निराशा और अवसाद के सघन घन में लपेट लिया। निराशाजन्य अनुभूतियाँ ही उसके पास व्यक्त करने को शेष रह गयी हैं। डॉ. भारती के काव्य में इस मनःस्थिति का ही चित्रण 'ठण्डा लोहा कविता में हुआ है-
ऐसा लगता आज कि मेरा सारा जीवन नष्ट,
ऐसा लगता आज कि मेरी सभी साधना भ्रष्ट
मैंने हरदम घोंटा, अपने सपनों का सच !
नैराश्यजन्य कुण्ठा ने कवि के मन में जिस वेदना को जाग्रत किया है वह उसे झकझोर देती है। वह अपने जीवन को नदी तल की रेत मानता है जो कभी भी बह सकती है। 'सात गीत वर्ष' से एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
मैं हूँ नदी तल की रेत
अर्पित हूँ
लेकिन किसी भी क्षण पाँवों तले से
बह जाऊँगी।
मनुष्य मन से वृद्ध हो चला है। युवा मन में यह वृद्धता बोध उसके नैराश्य का ही सूचक है। इसका प्रमुख कारण है उसका मानसिक क्लेश, जिसकी घनीभूत कालिमा ने उसे असमय ही वृद्ध जर्जर बना दिया है-
तुम लिखती हो
इस नयी उम्र में जाने कैसा
असमय जर्जर वृद्धपन
इस तन-मन पर बूढ़े मुर्दा अजगर सा बैठ जाता है।
अन्धा युग' काव्य-नाटक में भी यह नैराश्य भावना अत्यन्त प्रखर रूप में उजागर हुई है। यहाँ कवि यथार्थ के प्रति भीरु और उदासीन दिखाई देता है-
हम सबके मन में गहरा उतर गया है युग अँधियारा है, अश्वत्थामा है, संजय है,
है दास-वृत्ति उन दोनों वृद्ध प्रहरियों की
अन्धा संशय है, लज्जाजनक पराजय है।
आस्था और विश्वास
प्रयोगवादी कवि जहाँ एक ओर अनास्थावादी और शंकालु है वहीं दूसरी ओर उसमें आस्था और विश्वास भी गहन स्तरों पर मिलता है। धर्मवीर भारती में आस्था और अनास्था का गहन द्वन्द्व विद्यमान है। उनका स्वर अनास्थावादी होते हुए भी आस्थावादी है। उनमें एक ऊर्ध्व चेतनायुक्त विश्वास है। 'अन्धा युग के सभी अनास्थावादी पात्रों की अन्तिम परिणति आस्था और विश्वास में ही हुई है। अश्वत्थामा के इस कथन में उसकी आस्थावादिता और विश्वास ही स्पष्ट हो रहे हैं -
यह जो अनुभूति मिली है
क्या यह आस्था है?
इसी प्रकार 'संक्रान्ति' की निम्न पंक्तियों में भी इस आस्था के दर्शन किए जा सकते हैं-
ठहरो, ठहरो, ठहरो, ठहरो हम आते हैं
हम नयी चेतना के बढ़ते अभिराम चरण
हम मिट्टी की अपराजित गतिमय संतानें
हम अभिशापों से मुक्त करेंगे कवि का मन ।
लघुमानववाद और निरीहता
अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कवियों ने अनेक स्थानों पर अपनी लघुता एवं निरीहता का बड़े ही मार्मिक शब्दों में उल्लेख किया है। डॉ. भारती के काव्य में भी यह लघुता और निरीहता बड़े प्रभावोत्पादक ढंग से व्यक्त हुई है। 'ठण्डा लोहा' काव्य से एक उदाहरण प्रस्तुत है-
यह महाकाल के जबड़े जैसा अँधियारा
मैं इसमें घुट मर जाऊँगा
कोई मुझको छुटकारा दो
कोई मुझको.......
यही निरीहता कई स्थलों पर अपने पापों और अपराधों की स्वीकृति के रूप में भी व्यक्त हुई है-
हम सबके दामन पर है दाग,
हम सबकी आत्मा में झूठ
हम सबके माथे पर शर्म
हम सबके हाथों टूटी तलवारों की मूठ ।
भोगवाद
अतृप्त वासनाओं, यौन विकृतियों और अपनी भोगी प्रवृत्ति की तुष्टि भी प्रयोगवादी काव्य की एक विशेषता है। यौन-भावना कहीं अपनी सीमा का अतिक्रमण कर अश्लीलता को न छू ले, इसके लिए कवियों ने विविध प्रतीकों का आश्रय लिया है। डॉ. भारती के काव्य (दूसरा सप्तक) में इस अतृप्त वासना की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है-
जिस दिन ये तुमने फूल बिखेरे माथे पर
अपने तुलसी दल पावन होठों से,
मैं महज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीष छुपा,
चिड़ियों के सहमे बच्चे सा हो गया मूक।
प्रतीकों के माध्यम से अपनी यौन-भावना को भारती जी ने 'ठण्डा लोहा' में इस प्रकार व्यक्त किया है -
मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत,
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद ।
प्रयोगवादी काव्य में कई स्थलों पर भदेस चित्रण भी हुआ है किन्तु डॉ. भारती की कविताओं में हम इसे प्रायः नहीं पाते।
प्रकृति चित्रण
प्रयोगवाद में मात्र मानसिक उलझनों का ही चित्रण नहीं है बल्कि उसकी दृष्टि प्रकृति की ओर भी गयी है। डॉ. भारती ने भी प्रकृति का अत्यन्त भव्य-चित्रण अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। 'सात गीत वर्ष' में साँझ एक ऐसी लड़की है जो अत्यधिक थकी हुई है और कवि के निकट सुस्ताने के लिए आकर बैठ गयी है -
नींद भरी, तरलायित, बड़ी, कटावदार आँखें मूँद
शाम- एक सफर में थकी हुई लड़की-सी
आयी और मेरे पास बैठ गई।
यथार्थ चित्रण
प्रयोगवादी काव्य अति यथार्थवाद का आग्रही है। इससे नैतिक तथा सौन्दर्य सम्बन्धी मूल्यों का अतिक्रमण हुआ है। अज्ञेय के साथ ही डॉ. भारती के काव्य में भी यथार्थ चित्रण के दर्शन किये जा सकते हैं। 'सात गीत वर्ष' से एक उदाहरण प्रस्तुत है -
खामोशी छाती है
एक लहर आती है
सहसा दो नीरव होठों की सार्थकता दो कँपते होठों तक आने में रह जाती है।
मानवीय विघटन
यूरोप की सभ्यता और संस्कृति का विघटन जिस तेजी से हो रहा था, उसका प्रभाव उनके काव्य पर भी पड़ा। इलियट के 'होलोमैन', 'वेस्टलैंड' और 'मर्डर इन कैथेड्रल' में उन विघटनशील मान्यताओं को मार्मिक रूप में चित्रित किया गया है। प्रयोगवाद में भी इसका चित्रण प्राप्त होता है। डॉ. धर्मवीर भारती के 'अन्धा युग' पर तो इलियट की इन कृतियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। साथ ही 'ईडेन की अँधियारी गली' का प्रभाव भी 'अन्धा युग' में देखा जा सकता है। अन्धा युग' में इस विघटन को इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
उस दिन जो अन्धा युग अवतरित हुआ जग पर
बीतता नहीं रह-रह कर दोहराता है हर क्षण होती हैं
प्रभु की मृत्यु कहीं न कहीं हर क्षण अँधियारा गहरा होता जाता है
हम सबके मन में गहरा उतर गया है युग अँधियारा है, अश्वत्थामा है, संजय है
है दासवृत्ति; उन दोनों वृद्ध प्रहरियों की
अन्धा संशय है, लज्जाजनक पराजय है।
नव्य बिम्ब विधान
प्रयोगवादी काव्य में अत्यन्त सुंदर बिम्बों की अवतारणा की गयी है। डॉ. भारती के काव्य में भी पौराणिक, मनोवैज्ञानिक, प्रकृति एवं व्यक्ति बिम्ब अधिकता में मिलते हैं। 'दूसरा सप्तक' से पौराणिक बिम्ब का एक उदाहरण प्रस्तुत है जिसमें कवि अपने चुम्बन का बिम्बीकरण भागवत पर रखी बाँसुरी से करता है-
रख दिए तुमने नजर में बादलों को साध कर,
आज माथे पर, सरल संगीत से निर्मित अधर,
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर ।
नवीन प्रतीक योजना
प्रतीक योजना के क्षेत्र में प्रयोगवादी कवियों ने अपनी नवीनता का परिचय दिया है। डॉ. भारती ने बौद्धिक चेतना को पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से अत्यधिक सशक्त रूप में व्यक्त किया है। यथार्थ का समग्र रूप में प्रस्तुत करने के लिए भी उन्होंने प्रतीकों का आश्रय लिया है -
सुनते हैं तुम किसी अवतार में कछुए
अपनी इस वज्रोपम पीठ पर
तुमने यह धरती टिकायी थी ।
डॉ. भारती का 'अन्धा युग' तो पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक रचना है, जिसका प्रत्येक पात्र किसी-न-किसी प्रतीक का द्योतक है। इस प्रकार भारती जी के काव्य में प्रयोगवाद की प्रायः सभी प्रवृत्तियाँ प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर उन्हें एक प्रमुख प्रयोगशील कवि कहा जा सकता है।
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