प्यार के लिए वक्त है कम | राया सरकार की कहानी

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प्यार के लिए वक्त है कम वह चैत्र का सुबह। मैंने उठकर हाथ-मुॅंह धोये। फिर हाॅल रूम में आकर बैठने के बाद, एक तिरछी नज़र रसोईघर के तरफ दौड़ाई। रसोईघर म

प्यार के लिए वक्त है कम

ह चैत्र का सुबह। 

मैंने उठकर हाथ-मुॅंह धोये। फिर हाॅल रूम में आकर बैठने के बाद, एक तिरछी नज़र रसोईघर के तरफ दौड़ाई। रसोईघर में माँ हमेशा की तरह पसीने से लथपथ, हमारे भोजन का इंतज़ाम कर रही थी। 

पर मेरी खुदगर्ज़ ऑंखें बाबा की तलाश करने लगती हैं… … … … 

तभी मैं माँ से पूॅंछ बैठती हूँ -

“बाबा कहा हैं?”

और माँ का हमेशा की तरह एक-सा जवाब -

“बाहर गए हैं।”

मेरे चंचल मन से आगे पूॅंछने पर -

“बाहर कहा गए हैं?”

माँ का ऊॅंचे स्वर से कहना -

“वह मुझे कभी बोलकर थोड़े ही जाते हैं!”

और माँ के इस अंतिम वाक्य ने मेरे अंदर के सवालों पर अंकुश लगा दिया। 

ब्रेकफास्ट करने के बाद मैं पढ़ने बैठ गयी। पढ़ते-पढ़ते मुझे याद आया कि मेरी परीक्षा नज़दीक में हैं इसीलिए किताबों से दोस्ती करना ज़रूरी समझी।

अचानक दरवाजे़ पर आवाज़ होती है, मैं किताबें बंद करके (क्योंकि यह कहा जाता है कि पढ़ने के अंतराल में किताबें बंद नहीं करने से विद्या उड़ जाती है) दरवाज़े के सामने जैसे ही जाती हूँ, माँ दौड़ती हुई मेरे पीछे से आकर दरवाज़ा खोल देती है। दरवाज़ा खोलने पर बाबा दिखाई देते है। मेरी खुशी का तो ठिकाना नहीं रहता। 

आज भी जब बाबा काम से लौटकर घर आते हैं, मैं उनके हाथों पर ही नज़र गड़ाए हुए रहती हूँ। 

मेरी प्रतिक्षा यहीं रहती हैं कि बाबा मेरे लिए कुछ तोहफा लाये, पर हमेशा की तरह वह मेरे प्रतिक्षाओ पर पानी फेर देते है। 

मेरी दुख का कोई ठिकाना नहीं रहा और कब ये दुख आक्रोश में बदल गया पता ही नहीं चला।   

इसी आक्रोश-भरे नैनों से मैं बाबा को घूरती हूँ, जो मुझे पता था कि बाबा के समझ के बाहर है। 

और फिर कमरें का दरवाज़ा धड़ाम से बंध करके, किताबें खोलकर एका-एक पढ़ने बैठ जाती हूँ। 

जब माँ मेरे कमरे में आती है दोपहर के भोजन के सिलसिले में पूछताछ करने, तब उनकों अपनी बेटी के ऑंखों के ऑंसू दिख जाते हैं। वह बहुत कोमल स्वर से मुझे पूॅंछती है- “बेटा, क्या हुआ है? किस वजह से मेरी लाडली के ऑंखों से पानी बह रहे हैं?”

माँ के इस कोमल प्रश्न को मेरी प्रतिस्पर्धात्मक उत्तर ही नसीब हुए- “आप बहुत झूठ बोलते हो।”

प्यार के लिए वक्त है कम
माँ फिर से वहीं कोमल स्वभाव से पूॅंछती है- “झूठ! मैंने कब तेरे से झूठ कहा ?”

मेरा फिर से वही गर्म अंदाज़ में कहना-“तुम सदा ही झूठ बोलती आयी हो कि बाबा मुझसे प्यार करते हैं!”

माँ की वही जानी पहचानी अंदाज़ से कहना-“अरे बेटा! तू खामखाँ गुस्सा करती है। बाबा तुझसे बहुत प्यार करते है, बस सबके प्यार इज़हार करने के तरीके अलग-अलग होते हैं। 

मैंने कॉंपते हुए स्वर से बोला- “अच्छा! मतलब जब बच्चे छोटे होते है तभी वे प्यारे होते है। बड़े हो जाने पर वे और प्यारे नहीं रहते। इसीलिए बाबा मुझे बचपन में प्यार करते थे और अभी नहीं!”

माँ का शंकित भाव से कहना- “अरे! तब की बात अलग थी। अभी तू बड़ी हो गयी है, समझदार हो गयी है। मैनें कहा न ‘इज़हार करने के तरीके’ अलग होते हैं। 

मेरा हमेशा की तरह मूहँफट अंदाज़ से कहना- “बचपन ही अच्छा था, जब किसी को नहीं बुलाने पर भी सबको मेरी आवाज़ सुनाई देती थी, सब मुझे कितना प्यार करते थे, मेरे से जूदा ही नहीं रहते थे और अब जब मुझे आपकी जरूरत होती है तो , आप सबको मेरी आवाज़ सुनाई नहीं देती या फिर यूँ कहिए कि आप सब मेरी आवाज़ सुनना नहीं चाहते। आप लोग मुझसे और प्यार नहीं करते हैं मुझे पता है क्योंकि बचपन में तो मैं ‘क्यूट’ हुआ करती थी और अब नहीं।”

मेरी बातें सुनकर माँ एकाएक हॅंस देती है और फिर मुझे समझाते हुए कहती है - “अरे! पगली तुझे ये सब मुझे पहले ही कह देना चाहिए था। बेटा! तू मेरे और तेरे बाबा के लिए पहले भी जितनी प्यारी थी अभी भी उतनी ही है।”

मेरा हमेशा की तरह उत्तर देने के अंदाज़ से कहना- “तुम तो कहती थी कि बचपन में बाबा कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे। बाबा मेरे लिए कुछ न कुछ लाया करते थे। तो फिर अभी क्या हुआ उन्हें? क्या मैं बस ऐसे ही प्रतिक्षा करती हूँ? आप मुझे ये सब बचपन की बातें सुना सुनाकर याद दिला देती है जैसे कि एक गरीब इनसान को अमीर बनने की लालच होती है ठीक उसी प्रकार मेरी भी हुई थी, पर अब मैं जान गयी हूँ कि मैं आप दोनों के लिए कोई माइने नहीं रखती, मैंने इस कड़वे सच को स्वीकार कर लिया है।”

माँ का मुझे शांत करने के प्रयत्न से कहना- “तू चुप हो जा बेटा। शांत हो। तेरे बाबा से मैं बात करूँगी इस सिलसिले में। तेरी मम्मी-पापा होने के वासते हमारी भी कोई ज़िम्मेदारी है। तू फिक्र न कर, तेरी फिकर हमारी है। और रही बात बाबा का तेरे लिए उपहार लाना, उसका भी मैं इंतज़ाम करूँगी। आज ही मैं तेरे बाबा से कहूँगी की शाम को बाज़ार से आने के वक्त वो तेरे लिए कुछ समान लाए। ठीक है। तू बस शांत हो जा, तेरे को हम खुशी देखना चाहते है और कुछ नहीं।”

माँ के इस अंतिम कथन को सुनकर ये प्रतीत हो रहा था कि माताएँ सचमुच मुश्किल-आसान हैं। मैं कुछ नहीं कह पाई बस रोती ही रह गयी। 

माँ का फिर एक अलग अंदाज़ में कहना- “हाय राम! कितना समय बीत गया है, मेरा दोपहर का खाना भी तैयार नहीं हुआ। तू जाकर नहा ले, दोपहर के बारह बजने वाले है।”

मेरे द्वारा उनको सहमति देना- “हाँ माँ मैं अभी नहाने जा रही हूँ।”

नहाने के वक्त भी मैं बस यहीं सोचती रही कि कब शाम होगी और कब मुझे बाबा कोई तोहफा दिलाएँगे। सोचते-सोचते अपने मन को ही सिर्फ कोसती रही कि न जाने मैंने अपने बाबा के बारे में क्या-क्या सोच लिया था। नहाने के बाद एक नयी फ्रॉक पहन ली अपने पसंद की और घर में बस झूमती रही। फिर करीब डेढ़ बजे के आसपास दोपहर का भोजन किया। भोजन करने के बाद मैं पढ़ने बैठ गयी और पढ़ते-पढ़ते कब ऑंख लग गयी पता ही नहीं चला। 

कुछ देर बाद जब ऑंखें खुलती है तो बिस्तर से उठ जाती हूँ और समय का अंदाज़ा लगाते हुए घड़ी का सहारा लेती हूँ, तो घड़ी में उस समय साढ़े पाॅंच बज रहे थे। मैं तुरंत माँ से जाकर पूॅंछती हूँ कि बाबा कहा है तो फिर उनका रसोईघर से चिल्लाकर कहना- “बाबा तो सो रहे हैं।”

मुझे समझ में आ गया कि बाबा की लाई हुई तोहफा से ये दोनों मुझे चौकाना चाहते हैं और फिर एका-एक मेरे धैर्य का बंधन टूटता है, और माँ से पूॅंछ बैठती हूँ- “माँ मेरे लिए तोहफा लाए हैं?”

माँ उसी रसोईघर से जवाब देती है- “तोहफा! कौन सा तोहफा? अच्छा तेरे लिए, वो क्या है न बाबा आज बाहर गये ही नहीं थे, तेरी लिए तोहफा कल ला देंगे।”

फिर मैं एका-एक खुद को छोटा महसूस करने लगती हूॅं, माँ बाबा के सामने तो कुछ नहीं कह पाती पर अंदर ही अंदर मुझे मालूम हो जाता है कि आज के समय में प्यार के लिए वक्त कम हैं, उन्नति करने के प्रवृत्ति से लोग खुदगर्ज़ बनते जा रहे हैं। 

और फिर सहसा रसोईघर में प्रेशर कुकर की सीटी बजती हैं… … … 



- राया सरकार

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