गिलेट के सिक्के | हिन्दी कहानी

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गिलेट के सिक्के | हिन्दी कहानी पुरानी पटल की छत,टपकती हुई बूढ़ी जर्ज़र दीवारें थिरकने क़ो आतुर।इस बरसात में खड़ी रहेंगे अथवा नहीं कहां नहीं जा सकता। बस

गिलेट के सिक्के | हिन्दी कहानी

पुरानी पटल की छत,टपकती हुई बूढ़ी  जर्ज़र दीवारें थिरकने क़ो आतुर।इस बरसात में खड़ी रहेंगे अथवा नहीं कहां नहीं जा सकता। बस यह उम्मीद जिंदा थी कि चलो आज का दिन तो निकल गया। इस उम्मीद के सहारे चल रहा था कमली का जीवन।

उसके पास इतना धन तो था नहीं कि वह उस मकान की मरम्मत करा  सके पर जगह-जगह भांडे बर्तन अवश्य रख दिया करती  थी  जो बरसात के पानी से भर जाया करते थे। इस बात को भी वह खुशी से ही देखती  थी कि चलो आजकल रात में बर्तन धोने को पानी अंदर ही उपलब्ध हो जाया करता है।  बाहर आंगन में जाने की जरूरत नहीं, पर धोने को बर्तन होते भी कितने थे अकेले जान के पास बर्तन खाने को कितने और धोने को कितने। स्थिति यह थी कि भोजन का सामान भी अधिक नहीं है जो कुछ भी खेतों में होता था उसी में वह अपना जीवन बिता रही थी ।

बच्चों साथ नहीं थे सभी अपने काम के सिलसिले में घर से बाहर दूर शहरों में चले गए थे धीरे-धीरे यह स्थिति हो गई की सभी वही जाकर बस गए। ऐसा नहीं कि उसे बुलाया नहीं लेकिन वह गई नहीं जब शरीर में थोड़ी ताकत थी तो वह चली जाया करती थी लेकिन अधिक समय तक टिक नहीं पाती  थी  जल्दी ही लौट आती।

 "अरे!कमली दी,आप तो जल्दी ही लौट आए??"

" क्या करूं बैनी......!.वहां की  गर्मी में मन ही नहीं लगता। कहां यहां पहाड़ों की ठंडी हवा ',और ठंडा पानी कहां शहर की गर्मी और धुआँ......इसलिए चली आई। "

" बच्चे नहीं आए?????

" वह कहां आते हैं..... बच्चों की पढ़ाई और नौकरी, बेचारों को समय ही कहा है। "

 हमारी तरह खाली थोड़ी ही है कि दिन भर बैठे रहेंगे बातें करेंगे....।

चांद बातें करके कमली अपने घर को लौट जाती। ऐसा नहीं है कि अकेले ही घुटती रहती, वह सभी से बातें करती हसती,मिलती जब अपनी कोठरी में लौटती  तो शांत और उदास हो जाती। क्योंकि वह जानती थी कि वास्तव में शहर में वह घुल मिल पाती या नहीं पता नहीं किंतु शहर में उसके लिए जगह ही नहीं थी।

गिलेट के सिक्के | हिन्दी कहानी
जिस अपनेपन के लिए वह जाती थी वहां उसे वह कभी प्राप्त ही नहीं हो पता। सदा ही वहा वह तन्हा हो जाती धीरे-धीरे कमली में जाना छोड़ दिया। बात करना तो दूर उसके साथ बैठने के लिए किसी को समय भी नहीं होता था। बिहड़ वीरान पहाड़ होने के कारण फोन सुविधा उपलब्ध नहीं थी । कभी-कभी मनीऑर्डर आ जाया करता था। धीरे-धीरे वह भी भूल चूक माफ सा  बन गया था।

साल में एक बार बेटा आया करता, कुछ दिन मां के साथ रहता, खुश रहता। सबसे मिलता और एक ही बात कहता "माँ साथ चलो।" मैं भी बार-बार नहीं आ पाता हूं। "तू जा बेटा।"मै यहाँ ठीक हूँ। वैसे भी मुझे यहां कोई परेशानी थोड़ी है।

" तू अपना काम कर, बच्चों को देख, उन्हें पढ़ा लिखा मेरा क्या है! मेरा काम चल जाता है, अभी चलती फिरती हूं अपना काम कर लेती हूं तू जा। "

धीरे-धीरे उसका आना भी काम हो गया। अब रह गई केवल कमली,'और उसकी कोठरी।लेकिन फैमिली में रिजर्वेशन की कमी नहीं थी वह अपने घर को साफ सुथरा और चमकदार बनाए रखती भले ही उसके पास पैसे नहीं थे जो आए थे वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगे थे पर वह उन्हें बचा बचा कर इस प्रकार चलती थी कि लगता है कि वह बहुत पैसे वाली है। वह नहीं जानती थी कि उसके लिए पैसे आ भी रहे हैं या नहीं पर वह इस स्थिति में गुजर कर रही थी।

धीरे-धीरे उसका घर वीरान होने लगा था।उम्र का आधे से भी अधिक सफर पूर्ण कर लेने के बाद भी वह आज भी अपना कार्य उसी जोश साथ कर रही थी। उसकी जिजीविषा ऐसी थी जो नई पीढ़ी को भी प्रेरणा दे एक छोटी सी गाय थी जो अपनी इच्छा से ही दूध देती  थी, वरना लात मार ती जब तक दे पाई दूध दिया फिर धीरे-धीरे वह भी बूढी हो चली। कमली ने उसे बेचा नहीं, उसने अपने पास ही रखा, क्योंकि वही तो उसके एकमात्र सहारा थी,जिससे वह बातचीत कर सकती थी। वह  उससे बतिया लेती,वह भी उसकी सभी बातें सुना करती जैसे उसकी सभी बातें समझ रही हो और उन बातों पर मूर्ख प्रतिक्रिया दे रही  हो यह बड़ा ही विचित्र साथ था दोनों का,एक वाचाल और एक मुक।..........

कभी कभी बेटा माँ की सुध किसी ना किसी माध्यम से ले लिया करता था। धीरे धीरे परिवा र ने यह समझ लिया था कि माँ शहर में रहना नहीं चाहती।

"उनसे अपना गाँव छूटता नहीं है,"कोई बात नहीं! अब ज़ब तक वो रहना चाहती है, ज़ब तक उनका मन लगता है अपने आप रहती है। पैसे भेज रहे है। उनका चल जाएगा। बाकी आस पड़ोस के लोग देख लेते है, चलो पहाड़ में ये अच्छा है कि गाँव में एक दूसरे का ख्याल रखने वाले बहुत लोग होते हैं।

यहाँ कमली के पास पैसे पहुचे एक वर्ष हो चूका था।

अब उसने उम्मीद भी छोड़ दी थी, क्योंकि कोई और मार्ग भी नहीं था। वह परेशानियों से जूझ तो रही थी पर उसकी अधिक चिंता नहीं थी क्योंकि उसे जिसकी अधिक जरूरत थी वह था अपनापन। जो उसे कभी मिल नहीं पाया।

दिन का समय तो वह काम करते हुए, आस पड़ोस की चहल पहल में गुजार देती लेकिन रात की खामोशियाँ काटने क़ो दौड़ती। कभी तो वह मन बना कर सामान बांध लेटी लेकिन फिर गुजरा वख्त याद आ जाता तो वह रुक जाती। उसके मन की परतों के नीचे कितनी ही बातें द्फन थी जिन्हे उसने कभी उजागर नहीं किया।

एक ओर वह खामोश रह कर परेशानियों से जूझ रही थी, दूसरी ओर किसी क़ो यह वहम हो आया था कि वह बहुत पैसे वाली है, जबकि हकीकत कुछ और ही थी। उसके पास तो अब उसके ढलते स्वास्थ्य का इलाज कराने के लिए भी पैसे नहीं थे। कुछ युवा ऐसे थे पथ भृष्ट उनके मन मे उसके अमीर होने का ख्याल आया था उन्हें ही यह लगा था कि वह बहुत पैसे वाली है। इसी के चलते उन्होंने उसके घर मे घुसने की योजना बनाई। कुछ दिन की गस्त लगाने के बाद एक रात वह उसके घर में घुस गए। उन्हें लगा था कि बुढ़िया सो गई होगी तो चुपचाप चोरी करेंगे और निकल जाएंगे लेकिन बुढ़िया अभी तक जाग रही थी। अकेलेपन और आभाव मे उसे नींद कहाँ?

ज़ब वो लोग घर में घुसे तो अचानक हुई आहट से बुढ़िया डर गई। कुछ देर वह अपने बिस्तर में ख़ामोशी से दुबकी रही। कुछ देर उसे लगा कि शायद कोई जंगली जानवर घुस आया है, लेकिन ज़ब खुसर फुसर की आवाज हुई और घर के अंदर कुछ तलाशने की आवाज सुनाई देने लगी तो वह समझ गई कि चोर घुस आए है, पहले तो वह घबरा गई लेकिन फिर संयत हो गई कि ले जाने वाले क़्या ले जाएंगे?? क्योंकि उसके पास कुछ था ही नहीं। ज़ेवर उसने बेटे के ब्याह मे बहु क़ो दे दिए। बेटा जो पैसे भेजता था वह रहा नहीं। लत्ते कपडे जो थे वह विवाहो में मिले हुए थे। कुछ थोड़ा अनाज था जो वह उगा पाई थी और वह घर ', जो उसके जीवन भर की कमाई थी उसे ले जा सकते है तो ले जाएं।

कुछ देर तक वह डरती रही पर फिर उसका डर कम हो गया। अब उसे इस बात की राहत थी कि चोर ही सही घर मे चहल पहल तो हो रही है। धीरे धीरे उन्होंने पूरा घर खंगाला पर कहीं कुछ ना मिला। अंत में उन्होंने यह तय किया कि बुढ़िया के कमरे मे घुसा जाए, जो भी होगा उसी कमरे में होगा। वह दबे पाँव उस कमरे में घुसे और टार्च की रौशनी में कुछ तलाशने लगे कुछ देर तो बुढ़िया शांत रही फिर रहा नहीं गया तो बोल उठी, अरे बेटा! लाइट जला लो। अचानक से आवाज सुनकर वो सकपका गए। लेकिन इस बात का भी एहसास था कि बुढ़िया इतनी देर तक नींद मे हो नहीं सकती। दोनों ने हड़बड़ी में छिपने की कोशिश की तो वह रखे हुए सामान के साथ टकरा गए। तब तक बुढ़िया लाइट जलाने को उठ गई। लेकिन चारपाई की आवाज से दोनों सतर्क हो गए। जैसे ही 9 लाइट जलाई वह उसपर झपट पड़े। वह बोलती रही कि अरे बेटा!मेरे पास कुछ है ही नहीं तुम ढूंढ लो। बुढ़िया को हंफाते हुए देख उनकी पकड़ कुछ ढीली पड़ी, फिर एक ने कमरा तालाशा, दूसरे ने बुढ़िया को पकडे रखा। उस दौरान वह अपने जीवन की चर्चा करती रही। उसके कमरे मे कुछ भी न था बस एक पोटली थी। जिसे है दबोच रही थी। वह उनसे बतियाते रही क्योंकि जाने कितनी रातें वह नहीं बोली थी। 

दोनों मे से एक का मन तो मान गया पर एक के मन मे अभी भी शक था। पोटली छीनने के लिए उसने बुढिया को जोर से धक्का दिया, जिससे वह पाए के किनारे से जा टकराई उसके सर से खून बहने लगा लड़खड़ाती आवाज में उसने कहा बेटा में तो इस बात से ख़ुश हुई कि...... लेकिन दूसरे ने गुस्से में फिर हमला बोल दिया। बुढ़िया वह सह नहीं पाई और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। अगली सुबह गांव में गहमा गहमी थी चारों ओर भीड़ लगी हुई कुछ रो रहे, कुछ हैरान थे, कुछ आपस में चर्चा कर रहे। बेटे को पहुंचने में समय लग रहा था इसलिए पोस्टमार्टम के बाद इंतजार था। 

ज़ब बेटा पंहुचा तो वह घबराहट और हड़बड़ी मे कुछ समझ ही नहीं पाया। सभी तैयारी हो चुकी थी इसलिए जैसा जैसा उसे कहते गए वह करता चला गया। सभी अंतिम क्रिया पूर्ण होने पर ज़ब अवकाश मिला तब पुलिस अधिकारी से बातचीत हो पाई। सारी घटनाएं बताते हुए वह कुछ अजीब मनः स्तिथि मे था क्योंकि अपराधियों मे से एक पकड़ा गया था और उसका कहना था कि वह सबकुछ बुढ़िया के बेटे को बताएगा। उससे मिलाने से पहले अधिकारी ने जो सामान दिखाया था वह और अधिक असमंजस में डालने वाला था। अब बेटे को कुछ भी समझ नहीं आया, तो वह उससे मिलने की जिद करने लगा तो पुलिस प्रोटेक्शन के बीच उसे कातिल से मिलाया गया शायद वह अंग्रेसिव हो जाता लेकिन वह सम्भव नहीं था। तब उसने पूछा कि उसने क्यों उसकी माँ को मारा???

वह अधिक नहीं बोला पर उसने कहा कि वह उन्हें नहीं मारना चाहता था वह बस हाथपाई के बीच मर गई वह जानबूझ के उन्हें नहीं मारना चाहता था। इसी बीच पुलिस अधिकारी ने सवाल दागा कि चुराया हुआ सामान कहाँ है?? तब वह बोला कि उनके पास तो कुछ था ही नहीं। वह तो खुद ही मरने की प्रतीक्षा कर रही थी। हमसे नहीं मरती तो किसी दिन भूख से ही मर जाती। उनके पास कुछ भी नहीं था खाने को भी नहीं।उनकी दशा के बारे में सोच कर वह स्वयं ही रोने लगा। इस पर बेटा बोल उठा "ऐसा कैसे हो सकता है?? मै हर महीने पैसे भेज रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है??? तब वह बताता है कि नहीं उनके पास कुछ नहीं था होता तो वह मिलता जरूर म.... म... माता जी बहुत अच्छी थी।

माता मत कहो उन्हें.... मेरी माँ को मार डाला तुमने...।...... वह बहुत अच्छी थी वह बोलता रहा....।" अगर होता तो वह हमें खाना भी खिलाती वह ऐसी नहीं थी कि हमें यहां जेल आने देती पर उनके पास कुछ नहीं था। जीवन से थक जाने के बाद भी वह मरने की कोशिश नहीं करती उन्हें बस जाना था उस जगह से जहाँ वह बिलकुल अकेली थी। शरीर अकेला हो जाए तो कोई बात नहीं, पर ज़ब मन अकेला हो जाए तो कोई क्या करें?

उन्हें हमने नहीं आप लोगो ने मारा औलाद होते हुए भी वह बे औलादो की तरह जी रही थी।आपके शहर में उनके लिए एक कोना भी नहीं था जहाँ उनका परिवार रहता हो...। 

यह सब उन्होंने बताया??? बेटा आँखों में आंसू लिए बोला।उनकी खामोश आंखे बोल रही थी। हम उन्हें नहीं मारना चाहते थे। वह मरना चाहती थी। अकेलापन उन्हें मार रहा था। एक बेचारी गाय थी उनकी जो उनका सहारा थी उस शाम मर गई थी।पर वहा तो कुछ नहीं था..?? अधिकारी बोला।

कैसे होती उसे तो गांव के बाहर हमने ही किया था। माता जी ने मरने से पहले कहा था कि मेरे लिए तो लोग आएंगे पर इसके लिए कोई नहीं आएगा। यह उनकी अंतिम इच्छा थी इसलिए हमने उसे दफनाया था। अब बेटा काफ़ी बिफर गया...... तो... तो.... क्या मिला मेरी माँ को मारकर????

क्या मिला???.... एक मरती माँ.... और कुछ गिलेट के सिक्के....।

वह फीकी हंसी हँसा।अब अधिकारी अमंजस में था वह सजा दे तो किसे दे.....


- डॉ. चंचल गोस्वामी , पिथौरागढ़, उत्तराखंड

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