निर्मल वर्मा की कहानी कला की विशेषताएं

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निर्मल वर्मा की कहानी कला की विशेषताएं निर्मल वर्मा की कहानियां मानव मन की गहराइयों को उजागर करती हैं। उनकी कहानियां पाठकों को सोचने और अपने अंदर झाँक

निर्मल वर्मा की कहानी कला की विशेषताएं

 
हिन्दी कहानी में राग, चेतना, मन-मस्तिष्क, स्मृति और संघर्ष को एक साथ अभिव्यक्ति देने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा अद्वितीय हैं। उनका लेखन कार्य अनवरत पाँच दशकों से चल रहा है। नामवर सिंह जैसे श्रेष्ठ आलोचकों ने उनकी कहानी 'परिन्दे' से नयी कहानी की शुरुआत मानी है। स्पष्ट है कि नई कहानी की कोई भी चर्चा निर्मल वर्मा के बिना अधूरी और असंभव होगी। वे मध्ययुगीन रूमानियत को आधुनिक युग की अस्तित्त्व चेतना से जोड़ने वाले कहानीकार हैं। कहानीपन की मृत्यु की घोषणा करते हुए उन्होंने कहानी को नयी कहानी की दिशा दी। उनके लेखनी की अभिजात रागिनी उन्हें विशिष्ट स्तर का कहानीकार बना देती है।

निर्मल वर्मा की कहानियां मानव मन की गहराइयों को उजागर करती हैं। उनकी कहानियां पाठकों को सोचने और अपने अंदर झाँकने पर मजबूर करती हैं। वर्मा की कहानियों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।
 
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 को शिमला में हुआ। यहीं पर आपने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। उनके बचपन का अधिकांश समय पहाड़ों में ही व्यतीत हुआ। उन्होंने सेंट स्टीफन कालेज, दिल्ली से इतिहास में एम० ए० की उपाधि प्राप्त की। कुछ दिन अध्यापन करने के पश्चात् वे स्वतंत्र लेखनी की ओर अग्रसर हुए। 1959 में वे यूरोप- प्रवास की ओर निकले तीन वर्ष प्राग में रहकर उन्होंने ‘आधुनिक चैक साहित्य' पर शोधकार्य किया। उन्होंने ‘प्राग से आइसलैंड तक' यूरोप के अनेक देशों की यात्राएँ कीं।
 
उनके अनुसार नयी कहानी अपने में ही एक विरोधाभास है। जिस हद तक वह कहानी है, उस हद तक वह नयी नहीं है और जिस सीमा तक वह नयी है, उस सीमा तक वह कहानी नहीं है। नयी कहानी कुछ हो सकती है तो सिर्फ-अँधेरे में एक चीख । यह टोटल टेरर की स्थिति है, जहाँ मदद की हर संभावना, हर गिलगिले समझौते को नकारा गया है। कहानीकार के लिए यथार्थ झाड़ी में छिपे उस पक्षी की तरह है जिसे जीवित निकाल पाना दुर्लभ है। दबाव डालने से वह मर जायगा या उड़ जायगा। कहानीकार मात्र प्रतीक्षा कर सकता है या झाड़ी को कभी-कभार इधर-उधर कुरेद सकता है। कहानी लिखना बुल फाइटिंग की तरह है। हर कथाकार अखाड़े में साँड़ के सामने अकेला रहता है। वे साहित्य पर राजनीतिक प्रभावों का समर्थन करते हैं तथा राजनीति को निर्मम जीवन्त स्थिति के रूप में स्वीकारते हैं।
 
निर्मल जी ने लगभग तीन दर्जन कहानियाँ लिखी हैं। परिन्दे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, बीच बहस में, मेरी प्रिय कहानियाँ तथा ग्यारह लम्बी कहानियाँ आदि इनके कहानी संग्रह हैं। वे दिन, एक चिथड़ा सुख इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। यात्रा संस्मरण में चीड़ों पर चाँदनी, निबन्ध संग्रह में- हर बारिश में, शब्द और स्मृति नाटक में तीन एकांत तथा अनुवाद में इतने बड़े धब्बे हिल स्टेशन, डेज आफ लागर्ग प्रसिद्ध हैं। तीन एकांत नामक उनकी तीन मंचित कहानियों का एक अन्य संग्रह है। ये कहानियाँ हैं- धूप का एक टुकड़ा, डेढ़ इंच ऊपर तथा वीक एण्ड । 'दूसरी दुनिया' में कहानी, निबंध, यात्रा संस्मरण, साक्षात्कार, डायरी आदि को संकलित किया गया है। बेकारी के खाली दिनों में उन्होंने 'मायादर्पण' कहानी लिखी थी। तब यह कल्पना असंभव थी कि यह कहानी हिट होकर फिल्म के योग्य मानी जायगी। इनके अधिकांश कहानी-संग्रह राजकमल प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। उनकी अनेक कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है।
 
वर्मा जी बहुत दिनों तक चेकोस्लोवाकिया में रहे और उन्होंने वहाँ की भाषा से अनेक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया। इनकी कहानियों में विदेशी वातावरण और परिवेश प्रकट हुआ है। उन्होंने स्वयं लिखा है- 'वर्षों विदेश में रहने के कारण मेरी कुछ कहानियों में शायद एक वीराने किस्म का 'प्रवासीपन' चला आया है, उन्होंने व्यक्ति-चेतना की अपेक्षा समष्टि चेतना को अपने कहानी साहित्य में प्रश्रय देना अधिक उचित समझा है। इनमें वातावरण निर्माता की अद्भुत क्षमता है। इनकी कहानियों में घुटन, बेगानापन, अनिश्चितता और अंतर्विरोध का चित्रण है। उनकी कहानी 'लंदन की एक रात' की उपेन्द्रनाथ 'अश्क' ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है- 

'मुझे उनकी सिर्फ एक कहानी 'लंदन की एक रात' सचमुच उत्कृष्ट लगी है। इस कहानी में लेखक ने एक ऊँचे कलाकार की तरह उस हॉरर को, जो इस दुनिया में रंग-भेद को लेकर अगणित लोगों को संत्रस्त किये हुए है, चित्रित कर दिया है। फिर लंदन में बाहर से आने वाले छात्रों की बेरोजगारी, शराबखानों के जीवन और काले लोगों से हमदर्दी रखने वालों के प्रति वहाँ के गोरे गुण्डों की घृणा तथा विद्वेष का चित्रण निर्मल वर्मा ने निहायत कुशलता से किया है। यही एक कहानी है, जिसे मैंने दोबारा पढ़ा तो भी मुझे अच्छी लगी।

इसी प्रकार डॉ० नामवर सिंह जी ने उनकी कहानी 'परिन्दे' की भी प्रशंसा की है। लिखते हैं- फक्त सात कहानियों का संग्रह 'परिन्दे' निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है, बल्कि जिसे हम 'नयी कहानी' कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है। पढ़ने पर सहसा विश्वास नहीं होता कि ये कहानियाँ उसी भाषा की है जिसमें अभी तक शहर, गाँव, कस्बा और तिकोने प्रेम को ही लेकर कहानीकार जूझ रहे हैं।........ ....पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही 'मार्कटाइस' कर रहा है। समकालीनों में निर्मल पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दायरे को तोड़ा है, बल्कि छोड़ा है और आज के मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या को उठाया है।
 
निर्मल वर्मा की कहानियाँ चिन्तन-प्रधान हैं और बौद्धिकता को ढोती हैं। अभिजात वर्ग का वातावरण और पात्र व उनकी मानसिक कुंठा का चित्रण अंकित करने में लेखक को सफलता मिली है। विदेशी शराब, विदेशी संस्कृति, विदेशी लड़कियाँ और उनकी नीली आँखें इनकी कहानियों के वर्ण्य-विषय हैं। वस्तु चाहे कुछ भी हो लेकिन इनकी शैली में पटुता और नवीनता है। भाषा में अधिक सहजता के कारण कहानी में ताजगी बरबस आ जाती है प्रस्तुतीकरण सर्वथा आकर्षक रहने के कारण कहानीकारों में निर्मल वर्मा जी ने अपना एक अलग स्थान बना लिया है। डॉ० नामवर सिंह के शब्दों में, 'नयी कहानी संकेत करती नहीं, बल्कि संकेत है। परन्तु निर्मल की कहानियाँ नयी कहानी के एक और तत्त्व की सार्थकता की ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं- कहानी में वाक्यों की शृंखला इतनी लयबद्ध चलती है कि संपूर्ण विन्यास अनमाने ही मन को संगीत की लहरों पर आरोह-अवरोह के साथ चलता है।

निर्मल वर्मा की कहानी कला की विशेषताएं
नयी कहानी के दौरान उभरे कहानीकारों में निर्मल वर्मा संभवतः सर्वाधिक विवादास्पद रहे हैं। अनेक आलोचक यदि उनका सकारात्मक मूल्यांकन करते हैं, तो अनेक नकारात्मकं । डॉ० रामदरश मिश्र के अनुसार, “यदि निर्मल के साथ उनके महत्त्व का आरोपित इतिहास न जुड़ा होता तो मैं नयी कहानी के समर्थ रचनाकारों के क्रम में उनकी चर्चा नहीं करता क्योंकि निर्मल का लेखन रचनात्मक स्तर पर मुझे उनके बारे में लिखने को मजबूर नहीं करता मिश्र जी कथा-संसार की संकीर्णता और प्रभावहीनता के चलते निर्मल वर्मा को बहुत महत्त्वपूर्ण कहनीकार नहीं मानते। उपेन्द्रनाथ अश्क के विचार से निर्मल की कहानियाँ आम पाठकों के लिए नहीं हैं। डॉ० रामदेव शुक्ल ने निर्मल वर्मा की कहानीयों को भाषा की अंतःशक्ति से उपजा हुआ माना है : 'निर्मल वर्मा की कहानियाँ अन्य कहानीकारों की रचनाओं की तरह बहुत नहीं बोलतीं। उनकी शक्ति उनके मौन संकेतों में छिपी है जो हमारे समय की संस्कृति को, भाषा को, मनुष्य की पहचान को और इन सब के ऊपर मँडराती काली छाया को भी दिखा देना चाहते हैं। इस तरह के परस्पर विरोधी विचारों से वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती।
 
इसमें संदेह नहीं कि निर्मल वर्मा की अधिकतर कहानियों की जमीन संकुचित और एक आयामी है। उनकी कहानियों में अकेलापन भोगने के लिए अभिशप्त चरित्रों की मानसिकता प्रायः मुखर है। ये चरित्र या तो प्रवासी भारतीय हैं या अपने ही देश में निर्वासित या आत्मनिर्वासित व्यक्ति हैं। अतः यह अस्वाभाविक नहीं है कि निर्मल वर्मा की कहानियों में अकेलापन एक अभिशाप या आतंक बनकर व्यक्त हुआ है। यदि उनकी कहानियों में समाज-संपृक्ति के अभाव की बात कही जाती है, तो वह बहुत दूर तक सच है। हालाँकि निर्मल की कहानियों में बन्द कमरे की एकांतिकता नहीं है, लेकिन पार्क, हिल स्टेशन, रेस्तराँ, बार, होटल आदि की मौजूदगी में भी समाज का एक छोटा-सा टुकड़ा ही इन कहानियों में उभरता है।
 
निर्मल के कहानी-संसार में सामाजिक सरोकारों की न मालूम सी मौजूदगी और समय की प्रामाणिकता का लगभग निषेध अनजाने या अनायास नहीं है। इसके पीछे उनका कलावादी व्यक्तिवादी स्थान सक्रिय है। वे कलावादी सिद्धांत के प्रशांसक हैं और उसे खासा क्रांतिकारी भी करार देते हैं। साहित्य में समय और समाज के सरोकारों की उपस्थिति को वे अच्छा नहीं “मानतेः” यदि साहित्य, समाज के विभिन्न सरोकारों के दल-दल में फँसा रहे, तो वह धर्मशास्त्र या सामाजिक राजनीति कर परजीवी बन जाता है, एक जोंक की तरह उनका खून खींचकर जीवित रखता है और इस तरह आत्मा की आवाज बनाने का नैतिक अधिकार खो देता है।' इस प्रकार की मानसिकता से युक्त कहानीकार के रचना-संसार में यदि समाज के करोड़ों शोषितों, मेहनतकशों का दुःख, दर्द, संघर्ष, उनकी परिवर्तन की चेतना आदि हाशियों पर रह गये हैं तो यह आश्चर्यजनक नहीं है। ऐसा नहीं कि कुछ कहानियों में गरीबों और गरीबी की चर्चा बहुत सीमित और व्यक्तिगत है। किसी किस्म की रचनात्मक उत्तेजना से उसका रिश्ता नहीं जान पड़ता। व्यावसायिक औद्योगीकरण की मार से त्रस्त किसानों के प्रति निर्मल की सहानुभूति है, लेकिन वह कहानी का अंग बनकर नहीं आती। उन्होंने गरीबी को या तो दूरदर्शन पर देखा है या महानगर की किसी ऊँची इमारत से उसका जायजा लिया है। डॉ० रामदेव शुक्ल जैसे समीक्षकों का दावा है कि यथार्थ की समग्र पकड़ के कारण वे गरीबी मनुष्यकृत कारणों को अच्छी तरह देख लेते हैं। किन्तु यह कथन आंशिक तौर पर ही सच है। बाहरी यथार्थ निर्मल के लिए कभी महत्त्वपूर्ण नहीं रहा। वे मुख्यतः मनःस्थितियों को बुनने वाले कहानीकार हैं। इसलिए उनमें सामाजिकता का रूप आंशिक और विशिष्ट है। उनकी कहानियाँ बिम्ब तथा संकेतों के बोझ से दब सी गयी हैं। यही बोझिलता उन्हें सामाजिक से दूर कर आत्मपरक बना देती है। 

प्रगतिशीलता से निर्मल वर्मा की अरुचि छिपी हुई नहीं है। उनकी कहानियों में शोषकों का वर्ग चरित्र और उत्पीड़ितों की त्रासदी यदि नहीं मिलती, तो यह आकस्मिक नहीं है। वे रिश्तों के उलझाव और टूटन की मनःस्थितियों को व्यक्त करने वाले कहानीकार हैं। उनमें व्यवस्था, आम आदमी, राजनीति आदि को लेकर उपेक्षा का भाव है। कला की स्वायत्तता की माँग के तहत उनकी कहानियाँ जनसाधारण से बहुत दूर जा पड़ी हैं। उनकी कहानियों में आर्थिक अभाव कहीं पाठक के मन को नहीं छीलता अपितु भरे पेट वालों का भोग-विलास ही अधिक दिखायी देता है। एक कहानीकार के रूप में निर्मल की शक्ति संबंधों-खासकर काम-संबंधों के उतार-चढ़ाव, विचलन, गहराई आदि को नापने और उन्हें अपने तरीके से संप्रेषित करने में है। इनकी कहानियों में कहानीपन कम, काव्यात्मक तरलता, अस्पष्टता और रहस्यमयता का आच्छादन अधिक है। मनःस्थितियों के उद्घाटन में भाषा का जो रूप तय किया गया है, वह विशिष्ट और अप्रस्तुत बहुल है। जहाँ प्रकृति से पृथक् मानवजीवन के बिम्ब और अप्रस्तुत लिए गए हैं, वहाँ भी कुछ स्थलों पर गद्य का सौंदर्य बढ़ा है। लेकिन जब इन अप्रस्तुतों, बिम्बों आदि की गिरफ्त से छूटकर पाठक कहानियों के मर्म तक पहुँचना चाहता है, तो उसे प्रायः निराशा होती है।

निर्मल वर्मा की कहानियों की संप्रेषणीयता के विषय में प्रायः 'प्रवासीपन' की शिकायत की गयी है, कहा जाता है कि विदेशी पृष्ठभूमि होने के नाते बहुत-सी कहानियाँ ठीक से समझ में नहीं आतीं और केवल 'पब', 'शराब' से संबद्ध कुछ दृश्य याद रह जाते हैं। निर्मल वर्मा ने इसके प्रतिवाद में लिखा है।" दरअसल किसी लेखक की पृष्ठभूमि विदेशी है या देशी, यह चीज़ बहुत ही गौण है। उसका महत्त्व है तो सिर्फ यह कि उसमें किस सीमा तक और कितनी गहराई से किसी खास स्थिति या नियति विशेष को खोला जा सका है- बल्कि यूँ कहें, महत्त्व की कोई चीज है तो सिर्फ यह ही बाकी सब राख है।" लेकिन उनकी अधिकतर कहानियाँ किसी नियति विशेष को खोल पाती हैं, इसमें सन्देह है। अतीत को कुरेदते रहना और अपने में ही खोये रहना कितनों की नियति है ? भूख, बेकारी, व्यवस्था विरोध आदि सचाइयाँ कहानीकार को क्यों नहीं दिखायी देती हैं। कहानी को 'एक चीख' मानने वाले कहानीकार की रचनाओं में इतनी ‘खामोशी' क्या इंगित करती है। ये बहुत सारे सवाल हैं, जो निर्मल की कहानियों के संदर्भ में उठते हैं। इसलिए एक सवाल और भी उठता है कि क्या 'कहानी' आज भी उनके लिए अभिव्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता रह गयी ?' जो भी हो, अपनी कहानियों का वर्ण्य-विषय शुद्ध प्रगतिवादी और यथार्थपरक बनाने में निर्मल जी असमर्थता व्यक्त करते हैं। उनके अनुसार 'एक सड़क और सिनेमाघर की दुनियाओं के बीच जो अन्तराल हमारे देश में हैं, वह अन्यत्र कहीं नहीं। स्कूल से लौटते हुए भूखे-प्यासे बच्चे घंटों बस की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं। चिलचिलाती धूप में उनके रूखे बदहवास चेहरे एक तरफ, सिनेमा की फिल्मों में कार्न फ्लैक्स खाते, चिकने, चमचमाते चेहरे दूसरी तरफ। इन दोनों के बीच तालमेल बिठाना मुझे असंभव लगता है। शायद इसीलिए उनकी कहानियों का मूलस्वर रोमांटिक है और उन्होंने एक-दो अपवादों को छोड़कर प्रेम-कहानियाँ ही लिखी हैं- ट्रेजिडी यह है कि सारी प्रेम कहानियों में कथा एक ही है, केवल नाम और सन्दर्भ हर कहानी में.. परिवर्तित होते गये हैं। इनमें प्रेम ही महत्त्वपूर्ण मूल्य बनकर आया है। इस प्रेम के अनेक आयाम हैं। कहीं प्रेम की समस्या है, कहीं मुक्त भोग की, कहीं संबंध बनाने की ललक है तो कहीं व्यक्तित्व टूट गया है। निर्मल का रूमानी कथाकार अपने पात्रों को अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान करता है। इस व्यक्तित्व के गढ़े में ही दूसरा व्यक्ति गिर पड़ता है अथवा इसकी चमक से चुँधिया जाता है। इस व्यक्तित्त्व में विरोधाभासों का समन्वय है। इन पात्रों के पास शाश्वत व्यक्तित्त्व है। 

निर्मल का रूप-सौन्दर्य, मनः सौन्दर्य से सम्बद्ध है। वे पात्र के नेत्र, स्मित अथवा स्वर के विषय में दो-एक शब्द कहकर ही पूर्ण व्यक्तित्त्व उजागर कर देते हैं। उन्होंने सौन्दर्य के नकारात्मक पक्ष अर्थात् असुन्दर को भी महत्त्व दिया है। उनके प्रेमी पात्रों की वेदना एक ऐसा दर्द है, जो आनंद से उपजा है और पीड़ा देता है। इससे छुटकारे का साधन नहीं है, प्रतीक्षा यह जीवित होने का प्रबल प्रमाण है। जो व्यक्ति प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह जी भी नहीं सकता। रागात्मकता और तनाव, जीवन्तता और जड़ता, अस्तित्त्व चिंतन अथवा रूमानी भावात्मकता- सभी में प्रतीक्षा रची-बसी है। यथपि उन्होंने अतीतजीवी होने का विरोधकिया है फिर भी उनकी अधिकांश कहानियाँ अतीत की स्मृति हैं। उनकी कहानियों की भाषा काव्यात्मक है, उनके पात्रों को संगीत से विशेष लगाव है। प्रेमीजन इस संगीत में भावाभिव्यक्तियाँ पाते हैं धार्मिक पात्र मानसिक शांति एवं प्रवासी पात्र मानसिक तनाव से मुक्ति ।
 
निर्मल का कहानियाँ अकेलेपन, अजनबीपन एवं अपरिचय की स्थिति को आज के आदमी की संपूर्ण विवशताओं के साथ उजागर करती हैं। इसके बहुत सारे कारण हैं। उनकी कहानियों में मुख्यतः यह स्थिति प्रवासी जीवन की देन है। परिवेश से उखड़ने पर व्यक्ति यहाँ और वहाँ- दोनों स्थलों पर अजनबी हो जाता है। रोजी-रोटी से जुड़ा निर्मल का व्यक्ति प्रवासी जीवन के कारण समाज और अपने, दोनों से कटने का अलगाव भोग रहा है। ईश्वर की मृत्यु, प्रवासी जीवन, असुरक्षा एवं मूल्यहीनता की स्थिति ने निहत्थे व्यक्ति को अकेला कर दिया है। स्थिति और नियति ने प्रत्येक पर उसे व्यर्थताबोध के अहसास से बाँध दिया है। उनके यहाँ अतीतजीवी होने के कारण भी पात्र अकेले-अजनबी हो गये हैं। इस अपरिचय के मूल में अतिपरिचय, महानगरीय यांत्रिकता एवं पात्रों की यायावरी-वृत्ति भी है। प्रेम, सेक्स और विवाह की समस्या उनकी कहानियों का ऐसा मूल प्रतिपाद्य जो मानव के व्यक्तित्त्व को तोड़ने वाला है। प्रेम से ही व्यक्ति एकाकी हो जाता है। संबंधों की कटुता, रंगभेद की कसक, युद्ध का आतंक, अत्याचार, बेकारी की विभीषिका, भूख की नग्नता तथा अर्थलोलुपताजन्य भ्रष्टाचार उनकी कहानियों के अन्य वर्ण्य विषय हैं।
 
आज की (नयी) कहानी प्रायः कहानी के पारम्परिक रचना-विधान की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। आलोचकों का मानना है : आज की कहानी के शिल्प-विधान पर बात करना, कहानी समीक्षा को आज से कुछ दशक पीछे ले जाना है। लेकिन काव्यशास्त्र के मान्य सिद्धांतों की मुखापेक्षी कहानी और आज की कहानी के अन्तर को स्पष्ट करने के लिए इसके बदले रूपबंध पर तनिक विचार लेना उचित रहेगा। कथानक, चरित्र, वातावरण, संवाद, भाषा-शैली, उद्देश्य आदि तत्त्वों के प्रति न तो आज का कहानीकार सचेत हैं और न ही समीक्षा के मानदण्ड कोई मूल्य रखते हैं। आज की कहानी में कथ्य और शिल्प परस्पर गुँथे हुए हैं। प्रत्येक कथ्य अपने उपयुक्त शिल्प स्वयं ढूँढ लेता है। किसी भी उत्कृष्ट कहानीकार के समक्ष कहानी की भाषा और शिल्प की समस्या नहीं है। मूलतः आज की कहानी कथा-शिल्प, भाषा-शैली, वातावरण और संवेदना को सम्मिलित इकाई के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास की ओर अग्रसर रही है। 

निर्मल की कहानियाँ शिल्प-प्रधान कहानियाँ नहीं हैं। उनकी कहानियाँ संलिष्ट शिल्प की कहानियाँ हैं : एक ही कहानी में भिन्न-भिन्न शिल्प मिल जाते हैं। यह कहानी झूठे रूपवाद से मुक्त है। कमलेश्वर के शब्दों में- इसे 'निर्गुण, निराकार विलीन' शैली की कहानियाँ कह सकते हैं जो कथ्य के कण में ऊर्जा के समान विद्यमान है। उनकी कहानियों में गद्यगीत का शिल्प प्रलापीय शिल्प, एक कथा के अन्तर्गत अनेक कथा-नियोजन का शिल्प, आवर्तक शिल्प, प्रतीकात्मक एवं बिम्बात्मक शिल्प तथा समाप्ति से आरम्भ कर शिल्प-प्रयोग पाया जाता है। इनके अतिरिक्त कथानक का ह्रास तथा चेतन प्रवाह एवं पूर्वदीप्ति का शिल्प भी उनमें पाया जाता है, जो पश्चिम का प्रभाव है। 

निर्मल की भाषा ने कथ्य के अनुरूप चिन्तन एवं भावात्मकता का वरण किया है। यह ऐतिहासिक परम्परा का आत्मसात् करके युगानुरूप गति को अपनाने वाली साहित्यिक भाषा है। इसीलिए अंग्रेजी का पुट इसमें अंतर्राष्ट्रीयकरण की प्रवृत्ति दिखाता है, उर्दू का पुट इसे हिन्दुस्तानी बनाता है। तत्सम शब्द इसकी ऐतिहासिक संपृक्तता स्पष्ट करते हैं और कोमल, कांत पदावली इसे साहित्यिक बनाती है। उपमा, विशेषण, मानवीकरण, बिम्ब विधान एवं प्रतीकात्मकता इस भाषा को अर्थगर्भित और साहित्यिक बनाते हैं। सूत्रवाक्य कहानीकार की समास पद्धति, लोकानुभव एवं चिंतनगत प्रौढ़ता का परिचय देते हैं। यह भाषा न शुद्ध जनवादी है, न छायावादी, न अस्तित्ववादी। इसमें इन सबका कथ्य के अनुरूप सानुपातिक प्रयोग हुआ है।

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