महाकवि बिहारी लाल ने नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है

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महाकवि बिहारी लाल ने सामान्य मनुष्यों के लिए नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है बिहारी का व्यवहार ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था व्यक्ति के जीवन को सफल और उन्न

महाकवि बिहारी लाल ने सामान्य मनुष्यों के लिए नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है


बिहारी का व्यवहार ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। फलतः उन्होंने मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में अनेक नीतिपरक दोहे कहे हैं, जिनमें लोक-व्यवहार की शिक्षा के साथ-साथ हितकर मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है।
 
पारिवारिक जीवन के लिए उनका सन्देश है कि परिवार में यदि सौमनस्य और सौहार्द्र हो तो अन्न-वस्त्र की कमी भी सही जा सकती है। वे कबूतर को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे पक्षी ! संसार में एकमात्र तू ही सुखी है; क्योंकि तू किसी पर निर्भर न होकर सदा अपनी कबूतरी के साथ प्रेमभाव से रहता है और अपने पंखों को ही वस्त्र तथा कंकड़ियों को ही भक्ष्य (खाद्य-पदार्थ) बनाकर स्वाभिमान का जीवन जीता है-
 
पटु पाँखै भखु काँकरै, सपर परेई संग । 
सुखी, परेवा, पुहुमि मैं, एकै तुही बिहंग ॥
 
पारिवारिक परिवेश में कुलवधू किस प्रकार अपनी मर्यादा का पालन करती है। देवर द्वारा छेड़ने पर भी वह उसको छिपाये ही रहती है-
 
'कहति न देवर की कुबत, कुलतिय कलह डराति' ।
 
महाकवि बिहारी लाल ने सामान्य मनुष्यों के लिए नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा की है
धार्मिक व्यक्ति के लिए उनका कहना है कि जप, माला, छापा, तिलक आदि बाह्य आडम्बर व्यर्थ हैं; क्योंकि मन जब तक विषय-भोगों में आसक्त है, तब तक भगवत्कृपा प्राप्त नहीं हो सकती। उसके लिए तो मन में प्रभु के लिए सच्चा प्रेम होना चाहिये-
 
जपमाला, छापा तिलक, सरै न एकौ काम । 
मन काँचे नाँचे वृथा, साँचे राँचे राम ॥ 

पर बिहारी का सर्वाधिक बल वैयक्तिक जीवन को सुधारने पर है; क्योंकि व्यक्तिगत आदर्श ही सफल समाज की धुरी हैं। उन्होंने व्यक्ति को स्वाभिमान का जीवन जीने की प्रेरणा दी है तथा दीन बनकर दूसरों के सामने गिड़गिड़ाते फिरने की कड़ी निन्दा की है।
 
व्यक्ति को अपना व्यय भी सीमित रखना चाहिये। आय बढ़ाने के साथ खर्च बढ़ाते नहीं जाना चाहिये; क्योंकि खर्च बढ़ा देना तो आसान है, पर आय घटने पर खर्च घटाना सम्भव नहीं होता, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति समूल नष्ट हो जाता है-

बढ़त बढ़त संपति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ । 
घटत घटत सु न फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ ॥
 
वे सत्संग की प्रशंसा करते हैं, क्योंकि उससे व्यक्ति की उन्नति होती है और कुसंगति की निन्दा करते हुए उसे त्याज्य बताते हैं-
 
अजौं तना ही रह्यौ, श्रुति सेवक इक रंग । 
नाक बास बेसरि लह्यौ, बसि मुकतनु के संग ॥
 
सज्जनों की विशेषता यह है कि उनका प्रेम यदि किसी से एक बार हो जाये तो वह स्थायी रहता है, चाहे वह मित्र विपत्तिग्रस्त या अभावग्रस्त ही क्यों न हो जाये। जिस प्रकार पक्का रंग छूटता नहीं, चाहे कपड़ा फट जाये उसी प्रकार सज्जन साथ नहीं छोड़ते- 

चटक न छाड़त घटतहूँ सज्जन-नेह गंभीर । 
फीको परै न, बरु फटै, रंग्यौ चोल रंग चीर ।।
 
संयत जीवन का सन्देश -राजा की विलासिता को देखकर बिहारी अधीर हो उठे और इस दोहे का निर्माण करके विलासी राजा की आँखें खोल दीं-
 
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल । 
अली कली ही सों विध्यौ, आगे कौन हवाल ।।
 
राजनीतिक क्षेत्र के सम्बन्ध में उनका कहना है कि जिस देश में दो राजा होंगे (अर्थात् जहाँ किसी एक व्यक्ति का व्यवस्थित शासन और अनुशासन न होगा और अनेक व्यक्ति अपनी-अपनी चलाएँगे) वहाँ दुःख-द्वन्द्व ही बढ़ेगा-
 
दुसह दुराज प्रजानु कौं, क्यौं न बढ़े दुःख-दंदु । 
अधिक अँधेरी जग करत, मिलि मावस रवि-चंदु ॥ 

इस प्रकार महाकवि बिहारी ने व्यक्ति के जीवन को सफल और उन्नत बनाने के लिए अनेक बहुमूल्य परामर्श दिये हैं तथा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं पारिवारिक जीवन की सफलता के लिए बहुत उपयोगी सुझाव प्रस्तुत किये हैं। 

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