महाकवि केशवदास की भाव व्यंजना की समीक्षा महाकवि केशवदास अलंकारवादी कवि थे। वे अलंकारविहीन कविता को कविता ही नहीं मानते थे भावपक्ष उतना पुष्ट नहीं, जित
महाकवि केशवदास की भाव व्यंजना की समीक्षा
महाकवि केशवदास अलंकारवादी कवि थे। वे अलंकारविहीन कविता को कविता ही नहीं मानते थे—'भूषण बिनु न विराजहीं कविता, बनिता, मित्त' (कविता, कामिनी और मित्र बिना अलंकारों के सुशोभित नहीं होते)। वे रस को भी अलंकारों के ही अन्तर्गत मानते थे। फलतः केशव ने अपने काव्य में अलंकारों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया, जिससे उनके प्रबन्धकाव्य 'रामचन्द्रिका' के प्रवाह में बाधा पड़ी है और उसके काव्य-सौन्दर्य को बहुत आघात पहुँचा है।
रस योजना
केशव मुख्यतः शृंगारी कवि थे, इसलिए उनके काव्य में शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के सुन्दर चित्र मिलते हैं। 'रामचन्द्रिका' की अपेक्षा 'रसिक प्रिया' में केशव की रसमर्मज्ञता के पग-पग पर दर्शन होते हैं। 'रसिक प्रिया' से संयोग शृंगार का यह चित्र कितना रमणीक है-
लाज के साज घरेई रहे तब, नैनन लै मनहौं सों मिलाये कैसे करौं,
अब क्यों निकसौं री, हरे ही हरे हिय में हरि आये ।।
नायिका के मन में कृष्ण के प्रेमोदय का यह कैसा स्वाभाविक क्रमिक चित्र है । इसी प्रकार कृष्ण के वियोग में एक नायिका का निम्न चित्र द्रष्टव्य है-
हरित हरित हार हेरत हियो हरत, हारी हौं हरिन-नैनी हरि न कहूँ लहौं।
वनमाली ब्रज पर बरसत वनमाली, वनमाली दूर दुःख केशव कैसे सहौं ?
वीर रस
वीर रस का परिपाक भी उनकी रचनाओं में सुन्दर हुआ है। 'रतन बावनी' में इस रस का बड़ा ओजस्वी चित्रण मिलता है। 'रामचन्द्रिका' में राम-रावण युद्ध और राम-लवकुश युद्ध के प्रसंगों में वीर रस का वर्णन मिलता है। वीर रस के अन्तर्गत ओज गुण का एक बड़ा मार्मिक चित्र राम द्वारा शिव-धनुष तोड़ने में मिलता है-
प्रथम टंकोर झुकि झारि संसार मद ।
चंड कोदंड रह्यो मंडि नवखंड को ॥
इसके अतिरिक्त रौद्र, बीभत्स आदि रसों की व्यंजना भी केशव ने सुन्दर की है ।
करुण रस
करुण रस के वर्णन में भी केशव को पर्याप्त सफलता मिली है; जैसे लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम का शोक इन शब्दों में प्रकट हुआ है -
लक्ष्मण राम जहीं अवलोक्यो, नैनन ते न रह्यो जल रौक्यो।
बारक लक्ष्मण मोहिं विलोको, मो कहँ प्राण चले तजि रोको ।।
प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग
केशव को कठिन काव्य का प्रेत, हृदयहीन आदि कहकर पुकारा जाता है। उनकी रचना में संस्कृत शब्दों की भरमार है। उन्होंने पाण्डित्य-प्रदर्शन की दृष्टि से शब्दों से खिलवाड़ किया है। इतना होते हुए भी केशव ने प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। उनका भाषा पर असाधारण अधिकार था। उन्होंने राजदरबार के दृश्य में दरबारी भाषा, शोक के समय करुणामयी भाषा तथा वीर रस के प्रसंग में ओजपूर्ण भाषा का प्रयोग किया है। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम के शोक की अभिव्यक्ति कितनी मार्मिक बन पड़ी है-
लक्ष्मण राम जहीं अवलोक्यो, नैनन ते न रह्यो जल रौक्यो ।
बारक लक्ष्मण मोहिं विलोको, मो कहँ प्राण चले तजि रोको ॥
श्रीराम द्वारा शिव-धनुष तोड़ने पर उनकी भाषा अत्यधिक ओजपूर्ण हो गयी है-
प्रथम टंकोर झुकि झारि संसार मद ।
चंड कोदंड रह्यो मंडि नवखंड को ॥
निष्कर्ष - इस प्रकार केशवदास को रस-योजना में भी स्थान-स्थान पर काफी सफलता मिली है। यह अवश्य है कि उनका भावपक्ष उतना पुष्ट नहीं, जितना कलापक्ष; क्योंकि वे रस-सिद्धान्त के अनुयायी न थे।
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