बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ

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बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ बिहारी के काव्य की विशेषताएं कवि बिहारी की काव्य कला महाकवि बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं सतसई हिंदी साहित्य रस

बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ


बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ बिहारी के काव्य की विशेषताएं कवि बिहारी की काव्य कला महाकवि बिहारी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनकी एकमात्र रचना सतसई हिंदी साहित्य का एक अमूल्य रत्न है।बिहारी का काव्य मुख्यतः श्रृंगार रस प्रधान है। उन्होंने श्रृंगार रस के विभिन्न पक्षों, जैसे- नायक-नायिका के रूप-सौंदर्य, प्रेम-विरह, मिलन-वियोग आदि का अत्यंत सुंदर चित्रण किया है। उनके काव्य में श्रृंगार रस की मधुरता और कोमलता देखते ही बनती है।कविवर बिहारीलाल का जन्म सं० १६६० (सन् १६०३ ई०) के लगभग ग्वालियर के निकट वसुवा गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। वह माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशवराय था। इनकी युवावस्था ससुराल (मथुरा) में ही बीती थी। अधिक दिन तक ससुराल में रहने के कारण इनका आदर कम हो गया; अतः यह खिन्न होकर जयपुर-नरेश महाराज जयसिंह के यहाँ चले गये। इस जीवन में इन्हें अनेक कटु अनुभव प्राप्त हुए, जिनके सम्बन्ध में इनकी सतसई में कई दोहे मिलते हैं।

कहा जाता है कि उस समय जयसिंह अपनी नवोढ़ा रानी के प्रेम में लीन थे; अतः राजकाज बिल्कुल नहीं देखते थे। इस पर बिहारी ने निम्न दोहा लिखकर महाराज के पास भेज दिया- 

नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल । 
अली, कली ही सौं बँध्यो, आगै कौन हवाल ॥

राजा के हृदय पर इस दोहे ने जादू का-सा असर किया। वे पुनः राजकाज में रुचि लेने लगे। इसी समय से बिहारीलाल का आदर राजदरबार में होने लगा।

बिहारी बड़े गुणज्ञ थे। उन्हें अनेक विषयों की जानकारी थी। यह बात उनकी सतसई का अध्ययन करने पर स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद बिहारी को वैराग्य हो गया और वे दरबार छोड़कर वृन्दावन चले गये। वहाँ पर सं० १७२० (सन् १६६३ ई०) के आस-पास उनकी मृत्यु हो गयी।
 

बिहारी की प्रसिद्ध रचना

बिहारी ने ७१९ दोहे लिखे हैं, जिन्हें 'बिहारी सतसई' के नाम से संगृहीत किया गया है। इसकी अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। 'बिहारी सतसई' की-सी लोकप्रियता रीतिकाल के किसी अन्य प्रन्थ को प्राप्त न हो सकी। 

बिहारी के काव्य की विशेषताएं 

बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि थे। इनकी 'सतसई' में नायिका भेद, नखशिख-वर्णन, विभावों, अनुभावों तथा संचारी भावों आदि का चित्रण प्रमुख रूप से पाया जाता है, जो रीतिकाल की परम्परा के अनुकूल है। दोहे जैसे छोटे छन्द में बिहारी ने भाव का सागर लहरा दिया है। यह वास्तव में गागर में सागर भरने जैसा कार्य है। इसी विशेषता के कारण उनके दोहों की प्रशंसा करते हुए किसी कवि ने कहा है- 

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर । 
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ॥
 

सौन्दर्य के चितेरे

बिहारी की काव्यगत विशेषताएँ
बिहारी सौन्दर्य के रस सिद्ध कवि थे। इन्होंने बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के सौन्दर्य का सुन्दर चित्रण किया है। कृष्ण के बाह्य सौन्दर्य का एक चित्र निम्नांकित है- 

सोहत ओढ़ें पीतु पटु, स्याम सलौनैं गात । 
मनौ नीलमनि-सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ।। 

प्रकृति चित्रण 

बिहारी ने प्रकृति का कहीं-कहीं आलम्बन-रूप में भी चित्रण किया है, जो रीतिकाल के कवियों में कम मिलता है ।  वसन्त ऋतु का निम्न चित्र द्रष्टव्य है- 

छकि रसाल-सौरभ सने, मधुर माधवी गन्ध । 
ठौर-ठौर झूमत झपत, भौर झौर मधु अन्ध ।। 

भक्ति भावना

बिहारी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उनका अधिकतर जीवन भगवद्भक्ति में बीता । अपने भक्ति सम्बन्धी दोहों में उन्होंने सच्ची और दृढ़ भक्ति पर बल दिया। उनकी भक्ति सखा भाव की है। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक मन में कपट है तब तक भगवान की प्राप्ति असम्भव है। 

तौ लौ या मन सदन में, हरि आवे केहि बाट । 
निपट जटै जों लौ विकट, खुले न कपट कपाट । 

मुक्तक कवि के रूप में

मुक्तक काव्य में सफलता पाने के लिए कवि में दो बातों का होना नितान्त आवश्यक है-
  • भावों को समेटने की शक्ति, 
  • थोड़े शब्दों में अधिक बात कह सकने की क्षमता। 

बिहारी में दोनों गुण पूर्ण रूप में विद्यमान् थे। उन्होंने अपने दोहों में व्यंजना का सहारा लेकर बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहकर चमत्कार कर दिखाया है। 

अनुभाव योजना

अनुभावों की योजना में बिहारी बड़े कुशल हैं। थोड़े-से शब्दों में वे एक पूरा सवाक् चित्र-सा खड़ा कर देते हैं- 

कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात । 
भरे धौन मैं करत हैं, नैननु हीं सौं बात ॥ 

इसमें कवि ने नायक और नायिका का पूरा वार्त्तालाप आँखों के इशारों-ही-इशारों में करा दिया है। 

रस योजना 

बिहारी मुख्यतः श्रृंगारी कवि थे, यद्यपि इनके दोहों में हास्य, शान्त आदि रसों का भी परिपाक मिलता है। इन्होंने संयोग शृंगार का कितना सुन्दर चित्रण किया है- 

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ । 
सौंह करै, भौंहनु हँसे, दैन कहैं नटि जाइ ॥ 

बहुज्ञता

बिहारी का व्यवहार ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। इनके दोहों से इनके दर्शन, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विविध शास्त्रों के ज्ञान का पता चलता है। 

शृंगार वर्णन

बिहारी को सर्वाधिक सफलता शृंगार वर्णन में मिली है। श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का चित्रण करने में उन्होंने अपूर्व कौशल दिखाया है। प्रेमिका के संयोग श्रृंगार का चित्रण कितना मनोहारी है— 

कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ। 
पीठ दियै निधरक लखै, इकटक डीठि लगाइ ॥ 

भाषा

इनकी भाषा ब्रज भाषा है, जिसमें कहीं-कहीं बुन्देली, अरबी, फारसी आदि के शब्द भी पाये जाते हैं। मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा में बहुत प्रवाह आ गया है। बिहारी की भाषा इतनी सुगठित है कि उसका एक शब्द भी अपने स्थान से हटाया नहीं जा सकता । शैली - बिहारी की शैली विषय के अनुसार बदलती है। भक्ति एवं नीति के दोहों में प्रसाद गुण की तथा श्रृंगार के दोहों में माधुर्य एवं प्रसाद की प्रधानता है। 


अलंकार विधान

बिहारी ने अलंकारों का अधिकारपूर्वक प्रयोग किया है। असंगति अलंकार का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- 

दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित प्रीति । 
परति गाँठि दुरजन हियै, दई, नई यह रीति ॥ 

निष्कर्ष- संक्षेप में हम कह सकते हैं कि बिहारी उच्चकोटि के कवि एवं कलाकार थे। असाधारण कल्पना-शक्ति, मानव-प्रकृति कें सूक्ष्म ज्ञान तथा कला-निपुणता ने बिहारी के दोहों में अपरिमित रस भर दिया है। इन्हीं गुणों के कारण इन्हें रीतिकालीन कवियों में अत्युच्च स्थान प्राप्त हुआ है। 

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