कबीरदास की साखी का अर्थ | कबीर की साखी की विशेषता

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कबीरदास की साखी का अर्थ कबीर की साखी की विशेषता कबीर की साखियों में किस भाव की प्रधानता है समाज सुधारक धर्म सुधारक आध्यात्मिक ज्ञान प्रभु के दर्शन

कबीरदास की साखी का अर्थ | कबीर की साखी की विशेषता


बीरदास की साखी का अर्थ कबीर की साखी की विशेषता साखी शब्द संस्कृत के 'साक्षी' का बिगड़ा हुआ रूप है। 'साक्षी' का अर्थ है 'वह व्यक्ति जो किसी घटना का प्रत्यक्ष द्रष्टा हो । इसी से 'साक्षी' शब्द बाद में ‘चश्मदीद गवाह (प्रत्यक्षदर्शी गवाह) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा अर्थात् वह व्यक्ति जिसके सामने कोई घटना घटित हुई हो। एक विद्वान् के अनुसार, 'साखी का प्रयोग सन्तों की उस छन्दोमयी रचना (दोहों) के लिए होता है, जिसमें उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अभिव्यक्ति दी है और जिसकी प्रामाणिकता के लिए वे स्वयं साक्षी थे।' 

कबीरदास के शिष्यों ने बाद में उनकी वाणी का जो संग्रह किया उसमें दोहों को 'साखी' कहा, जो सर्वथा युक्तियुक्त है; क्योंकि कबीरदास ने इन साखियों में जो भी कुछ कहा, वह उनका किसी से सुना-सुनाया न होकर प्रत्यक्ष अनुभूत था। उन्होंने जो कुछ लिखा है, स्वयं अपने ऊपर अनुभूत करके ही लिखा है। उदाहरण के लिए- 

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर-भीतर पानी। 
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तथ कथौ नियानी || 

अतः कबीर के दोहों को ‘साखी' कहने का आशय यही है कि इसमें वर्णित सम्पूर्ण विषय कवि द्वारा प्रत्यक्षानुभूत है और इसीलिए पूर्णतः प्रामाणिक हैं। इस प्रकार के दोहों के लिए 'साखी' शब्द का प्रयोग सर्वथा समीचीन (उचित) है। स्वयं कबीर ने साखी के विषय में कहा है- 

साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहिं । 
बिन साखी संसार कौं, झगरा छूटत नाहि ॥ 

कबीर की साखियों में किस भाव की प्रधानता है ?

कबीरदास की साखियाँ उनके काव्य का सबसे प्रामाणिक अंश हैं और उनके सिद्धान्तों की जानकारी का सर्वोत्तम साधन भी। साखियों में कबीर के सुधारक और भक्त दोनों ही रूप पूरी तरह उभरकर सामने आये। इस प्रकार कबीर का सम्पूर्ण व्यक्तित्व साखियों के माध्यम से भली-भाँति जाना जा सकता है।

कबीरदास की साखी का अर्थ | कबीर की साखी की विशेषता
कबीर यद्यपि मूलतः भक्त थे और भगवद्भक्ति का प्रचार ही उनका मुख्य लक्ष्य था, पर इसके लिए उन्हें हिन्दू-समाज में व्याप्त विषमताओं-जाति-पाँति, छुआछूत, खान-पान आदि सम्बन्धी व्यवहारों और मुसलमानों में प्रचलित कुप्रथाओं; जैसे—चचेरी बहन ब्याहना, खतना या सुन्नत कराना आदि का प्रबल खण्डन करके मानव की सर्वोपरिता का प्रतिपादन करना पड़ा। साथ ही हिन्दू धर्म और इस्लाम में व्याप्त मिथ्याडम्बर, अन्धविश्वास आदि पर प्रबल प्रहार करके धर्म के प्रकृत या वास्तविक स्वरूप की प्रतिष्ठा करनी पड़ी। उनके अनुसार आडम्बर या पाखण्ड से परे एक सहज, सादे और नैतिक जीवनयापन का नाम धर्म है, जिसका अन्तिम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति है। इस धर्म के क्षेत्र में हिन्दू, मुसलमान आदि कोई विभाग नहीं। इसमें तो सद्गुणों को धारण करते हुए आनन्द तथा प्रेम द्वारा उस परम प्रभु की प्राप्ति के लिए सतत उद्योग करना ही एकमात्र कर्तव्य है । 

इस प्रकार कबीर के समाज-सुधारक और धर्म-सुधारक के रूप वस्तुतः भगवत्साधना के अंगभूत होकर, उसकी (साधना की) आरम्भिक तैयारी के रूप में ही आये हैं, न कि एक उपदेशक का मिथ्याभिमान लेकर व्यक्त हुए हैं। 
कबीर सम्पत्ति या वैभव के अभिमान को मिथ्या बताते हुए कहते हैं- 

कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास । 
काल्हि पयूँ वैं लोटणों, ऊपरि जामै घास ॥ 

उन्होंने हिन्दुओं में व्याप्त तीर्थाटन, उपवास आदि बाह्याचारों का डटकर विरोध किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन वे इन शब्दों में करते हैं- 

पाहन केरा पूतना, करि पूजै करतार । 
इसी भरोसे जे रहें, ते बूड़े काली धार ॥ 

इसी प्रकार मुसलमानों के बाह्याचारों पर भी उन्होंने कसकर प्रहार किया है और इस समस्त कर्मकाण्ड को छोड़कर मन की शुद्धि और प्रभु से प्रेम पर बल दिया - 

रोजा करि जिबहै करैं कहते हैं ज हलाल । 
जब दफ्तर देखेगा दई, तब हैगा कौन हवाल | 

आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत कबीर ने अपनी साखियों में ब्रह्म, जीव, जगत, माया आदि सभी विषयों का गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया है, पर अन्त में सार-रूप में यही प्रतिपादित किया है कि पुस्तकीय पाण्डित्य से भगवान् नहीं मिलते। इस दृष्टि से उन्होंने साधना कि विभिन्न सोपानों का भी बड़ा मार्मिक वर्णन अपनी साखियों में किया है और भगवत्प्राप्ति के लिए प्रेम की साधना- विरह की साधना पर सर्वाधिक बल दिया है। जब साधक साधना करते-करते परमात्मा को पहचान लेता है तो उसकी प्राप्ति में उसे असीम सुख की प्राप्ति अनुभव होती है। तभी जीव भगवान् के विरह में तड़पने लगता है, उसे एक-एक क्षण बिताना दूभर हो उठता है, प्रभु के दर्शन के प्राप्ति जीवित रहना असह्य हो उठता है, तब वे प्रभु अवश्य कृपा करते हैं। इसी रूप में कबीर साखियों में अपने उच्चतम कवि-रूप में दिखायी पड़ते हैं। 

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि कबीर की साखियों का मुख्य प्रतिपाद्य भगवद्भक्ति है और उनका सुधारक रूप इसी के अंगरूप में आया है।

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