कबीर की काव्यगत विशेषताएँ | Kabir Ke Kavya Ki Visheshta

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कबीर की काव्यगत विशेषताएँ कबीरदास की काव्यगत विशेषताएँ kabirdas ki visesta hindi sahitya hindi literature kabir Das ki Kavyagat vishestayein हिंदी

कबीर की काव्यगत विशेषताएँ


बीरदास की काव्यगत विशेषताएँ kabirdas ki visesta hindi sahitya hindi literature kabir Das ki Kavyagat vishestayein कबीरदास के भाव सौंदर्य की दो विशेषताएं बताइए कबीर दास की काव्यगत विशेषताएं Kabir Das ki Kavyagat हिंदी साहित्य का इतिहास - हिन्दी के सन्त कवियों में कबीरदास का सर्वोच्च स्थान है। सन्त काव्य धारा के ज्ञानाश्रयी निर्गुण भक्ति काव्य के प्रवर्तक, युग पुरुष एवं युग निर्माता कबीर का जन्म संवत् 1455 (सन् 1398), के लगभग माना जाता है। कहा जाता है कि काशी के प्रसिद्ध महात्मा स्वामी रामानन्द ने भूल से किसी विधवा ब्राह्मणी को पुत्रवती होने का वरदान दे दिया। कबीर को उसी विधवा ब्राह्मणी ने जन्म दिया तथा लोक-लज्जा के कारण बालक को काशी के लहरतारा नामक तालाब के किनारे फेंक दिया। वहाँ से एक मुस्लिम जुलाहा दम्पत्ति नीरु और नीमा ने उस बालक को उठा लिया तथा उसका पालन-पोषण किया। वही बालक एक दिन संत कबीर के नाम से विख्यात हुआ। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में भी विवाद हैं किन्तु अधिकांश विद्वान इनकी मृत्यु सन् 1495, में मगहर में होना मानते हैं।
 
कबीर की काव्यगत विशेषताएँ
कबीर ने प्रसिद्ध वैष्णव सन्त स्वामी रामानन्द से दीक्षा प्राप्त की। वैसे तो कुछ लोग इन्हें सूफी संत शेख तकी का शिष्य भी मानते हैं । किन्तु इन्होंने स्वयं लिखा है- 

"काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चैताये । " 

कबीर के काव्य को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वे पढ़े-लिखे नहीं थे किन्तु उनके द्वारा लिखी गई निम्नलिखित उक्ति "मसि कागद छुयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ इस बात को सिद्ध करती है कि उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था ।किन्तु साधु सन्तों की संगति में रहकर उन्होंने भरपूर ज्ञान अर्जित कर लिया था तथा स्वामी रामानन्द को अपना गुरु मानकर काव्य रचना व काव्य पाठ करने लगे। कबीर का विवाह भी हुआ। इनकी पत्नी का नाम लोई था तथा इनके दो सन्तानें भी उत्पन्न हुईं। जिनका नाम कमाल और कमाली था। कबीर का अधिकांश समय साधु सन्तों की संगति में ही व्यतीत होता था । 

कबीर की रचनाएँ 

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे वे तो केवल समाज की परिस्थितियों के अनुरूप अनगढ़ भाषा में कुछ भी कह देते थे; किन्तु उनका कुछ भी कह देना साधारण नहीं था। उन्होंने किसी विशेष ग्रन्थ की रचना नहीं की, कबीर के शिष्यों ने ही उनके उपदेशों का संकलन किया, जो 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-साखी, सबद तथा रमैनी। साखी में इनके ज्ञान, दर्शन और अनुभव से भरे हुए दोहे हैं। सबद गेय पद रचनाएँ हैं जिसमें कबीर द्वारा अन्धविश्वास तथा प्राचीन रुढियों पर तीखा प्रहार किया गया है। रमैनी की रचना पदों और चौपाइयों में है इसमें कबीर द्वारा अपने अलौलिक प्रियतम से प्रणय निवेदन तथा तत्व चिन्तन का वर्णन किया गया है।
 

कबीर के काव्य की विशेषताएं

कबीर निर्गुण तथा निराकार ईश्वर के उपासक थे। ये एक फक्कड़ सन्त थे उनके पदों में समाज-सुधारक का निर्भीक स्वर सुनाई पड़ता है इन्होंने मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड तथ बाह्य आडम्बरों का खुलकर विरोध किया। उनका ध्येय केवल कविता करना नहीं था वे समाज में व्याप्त रुढ़ियों तथा धार्मिक कुरीतियों का अन्त करके कल्याण का मार्ग दिखाना चाहते थे। कबीर के काव्य की विशेषताएँ इस प्रकार हैं- 

  • भक्ति-भावना - कबीर निराकार ब्रह्म के उपासक थे। उन्होंने राम, हरि, गोविन्द आदि नामों का प्रयोग अपने निर्गुण ब्रह्म के लिए किया है। उनके राम सर्वव्यापक और सर्वकालिक हैं। उनका ब्रह्म अरूप, अनाम, अजन्मा, अनुपम और सूक्ष्म है। 
  • गुरु की महत्ता - गुरु की महिमा अनन्त है क्योंकि वही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाता है- 
सतगुरु की महिमा अनन्त, अनंत किया उपकार । 
लोचन अनंत, उघाड़ियाँ, अनंत दिखावनहार ॥ 
  • मानव जीवन की दुर्लभता एवं प्रेम का महत्व - कबीर दास जी को पता था कि जीवात्मा चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य के रूप में जन्म लेती है । अतः ईश भक्ति और प्रेम के द्वारा इसे परमात्मा की प्राप्ति करनी चाहिए । हमें ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस जीवन का सदुपयोग करना चाहिए। 
दुर्लभ मानुस जनम है, देह न बारंबार । 
तरवर थै फल झड़ि पड्या, बहुरि न लागै डार ॥ 
  • सत्य के उपासक - कबीर सत्य के उपासक थे। वे सच को सबसे बड़ा तप और झूठ को सबसे बड़ा पाप मानते थे। उन्होंने कथनी और करनी में समन्वय, सरल एवं सीधे- सादे जीवन पर बल दिया। देखिए- 
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । 
जाके हिरदै साँच है, ताकै हिरदै आप ॥ 
  • धर्म समन्वय - कबीर के काव्य में धर्म समन्वय की भावना दिखाई देती है। वे सभी धर्मों को समान महत्व तथा सम्मान देने की बात कहते हैं। उन्होंने सभी धर्मों के बाह्य आडम्बरों का खुलकर विरोध किया है। वे मूर्ति पूजा के सख्त विरोधी थे। उन्होंने माला फेरने वाले हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों के दिखावे का विरोध करते हुए उन्हें फटकारा है। इस सम्बन्ध में उनके निम्न दोहे दृष्टव्य हैं- 
हिन्दुओं के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है- 

माला फेरत जुग भया, गया न मनका फेर । 
कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ॥ 

मुस्लिमों के लिये कहा है-
 
काकाँकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई चुनाय 
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ॥ 
  • समाज सुधारक -  कबीर उदार विचारों के सन्त थे । वे धार्मिक संकीर्णता, जाति- भेद, साम्प्रदायिकता, अन्ध-विश्वास, पाखण्ड और आडम्बर, मूर्ति-पूजा, कर्मकाण्ड, तीर्थ- व्रत, रोजा-नमाज और मन्दिर-मस्जिद आदि के प्रबल विरोधी थे। उन्होंने पण्डे-पुजारियों और ब्राह्मणों के पाखण्डों का भण्डाफोड़ किया। काजी और मुल्लाओं की पोल खोली तथा उन्हें खरी-खोटी सुनाई। वास्तव में वे क्रान्तिकारी समाज सुधारक और युग-निर्माता सन्त थे । 
  • भाषा -  कबीर की भाषा में अरबी, फारसी, अवधी, राजस्थानी, पंजाबी आदि का मिश्रण है। इसीलिए इनकी भाषा को 'सधुक्कड़ी' या 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। इन्हें भाषा का "डिक्टेटर" कहा जाता है। इनकी भाषा साहित्यिक न होते हुए भी स्वाभाविक एवं विचार सौन्दर्य से पूर्ण है। इन्होंने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में तत्कालीन समाज में व्याप्त आडम्बरों तथा रुढ़ियों पर तीव्रतम आघात किया।
  • शैली - कबीर के व्यक्तित्व की छाप उनकी शैली पर भी है। वह प्रभावशाली, हृदयस्पर्शी और ओजपूर्ण है। शैली में तीन रूप प्रमुख हैं- (अ) सरल एवं सुबोध शैली, (ब) व्यंग्यपूर्ण एवं ओजपूर्ण शैली तथा (स) जटिल एवं रहस्यपूर्ण शैली। 
  • रस, छन्द एवं अलंकार - कबीर की कविता में संयोग और वियोग रस पर्याप्त मात्रा में है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के वर्णन में शान्त रस है। रहस्यमयी उलटबांसियों में अद्भुत रस है । 



कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। उनके काव्य में अलंकार स्वाभाविक रूप से आ गये हैं। रूपक और उपमा तो बड़े ही सुन्दर बन पड़े हैं। अतिशयोक्ति, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि अलंकारों के भी दर्शन होते हैं। कबीर का काव्य मुक्त शैली में हैं। उनके अधिकांश पद गेय हैं। उन्होंने दोहा, चौपाई, हिंडोला, कहरवा आदि छन्दों का प्रयोग किया है।
 

कबीरदास जी का हिंदी साहित्य में स्थान

कबीर सच्चे अर्थों में युग-द्रष्टा थे, जिन्होंने जीवन-भर अपनी सधुक्कड़ी भाषा में तत्कालीन समाज में व्याप्त रूढ़ियों और आडम्बरों पर डटकर चोट की। इसीलिए वे युग-निर्माता एवं एक क्रान्तिकारी महात्मा के रूप में पूजनीय हैं। 


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