बिहारी की भक्ति भावना की समीक्षा

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बिहारी की भक्ति भावना की समीक्षा बिहारी रीतिकाल के एक प्रसिद्ध कवि थे, जो अपनी शृंगार रस की रचनाओं के लिए जाने जाते हैं।लेकिन उनकी रचनाओं में भक्ति

बिहारी की भक्ति भावना की समीक्षा


बिहारी रीतिकाल के एक प्रसिद्ध कवि थे, जो अपनी शृंगार रस की रचनाओं के लिए जाने जाते हैं।लेकिन उनकी रचनाओं में भक्ति भावना का भी दर्शन होता है।उनकी भक्ति भावना प्रेम, शरणागति, आत्मसमर्पण और सौंदर्य बोध से युक्त है।यह भक्ति भावना उनकी रचनाओं को और भी समृद्ध और मनोरंजक बनाती है।

बिहारी मूलतः शृंगारी कवि हैं, किन्तु वृद्धावस्था में उन्हें बहुत कष्ट उठाने पड़े, जिससे उनका मन वैराग्य की ओर मुड़ गया और उनके मुख से कुछ भक्तिपरक उद्गार निकले । शृंगार और भक्ति का मुख्य भेदक लक्षण आलम्बन के स्वरूप की भिन्नता में है । शृंगार का आलम्बन लौकिक कोई सुन्दर युवा या युवती होता है और उसके प्रति प्रीति प्रायः लौकिक या वासनात्मक होती है, जो परिष्कृत होने पर प्रेम में परिणत हो सकती है। वासना में अपने सुख-भोग का भाव प्रबल रहता है और प्रेम में प्रिय का सुख या कल्याण ही अभीष्ट होता है। भक्ति का आलम्बन अलौकिक (अर्थात् परमात्मा) होता है।
 
बिहारी की भक्ति भावना की समीक्षा
बिहारी के भक्तिपरक दोहे हृदय से निकले प्रतीत होते हैं। अपने आराध्य के रूप का वर्णन करते हुए उनमें सौन्दर्यद्रष्टा कवि की सौन्दर्य-चेतना एवं आराध्य के प्रति अनुराग, दोनों प्रकट होते हैं-
 
मोर मुकुट कटि काछनि, कर मुरली, उर माल । 
यहि बानिक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल ॥
 
बिहारी की रंग-चेतना भी काफी सजग लगती है-

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ । 
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित-दुति होइ ॥ 

संसार से वैराग्य आवश्यक है। बिहारी को किन्हीं क्षणों में संसार की असारता का भान हुआ भगवान् से अनुराग करने के लिए होगा, जिसमें एकमात्र श्रीहरि ही सत्य हैं-

मैं समझ्यौ निरधार, यह जगु काँचो काँच सौ । 
एकै रूप अपार प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ ।।
 
वे मानते हैं कि जब तक मन कपट नहीं उत्पन्न होता, तब तक उनकी प्राप्ति आदि विकारों से सर्वथा मुक्त होकर पूर्णतः परिशुद्ध नहीं हो जाता और भगवान् का सच्चा प्रेम सम्भव नहीं; क्योंकि आडम्बर से भगवान् दूर भागते हैं-
 
तौ लगि या मन-सदन में, हरि आवैं किहि बाट । 
बिकट जटे जौ लौं निपट, खुलैं न कपट-कपाट ।।
 
भगवत्प्राप्ति के लिए अहंकार का सर्वथा त्याग करके दैन्य धारण करना तथा पूर्ण समर्पित भाव से उनकी शरण ग्रहण करना अनिवार्य है- 

हरि, कीजति विनति यहै तुम सौं बार हजार । 
जिहि तिहि भाँति डयौ रह्यौ पर्योौ रहौं दरबार ।।
 
भक्त अपने स्वभाव की कुटिलता को छोड़ना कठिन मानते हुए आत्म निवेदन इस प्रकार करता है-
 
करौ कुबतु जग कुटिलता, तजौं न दीनदयाल । 
दुःखी होउगे सरलहिय, बसत विभंगी लाल ॥

इस प्रकार बिहारी के भक्तिपरक दोहों में उनका सच्चा भक्तिभाव प्रकट हुआ है। 

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