भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।

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भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था वे वाणी के डिक्टेटर थे कबीर की भाषा उनके समय की स्वाभाविक रूप से विकसित भाषा है हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और आने

कबीर की भाषा उनके समय की स्वाभाविक रूप से विकसित भाषा है


बीर की भाषा के सम्बन्ध में अब तक विद्वानों में बड़ा मतभेद रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में कबीर की साखियों की भाषा को 'सधुक्कड़ी' नाम दिया है जिसका तात्पर्य राजस्थानी, पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली है, किन्तु रमैनियों और पदों में उन्होंने पूर्वी बोली के मेल के साथ मुख्यतः ब्रजभाषा माना है। डॉ० बाबूराम सक्सेना ने 'अवधी का विकास' शीर्षक अपने शोधप्रबन्ध में कबीर को अवधी का प्रथम संत कवि माना है। 'कबीर-ग्रन्थावली' (सभा संस्करण) भूमिका में डॉ० श्यामसुन्दर दास ने कबीर की भाषा का निर्णय करना 'टेढ़ी खीर' बताया है। शुक्ल जी के समान वे भी उनकी भाषा को 'खिचड़ी' कहतें हैं और कबीर द्वारा निर्दिष्ट 'मेरी बोली पूरबी' के अनुसार वे 'पूरब' का तात्पर्य अवधी मानने के पक्ष में हैं, किन्तु साथ की बिहारी भाषा का पुट भी वे अस्वीकार नहीं करते। इसके अतिरिक्त वे उस पर खड़ी बोली ब्रज, पंजाबी, राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं का रंग चढ़ा हुआ मानते हैं। 

डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार कबीर की सामान्य भाषा ब्रज है जिसमें भोजपुरी का पुट है। उनका विचार है कि कबीर यद्यपि भोजपुरी क्षेत्र के निवासी थे किन्तु तत्कालीन हिन्दी कवियों की तरह उन्होंने भी प्रायः ब्रज और अवधी का प्रयोग किया। किन्तु जब वे अपनी बोली भोजपुरी में रचना करते थे तो ब्रजभाषा तथा अन्य पश्चिमी बोलियों के तत्व भी उसमें समाविष्ट हो जाते थे। राजस्थानी विद्वानों को कबीर की भाषा पूर्णतया राजस्थानी प्रतीत होती है। सूर्यकरण पारीख ने 'ढोला मारुरा दूहा' की भूमिका में यह संकेत किया है कि कबीर को वैसा ही राजस्थानी कवि कहा जा सकता है जैसाकि 'ढोलामारु' काव्य के रचियता को। 

डॉ० उदयनारायण तिवारी कबीर-काव्य की मूलभाषा भोजपुरी मानते हैं और अपना यह अभिमत प्रकट करते हैं कि जैसा कालान्तर में बुद्ध वचनों की मूल भाषा पालि में अनेक परिवर्तन कर दिये गये थे उसी प्रकार कबीर की वाणी का भी जब प्रसार-प्रचार बढ़ गया तो विभिन्न क्षेत्रों में उस पर विभिन्न रंग चढ़ाए गये। इसलिए उसमें इतनी विविधता मिलती है। 

कबीर की भाषा उनके समय की स्वाभाविक रूप से विकसित भाषा है
डॉ० रामकुमार वर्मा उसको 'अपरिष्कृत' मानते हुए मुख्यतया तीन भाषाओं से प्रभावित मानते हैं- पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी और पंजाबी । वे भी डॉ० उदयनारायण तिवारी की भाँति यह स्वीकार करते हैं कि कबीर की भाषा मूलतः भोजपुरी रही होगी, उस पर पछाँही रंग बाद में उनके भक्तों द्वारा चढ़ाया गया होगा- जैसा बुद्ध वचनों की मूल भाषा बाद में परिवर्तित की गई। बिहार के कुछ विद्वान कबीर को मैथिल मानते हैं। डॉ० सुभद्र झा ने 'संत कबीर की जन्मभूमि, तथा उनके कुछ 'मैथिली पद' शीर्षक निबन्ध में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कबीर का जन्म वस्तुतः मिथिला में हुआ था और वहीं उन्होंने अपना प्रारम्भिक जीवन भी व्यतीत किया था- मैथिली में उन्होंने रचना भी की थी। पं० परशुराम चतुर्वेदी तथा डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत यह तो मानते हैं कि कबीर ने एकाधिक बोलियों का प्रयोग किया, किन्तु उनकी भाषा में प्रमुखता किस बोली को मिली इसके सम्बन्ध में वे अपना स्पष्ट मत नहीं दे सके।
 
कुछ विद्वानों ने कबीर की भाषा की किंचित गम्भीरता से अध्ययन किया, किन्तु वे भी किसी उपयुक्त निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाए। डॉ० शिवप्रसाद सिंह सन्तों की भाषा के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा अभिव्यक्त मतों की आलोचना करते हुए सन्तों की भाषा को खिचड़ी, सधुक्कड़ी, पंचमेल आदि विशेषण देकर ही भाषा विषयक अध्ययन की इयत्ता नहीं मानते। उन्होंने अपने 'ब्रजभाषा' ग्रन्थ में यह स्थापना रखी कि कबीर में भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों को भिन्न-भिन्न काव्य शैलियों में व्यक्त किया और विभिन्न शैलियों में विभिन्न भाषाओ का प्रयोग किया। उनके अनुसार कबीर की खंडनात्मक रचना में प्रायः खड़ी बोली है, इसके विपरीत भक्तिपरक रचनाओं में ब्रजभाषा है और रमैनियों में प्रधानता अवधी है ।

कुछ विद्वानों ने कबीर की भाषा में प्रयुक्त कुछ व्याकरणिक रूपों का वस्तुपरक अध्ययन कर यह स्थापना की है कि कबीर ने अपने युग की परिनिष्ठित काव्यभाषा अथवा ब्रजभाषा में ही कविता की थी। अतः उसमें पूर्वी बोली की प्रधानता नहीं हैं।
 
मतवैभिन्य का कारण
इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर की भाषा के सम्बन्ध में कभी-कभी तो परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं और यदि किसी तथ्य के सम्बन्ध में एकमत हैं भी (जैसे कबीर द्वारा एकाधिकाल बोलियों के प्रयोग में) तो यह अभी निश्चयपूर्वक कुछ विद्वान सिद्ध नहीं किया जा सकता कि कबीर वाणी की आधारभूत बोली कौन सी है ? परस्पर विरोधी विचार मिलने का मुख्य कारण यह है कि रचनाओं के अपेक्षित संस्करण अथवा रूपान्तर मिलते हैं और स्थान -भेद तथा काल भेद के अनुसार भाषा-भेद भी है। पहले इस बात का निश्चय का नहीं हो पाया था कि इसमें कौन-सा रूपान्तर अधिक प्रामाणिक है। कबीर पुस्तक-ज्ञान में विश्वास नहीं करते थे, अतः स्वतः पुस्तक लेखन का बात तो दूर रही, कदाचित अपनी वाणियों को सुव्यवस्थित रूप देकर पुस्तकबद्ध कराने की चिन्ता भी उनको न रही होगा ? उनकी रचनाओं की पुरानी से पुरानी प्रतियाँ सत्रहवीं शताब्दी ई० की हैं जबकि उनका तिरोधार 1448 ई० या अधिक से अधिक 1518-19 ई० में माना जाता है। अतः प्रामाणिकता रूपान्तर के अभाव में उनकी भाषा का वैसा गम्भीर अध्ययन न हो सका जैसा की अपेक्षित था इसलिए उसकी आधारभूत बोली के निर्णय की समस्या भी उलझी ही रही। प्रयाग विश्वविद्यालय के डॉ० पारसनाथ तिवारी ने अनेक हस्तलेखों के आधार पर कबीर की वाणी का पाठालोचनात्मक सिद्धान्तों के आधार पर संपादन किया जो 1961 में प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ के पाठ को लेकर 'कबीर की भाषा' पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई। तीनों शोध कार्यों के निष्कर्षों में विभिन्नता है। फिर भी हम डॉ० महेन्द्र की स्थापना से बहुत हद तक सहमत हैं। वे लिखते हैं- "कबीर की भाषा में अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली इन तीनों भाषाओं का मिश्रण ही अधिक न्यायसंगत तथा वैज्ञानिक होगा। इन तीनों के मिश्रित रूप के साथ राजस्थानी, भोजपुरी तथा पंजाबी के रूपों का सहायक रूप में प्रयोग हुआ है ।"

कबीर की भाषा यद्यपि सादी, अलंकारविहीन और कहीं-कहीं अनगढ़ अथवा अपरिष्कृत भी है, किन्तु उसमें अभिव्यक्ति की आश्चर्यजनक क्षमता है। उनका वर्ण्य विषय आध्यात्मिक है, किन्तु उनके चिन्तन में बासीपन बिलकुल नहीं है बल्कि उसमें स्वानुभति की प्रधानता है। यदि उन्होंने दूसरों की विचार शैली अपनायी भी है तो उसमें उनका निजी चिंतन भी बोलता रहता है। उनकी सरलता का प्रभावोत्पादकता का मूल कारण यही ज्ञात होता है। एक पद में उन्हें हरि भक्त को तीर्थ से बड़ा बताना है। वे नितान्त भोलेपन से इस प्रकार कहते हैं- “ऐ मेरे राम, एक झगड़े का निपटारा करो, अगर तुम्हें अपने सेवक से कुछ भी सरोकार है। ब्रह्मा बड़ा है कि वह जिसने ब्रह्मा को बनाया ? वेद बड़ा है या वह जहाँ से वेद आया ? यह मत बड़ा है कि जिसे मन मान जाय ? राम बड़ा है या वह जो राम को जान जाय ? कबीर कहता है, यह सोचकर मैं उदास हुआ जा रहा हूँ कि तीर्थ बड़ा है या हरि का भक्त (जो तीर्थ को बनाने वाला है) ?” इस कथन में ऊपर से देखने में तो सरलता है किन्तु तर्कों की शैली और विवेचना पद्धति यह बता रही है कि इस कथन के पीछे एक आत्मविश्वास गम्भीर चिंतक का स्वर छिपा हुआ है जो हमें सोचने के लिए मजबूत कर देता है। ऐसी विशिष्ट साद्गी में ऊँची बात कह देने में कबीर माहिर हैं। कभी अपनी परमानुभूति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- सो जीवन भला कहाही । बिनु मूए जीवन नाहीं ।
 
कभी सहजावस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं-

जहाँ नहीं तहाँ कुछ जांनि । 
जहाँ नहीं तहाँ लेहु पिछांनि ।। 

कहीं गृहस्थ और बैरागी का सूक्ष्म अन्तर बताते हुए कहते हैं-
 
गावन ही में रोज है रोवन ही में राग।
 
इन पंक्तियों में एक भी क्लिष्ट शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, किन्तु मात्र अन्वय कर देने से इन उक्तियों की गम्भीरता नहीं आँकी जा सकती। वस्तुतः बिना सत्य का आमने-सामने साक्षात्कार किए इस प्रकार का उक्ति वैचित्र्य आ ही नहीं सकता। कबीर का साक्षात्कार ऐसा ही था। इतने गूढ़ विषयों को इतनी अधिकारपूर्ण सरलता से सुस्पष्ट करने की क्षमता उनमें इसलिए है कि उनकी अभिव्यक्ति में शास्त्रज्ञान की तोतारटंत शैली का प्रभाव एकदम नहीं है उसमें नख से शिख तक ताज़गी है। इसी विशेषता पर मुग्ध होकर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि "अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखकों में पायी जाती है।"
 
कबीर की भाषा की दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि उसकी मार बड़ी तेज है और वह इतनी जीवंत है कि पाठक या श्रोता को झकझोर देती है। जहाँ पर उन्होंने बाह्याचार आदि का खंडन किया है वहाँ उनकी भाषा का यह गुण और भी अधिक निखर गया है। शास्त्रीय पद्धति पर परिष्कृत और परिमार्जित ढंग से अपने विचार व्यक्त करने वालों की भाषा में तेज धार एक दम नहीं होती। वह तथाकयित शिष्टता तथा परिष्कार में ही कुंठित हो जाती है।
 
कबीर के संस्कार ऐसे थे कि उनकी भाषा की धार - कोर बिल्कुल दुरुस्त थी, उसके कुठित होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। इसके साथ ही वे तत्कालीन समाज में दृढ़तापूर्वक जड़ जमाने वाली विषमता के स्वयं मुक्तभोगी थे। इस संस्कार ने उस धार पर सान चढ़ाने का काम किया। उनके शब्द सामाजिक विषमता का गरल पान करने वाले और भक्ति-गंगा को मस्तक पर धारण करने वाले नीलकंठ भूतनाथ के डमरू के शब्द थे जिनके श्रवण मात्र से प्रपंच बुद्धि लोग मौन धारण कर लेते थे।
 
उपर्युक्त विशेषता की दृष्टि से कबीर की अनेक पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती हैं किन्तु यहाँ दो स्थलों की ओर विशेष रूप से पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है एक स्थान पर वे कहते हैं-
 
तू और बाम्हन मैं कासी क जोलहा चीन्हि न मोर गियाना। 
तैं सब माँगे भूपति राजा मोरे राम धियाना।।
पूरब जनम हम बाम्हन होते ओछे करम तप हीना । 
राम देव की सेवा चूका पकरि जुलाहा कीना ।। 
हम गोरु तुम गुआर गुसाई जनम-जनम रखवारे ।। 
कबहूँ न पारि उतारि चराएहु कैसे खसम हमारे।। 

जीव का वध करते हो और शास्त्रों का प्रमाण देकर उसे धर्म बताते हो तो कहो भाई फिर अधर्म कहा है ? (ऐसा अधर्म करते हुए भी) आपस में मिल बजाकर स्वतः मुनिवर बन बैठते हो तो फिर कसाई की क्या परिभाषा होगी ?" इस कटु सत्य से ब्राह्मण समाज का कौन समझदार व्यक्ति मुकर सकता है ? और मुकरना भी चाहे तो किस तर्क का आश्रय लेकर ? इन्हीं उक्तियों को ध्यान में रखकर द्विवेदी जी ने लिखा है कि "अन्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी गहरी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं पाता ।” कबीर की भाषा भी कहने के लिए उजड्ड, गँवई, गंवारु चाहे जो कुछ भी कह ली जाय, उसकी अभिव्यक्ति के छलकते सौन्दर्य पर बड़े-बड़े नागर और परिष्कृत कवियों की भाषा निछावर की जा सकती है।

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