कबीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान

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कबीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान कबीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु शिष्य को आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग

कबीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान


बीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। गुरु शिष्य को आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं। कबीर के अनुसार गुरु सच्चा ज्ञानी, निष्काम, दयालु और वेदांत का ज्ञानी होना चाहिए।

इस कथन से प्रतिभाशाली कवि की हिन्दी-साहित्य में उपेक्षा ही हुई है। इस उपेक्षा के मूल में रसवादी आलोचकों की संकीर्ण और आदर्शपरक सीमित दृष्टिकोण प्रधान कारण रहा है। आचार्य शुक्ल ने कबीर की तीन बातों के कारण उपेक्षा की है -
  • उपदेश और कहीं-कहीं अस्पष्ट हृदय और अधूरे हैं । 
  • अलंकार भी शुद्ध नहीं हैं ।
  • फिर भी उनकी भौतिक भावना वाले छन्द को स्पर्श करते हैं। 
इसके मूल में उनका गम्भीर अनुभूतियों की तन्मयता ही है। उदाहरणार्थ कबीर के निम्नलिखित पद द्रष्टव्य हैं-
 
माली आवत देखकर कलियन करी पुकार। 
फूले-फूले चुन लिये कालि हमारी बार।।
 
लाली मेरे लाल की जित देखड तिल लाल । 
लाली देखन मैं चली, मैं भी है गई लाल ।।
 

कबीरदास एक धर्मगुरु के रूप मे

कबीर की साधना पद्धति में गुरु का स्थान
यहाँ हम कबीर की विवेचना एक धर्मगुरु के रूप में न कर एक साहित्यिक के रूप में कर रहे हैं। धर्म गुरु के रूप में कई भी व्यक्ति चाहे कितना ही महान् क्यों न हो, परन्तु यदि उसका साहित्यिक रूप नगण्य है तो साहित्य की दृष्टि से उसका अधिक मूल्य नहीं रह जाता है। इसलिए कबीर को अपने युग का साहित्यिक नेता एवं भावी सहित्य की विचारधारा के प्रभावित करने वाला सिद्ध करने के लिए उनके काव्य में साहित्यिकता को भी परखना पड़ेगा। यद्यपि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उनमें काव्य-सृजन की प्रखर प्रतिभा थी।

कबीर साधक थे। उनकी साधना के भी दो रूप थे- कर्मयोग और हठयोग। कर्मयोगी के समान वे संसार की माया में निर्लिप्त रहते थे। उनकी कथनी और करनी में साम्य था। परन्तु उन्होंने संसार के संघर्ष में पलायन का उपदेश कभी भी नहीं दिया। वे उससे टक्कर लेने के पक्षपाती थे। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- “साधना के क्षेत्र में वे युग -गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्यस्रष्टा ।” सच्चे कर्मयोगी होने के कारण वे युग-युग के गुरु थे। उन्होंने सन्तकाव्य का पथ-प्रदर्शन कर साहित्यिक क्षेत्र में नव-निर्माण का कार्य किया था। उनके समकालीन एवं परवर्ती सभी सन्त कवियों ने उनकी वाणी का अनुसरण किया था।

कबीर युगदृष्टा थे

कबीर युगदृष्टा थे। अपने समय की सम्पूर्ण गतिविधियों पर उनकी नजर रहती थी। गाँधी आधुनिक युग के अत्यन्त जागरूक द्रष्टा थे। युगद्रष्टा शाश्वत काल से विषमताओं का खण्डन कर मानवता का प्रचार करते आये हैं। बुद्ध ने यही किया, तुलसी का प्रयत्न भी यही रहा और गाँधी जी ने इसी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। इन्हीं महान मानवों के समान कबीर अपने समय की जनता के एक मात्र प्रतिनिधि और पथ-प्रदर्शक थे। वे सत्य को परमात्मा मानते थे। इसी से वे अपने को 'सत्यता का उपासक' कहते थे। भौतिक शक्ति उन पर विजय पाने में असमर्थ रही थी। उनका धर्म था कि- “साई सेती साँच रह, ओरां सू सुध भाय।” परमात्मा की सर्वव्यापकता को स्वीकार कर ही कबीर ने पददलित शूद्रों की समानता का अधिकार दिया था। 

लोक-कल्याण तथा आत्म-कल्याण की दृष्टि से कबीर ने गरीब को सदैव गले से लगाये रखा था। गरीब और सत्य-निष्ठ जीवन की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि सच्ची मानवता इन्हीं की गोद में पलती है, यही मानव को परिश्रमी और सत्य तथा न्याय का आराधक बनाता है। यही कारण है कि कबीर स्वयं कपड़ा बुनकर अपनी जीविका चलाते थे। और सत्य धर्म का प्रचार करते थे। गाँधी और कबीर के जीवन में अनेक समानताएँ हैं।

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