पाजेब कहानी की समीक्षा | जैनेन्द्र कुमार

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पाजेब कहानी की समीक्षा जैनेन्द्र कुमार जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित पाजेब कहानी बाल मनोविज्ञान का एक उत्कृष्ट चित्रण है कहानी के तत्वों के आधार पर पाजेब

पाजेब कहानी की समीक्षा | जैनेन्द्र कुमार


जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित पाजेब कहानी बाल मनोविज्ञान का एक उत्कृष्ट चित्रण है। कहानी में आठ वर्षीय आशुतोष और पांच वर्षीय उसकी बहन गीता के मनोभावों का सूक्ष्म और सटीक चित्रण दर्शाया गया है। पाजेब के खोने और चोरी के आरोप के बाद बच्चों के मन में उठने वाली भावनाओं, जैसे डर, शर्म, झूठ, जिद, और अंत में सच्चाई का स्वीकार, को बड़ी ही कुशलता से व्यक्त किया गया है।

किसी लेखक की कहानी कला का सम्यक् विवेचन उसकी संपूर्ण कहानियों के आधार पर ही किया जा सकता है, पर उसकी प्रतिनिधि कहानियों के आधार पर भी कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। 'पाजेब' जैनेन्द्र की एक प्रतिनिधि कहानी है, जो उनकी कहानीकला की कुछ विशेषताओं से भी पाठकों का परिचय कराती है। नीचे इसी कहानी को आधार बना कर लेखक की कहानी के शिल्प पर विचार किया जा रहा है।
 
पाजेब कहानी की समीक्षा | जैनेन्द्र कुमार
प्रेमचंद युगीन हिंदी कहानी में वर्णनात्मकता और घटना प्रधानता का आग्रह अधिक प्रचलित था, पर आगे चल कर जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी आदि कहानीकारों ने पात्रों के चरित्र-चित्रण तथा आंतरिक उथल-पुथल की अभिव्यक्ति को मनोवैज्ञानिक कहानी कहना शुरू किया। प्रेमचन्द और उनके युग के कहानीकारों की कहानियों में मनोविज्ञान की उपेक्षा नहीं की गई थी, पर उनमें घटना के वर्णन का महत्त्व सर्वोपरि था। हिंदी कहानी में मनोवैज्ञानिक तथ्यों के समावेश और मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति को प्रचलित करने का श्रेय जैनेन्द्र और उन जैसे कहानीकारों को दिया जा सकता है।

'पाजेब' भी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है, जिसमें चित्रित घटनाएँ गौण अथवा प्रासंगिक हैं। पूरी कहानी बाल-मनोविज्ञान पर आधृत है। बालकों की छोटी-छोटी इच्छाएँ, उनके बाल सुलभ कामों, क्षण में शत्रुता और क्षण में दोस्ती का व्यवहार, खिलौने और आभूषणों से प्रेम आदि बाल सुलभ प्रवृत्तियों को इस कहानी में दिखाया गया है। मुन्नी का पाजेब की फरमाइश करना और आशुतोष द्वारा साइकिल की इच्छा अत्यन्त स्वाभाविक है। इन दोनों बालकों के अतिरिक्त छुन्नू के चरित्र का चित्रण भी स्वाभाविक एवं यथार्थ है। 

चरित्र चित्रण के लिए जैनेन्द्र ने प्रमुख रूप से दो विधियाँ अपनाई हैं। एक तो पात्रों की गतिविधियों अथवा कार्यकलापों का संक्षिप्त वर्णन और दूसरी विधि है, पात्रों के संक्षिप्त तथा स्वाभाविक संवाद । पाजेब पाकर मुन्नी का फुदकना और उसे सबको दिखाते फिरना उसकी आभूषण प्रियता को उजागर कर देता है। आशुतोष जन्म दिन पर साइकिल का आश्वासन पाकर संतुष्ट तो हो जाता है, पर उसे मुन्नी की तरह कोई वस्तु नहीं मिली। इसलिए वह पतंग खरीद लाता है। ये क्रियाकलाप बालकों के स्वभाव के अनुकूल है।
 
इसी प्रकार आशुतोष द्वारा छुन्नू को चोरी के आरोप में शामिल करने पर छुन्नू का बदला हुआ व्यवहार और अपने बचाव की कोशिश में आशुतोष पर प्रत्यारोप लगाना बाल सुलभ चेष्टाएँ हैं। आशुतोष द्वारा चाचा के साथ पतंग वाले के पास जाते हुए रास्ते से भाग आना उसके अंर्तद्वंद्व तथा तनाव ग्रस्त मानसिकता को प्रकट करता है।
 
इस कहानी के पात्रों के अनुकूल, अवसर के अनुकूल संवाद भी लेखक की कहानीकला के वैशिष्ट्य हैं। प्राय: संवाद लम्बे नहीं हैं। कहीं-कहीं एक दो शब्दों से, 'हाँ' या 'ना' से और कभी मौन से काम चलाया गया है। आशुतोष और उसके पिता के बीच हुए संवाद ऐसे ही हैं। आशुतोष की माँ और छुन्नू की माँ के बीच हुए संवाद दोनों की संकीर्ण सोच को स्पष्ट करते हैं। वे पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के द्योतक हैं।
 
'पाजेब' एक चरित्र प्रधान कहानी है, जिसमें लम्बी चौड़ी घटनाएँ नहीं घटतीं। घर में पाजेब का खो जाना और खोने को चोरी समझ लेना एक मामूली घटना है। इसलिए इस कहानी का कहानीपन घटना के वर्णन में निहित नहीं है, बल्कि बालक पात्रों के चरित्र-चित्रण द्वारा बाल-मनोविज्ञान की कुशल अभिव्यंजना में निहित है। चरित्र प्रधान कहानी की सफलता पात्रों के कुशल चरित्रांकन पर अवलम्बित है। जैनेन्द्र की कहानीकला का एक सशक्त पक्ष उनका चरित्र-चित्रण है और चरित्र-चित्रण के समय भी बाह्य घटनाओं पर लेखक उतना बल नहीं देता, जितना आन्तरिक दबावों, भीतरी हलचल और भावों के उत्थान पतन पर देता है। कहा जा सकता है कि 'पाजेब' कहानी बाहर की तरफ उतनी नहीं फैलती, जितनी वह भीतरी गहराई में उतरती है। यह विशेषता उनकी अनेक कहानियों में मिलती है। 

जैनेन्द्र की कहानी-कला का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि वे द्वंद्व तथा अंतर्द्वद्व के चित्रण में बड़े कुशल हैं। उनकी कहानियों में और 'पाजेब' में चित्रित द्वंद्व भी बड़े मानवीय संघर्ष नहीं हैं, पर कहानी के मूल में कोई द्वंद्व निहित होता है। यह बाह्य क्रियाकलापों में भी व्यक्त होता है, पर उनसे अधिक वह अंतर्द्वद्व के रूप में सामने आता है। 'पाजेब' कहानी में मुख्य रूप से बालक आशुतोष के अंर्तद्वंद्व को व्यक्त किया गया है, जिससे उसके चरित्र के यथार्थ चित्रण में भी सहायता मिली है। यों द्वंद्व की स्थिति आशुतोष और उसके पिता के बीघ, आशुतोष और छुन्नू के बीच, दोनों बालकों की माताओं के बीच भी है।
 
कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र की रुचि घटनाओं के विस्तृत वर्णन में उतनी नहीं है, जितनी घटनाओं के संदर्भ में होने वाले मानसिक परिवर्तनों और अंर्तद्वंद्व के अंकन में है। इस विधि से उन्हें बाल-मनोविज्ञान को स्पष्ट करने में भी मदद मिली है।

जैनेन्द्र की कहानियों की भाषा, विशेषतः 'पाजेब' की भाषा पर विचार किया जाए तो कहना होगा कि गहरी से गहरी बात को सरल शब्दों, छोटे-छोटे वाक्यों, संक्षिप्त संवादों और शहर के मध्यवर्ग की बोलचाल की भाषा में कह देने की कला में वे माहिर हैं। उनकी बोधगम्य पैनी भाषा पाठकों के मन में उतरती जाती है। उनकी भाषा के पीछे उनकी दार्शनिकता, उनका अध्ययन और जीवन जगत् का व्यापक अनुभव बोलता है। इसलिए उनकी भाषा प्रायः विशेष अर्थगर्भित हो गई है, जो मुख्यार्थ का अतिक्रमण कर अन्य अर्थध्वनियों की ओर अग्रसर होने लगती है।
 
'पाजेब' कहानी जब उत्कर्ष पर पहुँचती है तो उसका अंत हो जाता है। इसमें उत्कर्ष तो है, पर उतार नहीं है। इससे कहानी का अंत आकस्मिक हो गया है, जो पाठकों की उत्सुकता को शांत करते हुए रोचक हो गया है। कहानी कैसे शुरू की जाए और कैसे उसका अंत हो, यह किसी लेखक की कहानीकला का महत्त्वपूर्ण अंग है। जैनेन्द्र इस संबंध में अपने लेंखकीय कौशल का परिचय देते हैं। कहानी के अंतिम भाग में बुआ द्वारा यह रहस्योद्घाटन कि पाजेब गलती से उसके सामान के साथ चली गई थी, आकस्मिकता तथा रहस्य के तत्त्वों के सन्निवेश का संकेत देता है। आकस्मिकता और रहस्य को भी जैनेन्द्र की कहानीकला की विशेषताएँ माना जा सकता है। यह रहस्य कहीं किसी गोपनीय बात के रूप में होता है, जैसा कि 'पाजेब' कहानी में है और कहीं आकस्मिकता के रूप में जिसके कार्यकलाप बहुधा रहस्यमय होते हैं। 

कहानी कला का संबंध कहानी के शीर्षक से भी है। शीर्षक एक नाम है, पर नाम का जीवन में भी महत्त्व है और साहित्यिक कृतियों में भी। पर साहित्यिक कृति में नाम का भी महत्व है। कहानी का नाम उसकी प्रकृति की ओर कुछ-न-कुछ संकेत अवश्य करता 'पाजेब' कहानी का शीर्षक सार्थक तथा उपयुक्त है। पाजेब के खोने पर पूरी कहानी चलती है और वह कहानी में व्यक्त सारे द्वंद्वों तथा अंतर्द्वन्द्वों की जड़ है। सारा बखेड़ा पाजेब के कारण होता है। पाजेब मुन्नी की आभूषणप्रियता की भी प्रतीक है। कहानी में पाजेब एक संज्ञा मात्र नहीं रह गई। वह प्रतीक में रूपान्तरित हो गई है। साहित्यिक कृतियों में प्रयुक्त सामान्य शब्द कैसे सामान्य अर्थ से ऊपर उठकर विशेष अर्थ ग्रहण कर लेते हैं, यह यहाँ 'पाजेब' शब्द के प्रयोग में (शीर्षक के रूप में प्रयुक्त) देखा जा सकता है। 

अतः इस कहानी के शीर्षक से भी कहानीकार की सूझबूझ और उसकी उन्नत कहानीकला के दर्शन होते हैं। कहानी का अंत भी रोचक और कलात्मक है।

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