हमके ओढ़ा द चदरिया हो चलने की बेरिया | उषाकिरण खान प्रत्येक धर्म या मत का मूल उद्देश्य है मनावजाति के मुक्ति पथ को आलोकित करना, न कि मनुष्य को रूढ़ियों
हमके ओढ़ा द चदरिया हो चलने की बेरिया | उषाकिरण खान
प्रत्येक धर्म या मत का मूल उद्देश्य है मनावजाति के मुक्ति पथ को आलोकित करना, न कि मनुष्य को रूढ़ियों और आचार-अनुष्ठानों की शृंखलाओं में आबद्ध करना। धर्म का उद्देश्य मुक्ति है, वह 'आत्मदीपो भव' का सन्देश देता है; धर्म स्वाधीनता का पर्याय है, परतंत्रता का नहीं। परन्तु धर्म के ठेकेदारों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु धर्म की अपव्याख्या कर जनसमुदाय को भ्रमित कर रखा है और इसी का परिणाम है धर्मोन्मादना, धर्मान्धता। आज, इस घोर धर्मोन्मादना काल में पद्मश्री उषाकिरण खान जी की यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक है। धर्म और मठों के ठेकेदार किस प्रकार साधारण दरिद्र जनता पर अत्याचार करते हैं, किस प्रकार उनका शोषण करते हैं , इसका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है। इस कहानी का मूल उद्देश्य धार्मिक दोचित्तेपन को अनावृत्त करना है।
कथा की पृष्ठभूमि है ग्रामीण मिथिला और वहाँ का ग्रामीण समाज, मुख्यतः कृषक समाज जो दिन भर मेहनत करते हैं , खून पसीना बहाते हैं पर फिर भी दुःख-दारिद्र्य उन्हें घेरे रहता है, समाज और धर्म के ठेकेदार उनका निरन्तर शोषण करते हैं और हैजा,मलेरिया जैसी घातक बीमारियाँ उनका ग्रास करती हैं । लगभग प्रत्येक वर्ष ही कोसी-कमला का विकराल रूप धारण करना, गाँव-घर- खेतों का प्लावित होना और विवश ग्रामीण पुरुषों को जीविका और उपार्जन हेतु पूर्व या पश्चिम की और जाना और चौमासा व्यतीत करना - इन सब का करुण, यथार्थ चित्रण भी प्रस्तुत किया गया है इस कहानी में।
"हर साल बाढ़ में खेत खलिहान डूब जाते हैं। गाय बैल के लिए घास क्या अकेली औरत बेलसंडी वाली काटेगी ? ....उस बार की सर्वग्रासी बाढ़ में जब गाँव छोड़ने की बारी आयी तो कोकाई ने नावों पर ढोर-डांगर और औरत बच्चों को ढोया था तटबन्ध तक। ....प्रलय था प्रलय ...गाँव के सारे नवयुवक और अधेड़ परदेस गए थे , मात्र स्त्रियां, वृद्ध और बच्चे थे। "
ग्रामीण मिथिला का यथार्थवादी चित्रण लेखिका से बेहतर कौन कर सकता है ? कोशी-कमला का जलप्लावन, तटबंध का निर्माण और उसकी समस्याएं, भारी वर्षण के कारण तटबंध का टूटना और सम्पूर्ण क्षेत्र का जलमग्न होना और खेत खलिहान के साथ-साथ पशु धन की भी भीषण क्षय-क्षति - इन सब विषयों पर तो वर्षों से लिख रही हैं कोशी तट की एकमात्र लेखिका ।
यह कहानी ऐसे ही एक अति साधारण किसान, कोकाई और उसके परिवार की है। खेत जोतने, बीज डालने में पूरे गाँव में कोकाई से बेहतर कोई न था। जब धान का पौधा बित्ते भर का होता, तब खेत की लुनाई देखते ही बनती। दुःख-दारिद्र्य, अभाव-कष्टों में ही अपना पूरा बचपन बिताते हुए कोकाई अब दो तरुण पुत्रों का पिता था।कोकाई और उसका पूरा परिवार कबीरपंथी थे, अर्थात कबीरहा सम्प्रदाय वाले । इन कबीरहों के लिए उनके गुरु, या गोसाईं साहेब ही सर्वोपरि थे, गोसाईं साहेब की वाणी को ये सभी वेद वाक्य मानते, अकाट्य समझते।
कोकाई प्रत्येक वर्ष नई खेती पर नया बैल खरीदता, और अपना पुराना बैल बदल लेता। एक बार जब गोसाईं साहब गाँव पधारे तब उन्होंने कोकाई पर आरोप लगाया कि उसने अपना पुराना बैल कसाई को बेचा है अतः उसे "पाराच्छित" करना पड़ेगा। दरअसल कोकाई ने तीन वर्ष पूर्व अपने बैल को नेवला गाँव के जिस किसान को बेचा था , और उसी ने पूरे क्षेत्र में शिकायत की थी कि कोकाई ने उसे दुर्बल और बेकार बैल बेचा है और सम्भवतः उस कृषक ने ही बैल को कसाई के हाथों बेच दिया था।
कोकाई ने बहुत मिन्नतें की, अपनी सफाई में बोलना भी चाहा, परन्तु गोसाईं साहब के सम्मुख उसकी एक न चली। धर्मगुरु के समक्ष ही कोकाई के विरुद्ध कई लोग उठ खड़े हुए और कोकाई को बाध्य होकर दण्ड स्वीकार करना पड़ा। कोई भी कबीरहा गोसाईं साहेब की बातों को अमान्य नहीं कर सकता था।
हाँ, गोसाईं साहब ने दण्ड की समय सीमा में अवश्य छूट दे दी " सज़ा जब फसल अच्छी हो, तभी पूरी करना। समय सीमा है साहेब के पास जाने तक की। चादर मैली कैसे लेकर जाओगे ?" और दण्ड की घोषणा हुई - पचहत्तर मुंड साधुओं का भोज !
कितने आश्चर्य की बात है। कबीर की वाणी "मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ " का भावार्थ ही बदल दिया इन पाखंडियों ने और अपने को कबीरहा मानने वाले ये भोले-भाले ग्रामीण भी कहाँ जान समझ पाए उस महान संत की वाणी को, कहाँ आत्मसात कर पाए उनकी सीख को। जिस कबीर ने अपनी वाणी से धर्म के ठेकेदारों का जीना दूभर कर दिया था, उसी संत का नाम लेकर ये पाखंडी जन फिर से एक जुट हो गए। कबीर ने आत्मशुद्धि पर बल दिया था, मन को परिष्कृत रखने को कहा था। उनकी वाणी और उनकी शिक्षा का सम्बन्ध अध्यात्मवाद से था न कि अंधभक्ति से। कबीर का कर्म ही जीवन दर्शन रहा, उन्होंने कभी भी अंधविश्वास या अंधभक्ति को बढ़ावा नहीं दिया परन्तु गाँव -देहात के इन मठाधीशों, गोसाईं साहेबों और महन्तों का दर्शन काहिली लगता है ।
एक दिन अचानक, प्रथम वर्षा में, वज्रविद्युताघात से कोकाई की मृत्यु हो गई। उसके परिवार के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था। दाह संस्कार के समय कबीरहा साधुओं के प्रतिनिधि ने बड़े बेटे फेकना से कहा " तुम कोकाई को अग्नि कैसे दोगे? साकंठ जो हो, पहले कंठी धारण करो, साधु का पैठ होगा , वरना ...."
कितने आश्चर्य की बात है कि " माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर" की सीख देने वाले कबीर के अनुयायी अब कण्ठी धारण करने की बात कर रहे हैं !! विवश होकर बेटों ने साधुओं की बात मानी और बारहवीं के भोज का आयोजन भी किया। दोनों बेटे, गले में गमछा डाले, कर जोड़े, साधुओं के सम्मुख खड़े विनीत भाव से बोले " साहेब , हम ऋण से उऋण हुए कि नहीं ?"
पीछे ,कीर्तनिया झाल मृदंग बजाकर गए रहे थे " मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तिहारे जाऊं " और इधर साधु की वाणी गूँज उठी " नहीं रे फेंकना तेरी ऋण-मुक्ति कहाँ हुई ? गोसाईं साहब ने दो साल पहले पचहत्तर मुंड साधुओं का भोज - दण्ड दिया था। नहीं पूरा कर पाया बेचारा। यह तो तुम्हे ही पूरा करना पड़ेगा। उऋण होना है तो यह सब करना ही पड़ेगा। "
भ्रातृद्वय पर वज्राघात हुआ। कहीं कोई प्रतिवाद भी नहीं। केवल एक प्रतिवादी कंठस्वर गूँज उठा - गाँव के एक मैट्रिक पास युवक ने भर्त्सना की - " आप लोग अन्याय कर रहे हैं। कबीरदास सभी रूढ़ियों के खिलाफ थे। उनका नाम लेकर रूढ़िवाद की पराकाष्ठा पर चले गए हैं। " परन्तु धर्मभीरु और धर्मांध ग्रामीण जनता में कहाँ इतना साहस । बात तो अब कोकाई के पारलौकिक स्थान प्राप्ति की थी।
दोनों बेटे गाँव वालों के सामने अब लाचार से खड़े थे। गाँव वालों ने ही साहू जी से भोज-भंडारे के लिए उपयुक्त सामग्री उधारी में ले ली। बारहवीं से लेकर तेरहवीं तक पचहत्तर मुंड साधुओं का भोज चला। प्रायश्चित्त पूर्ण हुआ और अब समय था साहू जी से लिए उधार चुकाने का। साहू जी ने "दो पैसा सैकड़ा सूद" का हिसाब भी रखा था।
कोकाई का भरा पूरा परिवार ही अब बिखर गया। बड़े बेटे ने शहर जाकर मज़दूरी करने का निश्चय किया और छोटे भाई को खेत संभालने को कहा। "बाऊ के काम का क़र्ज़ जब तक नहीं उतारेंगे , उनके ऊपर चादर कैसे ओढ़ाएंगे। "
फेंकना बनारस में दिन भर रिक्शा चलाता है और रात को थक हार कर कबीर चौरा चौक पर सो जाता है ...कुत्ते की नींद....फेकना बेसुध सा पड़ा हुआ है कबीर चौरा पर, अपने आराध्य के सान्निध्य में और उसी कबीर चौरा से कीर्तन के उदास स्वर वायुमण्डल में तैर रहे हैं- "हमको ओढ़ावे ऐसी चदरिया चलती बिरिया , चलती बिरिया ,प्राण राम जब निकसन लागे उलट गई दोनों नैन पुतरियाँ "
कहानी का अन्त बहुत ही मार्मिक एवं व्यंग्यात्मक है, ....अन्तस में एक टीस सी जगा जाता है, मन विद्रोह कर उठता है । जिस कबीर ने आजीवन रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध किया, जात-पात, कुसंस्कारों के विरुद्ध सरव रहे , उन्हीं महान सन्त के दालान पर उनका अनुयायी, उन्हीं के सम्प्रदाय के सिरमौर के पाखण्ड और अत्याचार के कारण त्रस्त, पीड़ित पड़ा है। क्या ये पाखंडी , धर्म की आड़ लेकर ऐसे ही दरिद्र जनसाधारण को शोषित करते रहेंगे? क्या कोई प्रतिवाद नहीं होगा ? जनता क्या सदैव ही धर्मान्द और धर्मभीरु बनी रहेगी?
तत्कालीन ग्रामीण मिथिला के अधिकांश ओ. बी. सी., दलित, महादलित कबीरहे होते । ग्रामांचल में इनके मठ भी होते थे, जहाँ मठ के महंत के साथ मिलकर पूरी मंडली भजन कीर्तन करती। अगहन महीने में महंत और उनकी मंडली गाँव-गाँव जाकर लोगों को कंठी पहनाते, और निरामिषभोजी बनने का परामर्श देते,मांस-मछली से दूर रहने की सलाह देते । ग्रामीणों को कबीर के भजन सिखाते और अपने भजन-कीर्तन द्वारा ग्रामीणों को आनन्दित, उत्फुल्लित कर, बदले में धान, मटर, मूँग, मसूर, वस्त्रादि मठस्थल पर ले जाते । ये कबीरहे नमस्कार, प्रणाम की जगह साहेब बंदगी कहकर हाथ जोड़ते । वे यम-नियम का पालन भी करते परंतु अतिवृष्टि, बाढ़ और जलप्लावन में जब खाद्याभाव का भयानक संकट उत्पन्न होता तब वे कंठी तोड़कर सर्वभक्षी बन जाते ; मत्स्य भक्षण करने पर विवश हो जाते। अनुकूल परिस्थिति आने पर वे प्रायश्चित्त कर, अर्थदंड के रूप में अपने ही सम्प्रदाय के कुछ साधु-मुंडों को खीर-पूड़ी, पकवान खिला कर, उन्हें तृप्त और संतुष्ट कर पुनः कंठी धारण कर लेते । भले ही उनके लिए, कंठी धारण कर सदा निरामिषभोजी बने रहना संभव नहीं हो पाता परन्तु गाने बजाने, भजन कीर्तन के समय वे सब साथ ही रहते। कई चर्मकार भी कबीरहे होते, वे कंठी धारण कर ही अपने पैतृक पेशे से जुड़े रहते। लेखिका ने, अपने उपन्यास 'फागुन के बाद' में इन चर्मकार कबीरहों का उल्लेख किया है।
कबीरपंथ की तीन प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं और इन त्रिशाखाओं के तीन मुख्य केन्द्र हैं - 'कबीरचौरा' (काशी) , धनौती (बिहार) और छत्तीसगढ़। सम्प्रदाय के प्रारम्भिक काल में अनुयायियों का झुकाव सार्वभौमिकतावाद की ओर ही था परन्तु शनैः शनैः बदलाव आने लगा।
ग्रामीण मिथिला तो लेखिका की आत्मा है।अपनी सशक्त लेखनी द्वारा उन्होंने सदैव ही ग्रामीण मिथिला का सजीव एवं यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। वर्षों से, वह अपनी ग्रामगंधी रचनाओं द्वारा मिथिला के ग्राम्य परिवेश और वहाँ के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक मूल्यबोधों से पाठकों को भली-भाँति परिचित कराती आ रही हैं।
प्रांजल, सुललित और ग्रामगंधी भाषा में लिखी गई यह अत्यन्त मार्मिक कहानी अंतस पर अमिट छाप छोड़ती है ।
- अभिषेक मुखर्जी
५० . बी. एल . घोष रोड , बेलघड़िया, कोलकाता -७०००५७
पश्चिम बंगाल ,8902226567 ,abhi.india79@gmail.com
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