पौराणिक कहानियों को एक नवीन दृष्टिकोण से देखना, समझना और बिना कोई अलौकिक प्रसंग जोड़े उन्हें आज के युग में ग्रहणयोग्य बनाना बहुत आवश्यक है- और यही तो
कालिदास की शकुन्तला से भिन्न है "सुखासन" की शकुन्तला....
राजधानी के समाज ने सुना वन में जिस आश्रमवासी ऋषि की कन्या को चुना है, जिसका पाणिग्रहण किया है ,उसका जन्म विवादास्पद है ।वह कण्व की पुत्री नहीं है ।उसे पट्टमहिषी कैसे बनाया जाएगा ? सम्राट स्वयं के मनोरंजन के लिए उसे रख सकते हैं , परन्तु पट्टमहिषी कदापि न बनाएं । यह गरिमा के अनुकूल नहीं है । "
भिन्न है "सुखासन" की शकुंतला ....कहीं अधिक सहासिनी, दृढ़ निश्चयी, स्वाभिमानिनी, और प्रतिवादिनी। आश्रम निवासिनी, आत्मनिर्भर शकुन्तला, स्त्री के सीमंतिनि स्वरूप को ललकारने वाली , चुनौती देने वाली, अपने श्रमसीकर का स्वाद चख जीवन पथ पर अग्रसर होने वाली .....
कहानी का आरम्भ होता है वनांचल की एक आश्रमभूमि में जहाँ महाप्रतापी सम्राट दुष्यन्त का रथ आ रुकता है । श्रांत-क्लांत, प्रौढ़ सम्राट ने आश्रम के उपवन को ही अपनी विश्रांतिभूमि के लिए चयन किया । वनानी वाटिका के समीप के जलाशय तट पर एक सुन्दर तेजस्वी बालक को सिंह शावक से खेलते देख सम्राट आश्चर्यचकित हो गए । सिंहनी को पास बैठे देख वह बालक की सुरक्षा हेतु अत्यंत चिंतित हो उठे और उसी क्षण धनुर्धारी बन सिंहनी वध को तत्पर हुए । परन्तु आश्रम कन्याओं और उस बालक को सिंहनी और उसके शावकों से घुलते-मिलते देख उनका भय तो दूर होता गया परन्तु विस्मय का कोई अवसान न हुआ। बालक के रूप की मोहिनी, उसकी मीठी शिशु सुलभ बोली और बालहट ने सम्राट को पूर्ण रूप से मोह लिया - संतानहीन सम्राट के मन में अवस्थित, वर्षों के सुप्तवात्सल्य भाव ने आज सदानीरा रूप धारण कर लिया । उन्होंने बालक को अपनी गोद में उठा लिया । तभी उपवन में आश्रम निवासिनी स्त्रियों का प्रवेश हुआ । आह्लादित बालक, भागता ,खिखिलाता हुआ अपनी माता के अंचल से लिपट गया । सम्राट ने बालक की माता को देखा। उन पर वज्राघात हुआ - अतीत की सभी घटनाएं पुनः सजीव हो उठीं ।
कालिदास के पथ पर न चलते हुए लेखिका ने दुष्यन्त एवं हस्तिनापुर राजसभा के छल-चातुर्य , षड्यंत्र को सुस्पष्ट एवं सहजगोचर किया है। शकुन्तला की विवादास्पद जन्म कथा ही राजसभा और आमात्यपरिषद् के लिए चिंता का विषय था। अप्सरा की अवैध सन्तान राजमहिषी का स्थान ग्रहण करें यह उनकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध था ।
कथा वही है जिसे महाकवि कालिदास ने अपने लालित्यपूर्ण भाषा में लिखकर जन-जन तक पहुँचा दिया। यहाँ भी एक नवजात शिशु कन्या, निर्जन वन में शकुंत पक्षियों के पंखों के आश्रय में पाई गई - सर्वथा असुरक्षित इस शिशु कन्या का नाम पड़ा शकुन्तला। कन्या का पालन पोषण किया महर्षि कण्व ने । बाद में ज्ञात हुआ कि यह शिशु कन्या अप्सरा मेनका और उद्भट ऋषि विश्वामित्र की संतान है। । ऐसी प्रखर तेजोमय स्त्री को राजनीतिक साजिशों के कारण निष्कासित कर दिया गया।
आश्रमवासियों ने भले ही शकुन्तला को पुत्री रूप में स्वीकार किया था परंतु हस्तिनापुर के राजपरिवार के लिए यह इतना सरल नहीं था । नगरकेन्द्रिक सभ्यताएं कहीं अधिक जटिल होती हैं । अतः दुष्यन्त ने अपने संकोच, दुविधा और भय को यवनिका के पीछे धकेल, केवल 'प्रजा की आपत्ति ', 'प्रजागण का अमत' दोहराकर भ्रमजाल की सृष्टि की और गर्भवती शकुन्तला को ग्रहण करने से अस्वीकार किया। आश्चर्य की बात है जब निःसंतान सम्राट दुष्यन्त, आश्रम से अपने पुत्र, भरत को हस्तिनापुर ले गए तब उनको 'प्रजा क्या सोचेगी' या राज्य के भावी उत्तराधिकारी के जन्म वृत्तान्त के विषय में प्रजा क्या प्रश्न करेगी- इन सबका ध्यान न रहा ।
ऋषि दुर्वासा का शाप, शकुन्तला की अंगुली से अंगूठी का नदी में गिरना और एक मत्स्य का उसे उदरस्थ करना यह सब तो महाकवि की अपनी कल्पना थी जो राजा, राजवंश और संभवतः पुरुष जाति के लिए स्वर्णिम रक्षा कवच सिद्ध हुई। महाभारत की कथा में भी इसका उल्लेख नहीं ।
लेखिका ने इस कहानी में मेनका को मानुषी ही दिखाया है न कि स्वर्ग की कोई अलौकिक अप्सरा । यह उचित भी है ओर ग्रहणयोग्य भी। इस कहानी में मेनका भी शकुन्तला के साथ आश्रम में निवास करती है। भरी राजसभा में अपनी पुत्री के अपमान और लांछना को देख मेनका ही आगे बढ़कर अपनी गर्भवती पुत्री को अपने साथ आश्रम ले जाती है।
राजसभा में मेनका उद्घोष करती है -" मैं विवश नहीं हूँ। हे पालनकर्ता पुरुष ऋषि कण्व! , पाणिग्रहण करने वाले साम्राट दुष्यन्त , यह माँ अपनी बेटी का पालन कर लेगी । तुम लोगों को ही इसके द्वार आना पड़ेगा, यह नहीं है आश्रित किसी की ।"
एक बहुचर्चित, बहुपठित पौराणिक कथा को एक नवीन दृष्टिकोण देना कोई आपसे सीखे। शकुन्तला-दुष्यंत की कथा का एक 'दूसरा पक्ष' भी हो सकता है यह लेखिका ने 'सुखासन' में सिद्ध किया है।
दुष्यन्त ने शकुन्तला के साथ गान्धर्वविवाह तो अवश्य किया, संभोग में भी लिप्त हुए परंतु उसे राजमहिषी बनाने में संकोच बोध करते । कारण था शकुन्तला की विवादास्पद जन्म कथा | कहानी पढ़ने पर, स्वभाभिक रूप से मन में यह प्रश्न जागता है कि यदि दुष्यंत संतान सुख से वंचित न होते तो क्या उन्हें शकुन्तला या अपनी संतान का स्मरण रहता ? क्या वह भरत को स्वीकार करते?
कथा का अन्त यथोचित है, काम्य है, सटीक है। शकुन्तला दुष्यन्त को क्षमा करती है, भरत को भी उसके सम्राट-पिता के हाथों सौंप देती है परंतु स्वयं हस्तिनापुर नहीं जाती है। यही उसका नीरव प्रतिवाद है ।राजपरिवार का अंग बनना उसे स्वीकार नहीं ।
“आप अपने पुत्र को ले जायें, इनका संस्कार अपने अनुरूप करें। मेरा आपका इतना ही संबंध था।“ -शकुंतला ने दृढ़ होकर कहा।
यह वह कोमलांगी, सुकुमारी शकुन्तला नहीं जो एक कृष्ण भ्रमर से भयभीत हो जाए अपितु यह तो स्वाभिमानिनी, स्वयंपूर्णा स्त्री है, जो स्वयं के राक्षणावेक्षण के लिये किसी वीर पुरुष की मुखापेक्षी नहीं। अतः वह आश्रम में ही रह गई। वही उसका 'सुखासन' है ।
कहानी का शीर्षक,"सुखासन" भी पूर्णतः सार्थक है ।
हस्तिनापुर की राजमहिषी के सिंहासन से कुश-पाट का बना आसन शकुंतला के लिए अधिक महत्वपूर्ण है , अधिक सुखदायी है, श्रेष्ठ है। हस्तिनापुर की राजमहिषी का सिंहासन तो अब उसके लिए अति तुच्छ है । जिस सभा ने उसे तिरस्कृत किया, उसे अपमानित किया, वहां वह कदापि न जाएगी । वह स्वयम्पूर्णा है- ऐसी तेजोमयी, स्वयंप्रभा स्त्री की भला राजमहल की चहारदीवारी में, राजप्रासाद के रनिवास में क्या भूमिका हो सकती है? वन में रहकर वनवासिनी तथा नागर परित्यक्ताओं को आश्रय देती, वह 'सुखासन' में बैठ जाती हैं।
कहानी की इन निम्नलिखित पंक्तियों द्वारा लेखिका ने एक महत्त्वपूर्ण इंगित भी दिया है । शकुन्तला कहती है "‘क्षमा कर दिया उसी समय परंतु मैं यहाँ इस आश्रम से कहीं नहीं जाऊंगी , मेरी तरह की अनेक कन्यायें हैं जिन्हें मेरी आवश्यकता है। आप प्रस्थान करें राजन!’’
अर्थात उन जैसी कई प्रताड़ित, छली गई, विप्रलब्धा स्त्रियों के लिए नगर-ग्राम से दूर वनांचल में अवस्थित ऐसे आश्रम ही एकमात्र आश्रयस्थली थे। लेखिका ने कहानी के आरंभ में यह इंगित भी दिया है कि यह आश्रम मूलतः स्त्रियों का है, बालिकाएं ही शिक्षा पाती हैं- " ऋषि का पता नहीं प्रभु ,महिलाओं को ही देखा है । एकाध युवक पुरुष हैं और कुछ बालक अन्यथा स्त्रियाँ ही हैं।"
अर्थात युग कोई भी हो स्त्री जबतक सीमंतिनी बना कर रखी जाती है तब तक वर्जनाओं पर अमल करती है। जब वह अकेले अपने श्रम सीकर का स्वाद चख लेती है तब फिर बाँधी नहीं जा सकती ।
अपने खण्ड-काव्य, "सिय पिय कथा" में भी लेखिका ने सीता का कुछ ऐसा ही प्रतिवादिनी रूप प्रस्तुत किया है जहाँ आश्रम निवासिनी सीता राम से कहती है-
"मैं नहीं हूँ पाषाणी अहल्या,
वातभक्षा निराहारा
जिनका किया आपने उद्धार
मिलाया स्वामी गौतम से
मैं हूँ सशक्त सीता स्वयंपूर्णा
वाल्मीकि आश्रम वाली
साग पात तोड़ती
सुपुष्ट................................
ले जाओ प्रिय
ले जाओ गझिन
फलित गाछ
बीज जो दिया था
लौटा रही हूँ, हे बीजीपुरुष !" "
ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं लेखिका यह मानती हैं कि मिथिलावासियों ने जिस सरलता से सीता को अपनी ही पुत्री मान लिया था, वह अयोध्या के राजपरिवार और वर्णवैषम्य से ग्रसित नगरकेन्द्रिक सभ्यता के लिए इतना आसान न था। राजा दुष्यंत सूर्यवंश के महाप्रतापी सम्राट थे। इसी वंश में आगे चलकर राजा राम हुए। यह वीर यशस्वी वंश था। युग भले ही बदला परन्तु सम्राट दुष्यंत के हस्तिनापुर की राजसभा और राजा राम की अयोध्या - दोनों में ही एक तेजस्विनी गर्भवती स्त्री को लांछना सहनी पड़ी । जैसी हस्तिनापुर की प्रजा वैसी ही अयोध्या की प्रजा, और वैसे ही सर्वशक्तिमान सम्राट् जो अपनी भार्या तक को आदर से वामांगी नहीं बना सकें । इन कथाओं को पढ़ते -गुनते मन में यह विचार जन्म ले ही लेता है कि तत्कालीन सामाजिक रीतिनीति सीता और शकुंतला, जिनका जन्म, परम्परा को पुष्ट नहीं करता, को परित्याग करने या देशनिकाला दे देने में कदापि संकोच नहीं करती थी । परन्तु ये स्त्रियाँ वनगमन करती हैं और अपने पुत्रों को वीरता का प्रतिमान बनाकर इतिहास रच देती हैं।
पौराणिक कहानियों को एक नवीन दृष्टिकोण से देखना, समझना और बिना कोई अलौकिक प्रसंग जोड़े उन्हें आज के युग में ग्रहणयोग्य बनाना बहुत आवश्यक है- और यही तो किया है लेखिका ने, 'सुखासन' कहानी के माध्यम से।
- अभिषेक मुखर्जी
गुरु गोविन्द सिंह अपार्टमेंट,
ब्लॉक- बी .५० . बी.एल. घोष रोड , बेलघड़िया, कोलकाता -७०००५७
पश्चिम बंगाल,Mobile : 89022264567
Email: abhi.india79@gmail.com
COMMENTS