रहीम इसीलिए अपने लगते हैं वे भारतीय समाज की इस क्रूरता भरी बातों को मध्यकाल में ही दर्ज कर चुके हैं। जुझार बेटे। बिगड़ैल बहुएं। क्रूर पत्नियां या हराम
घर यातना शिविर भी हो गए होंगे ?
मैंने अनेक बूढों और बूढ़ी काकी जैसी माताओं को पेट भरने के लिए बिलखते पाया है। अन्न कई तरह से मिलता है। मान से अपमान से। प्यार से दुत्कार से। वह आदमी या औरत अभागा या अभागी मान लिए जाते हैं जिनके परिजन उनकी घोर उपेक्षा करते हैं।
एक तरफ लोग खा पी रहे होते हैं दूसरी तरफ कोई भोजन की प्रतीक्षा कर रहा होता है। यह प्रतीक्षा उपेक्षा के आग से जलाती है। और संताप में बदल जाती है। यह अपेक्षा हवेली नुमा घरों और कुटीर नुमा फ्लैटों कहीं भी संभव है।
आस पास के घरों में बूढ़े बुढ़िया मिलें तो उनसे पूछिए मत उनके मन में झंकिए वहां भूख अपमान का रूप लेकर बैठी होगी! वे समाज चिंतन भूल कर अन्न चिंतन में उलझे मिलेंगे आप को। यहां जाकर यह पता चलता है कि अन्न ही ब्रह्म है यह बात उपनिषद में क्यों कही गई होगी?
मुझे रहीम इसीलिए अपने लगते हैं वे भारतीय समाज की इस क्रूरता भरी बातों को मध्यकाल में ही दर्ज कर चुके हैं। जुझार बेटे। बिगड़ैल बहुएं। क्रूर पत्नियां या हरामी पति, जालिम सासें दुष्ट ननदें अपने अधिकार का या नाकारे पन का दुरुपयोग करके आश्रित को सताते हैं। और सोचते हैं कि वे कामयाब रहे। कभी रोटी ऐसे दे दी जैसे रेबीज वाले कुत्ते को खिला रहे हों। मैं तो उस कुक्कुर को भी सम्मान देने की बात कर रहा हूं जो दरवाजे पर सालों पहरेदारी करके मरने वाला हो! रहीम का यह दोहा अक्सर याद आता है। वे भूख से ग्रस्त और त्रस्त मन में झांक कर देखते हैं और कहते हैं:
रहिमन रहिला की भले, जो परसै चित लाय ।
परसत मन मैला करे, सो मैदा जरि जाय ॥
अर्थात् अगर भोजन प्रेम भरे मन से परोसा जाये तो वह अधिक स्वादिष्ट और रुचिकर होता है, जबकि अपवित्र मन यानी दुर्भाव और खोट से परोसे गए भोजन का स्वाद भले वह मैदा ही हो अंत तक जल ही जाना है यानी जले हुये मैदे से भी खराब होता है भोजन।
रहीम का केंद्र मान भरे जीवन पर है, भले ही थोड़ी विपन्नता हो चलेगा स्नेह की सम्पदा हो। अगर धन का वैभव हो और मन विपन्न है तो वह वैभव धूल या राख ही है। लोग अक्सर अपनी निजी कुंठाओं आंतरिक असफलताओं को इतना प्रभावी और प्रबल बना देते हैं कि घर यातना शिविर हो जाते हैं।
इस महामारी में अनेक लोग तो मात्र उपेक्षा का आहार पाकर जीवन के अंधकार में बिहार कर रहे होंगे। उनकी कौन खबर लेगा। उनको कौन मान सहित विष दे पाएगा। वे तो शम्भु भी नहीं हैं। यह बात कुलटा स्त्रियों और कुलांगार पुरुषों पर बराबर लागू होगी तभी बात बनेगी।
मेरे एक परिचित कवि अपने लिए अलग से चावल बनवाते थे। बाकी घर के लिए मोटा चावल उनके लिए उजला बढ़िया गमकौआ चावल। उनके कपड़े अलग से बजट होते थे और परिवार के अलग। ऐसा ही हो रहा है इस देश में। कोई सोने के तार पहन रहा है कोई तार तार उघार हो रहा है। कहां हैं युग के रहीम? कौन कहेगा इस त्रासदी को? कौन लिखेगा इस यातना को!
रहीम संग्रहालय नहीं हृदय में धारण करने वाले कवि हैं। उनके यहां कबीर का स्त्री विरोध और तुलसी की विप्र पूजा दोनों नहीं है। इस पहलू पर लोगों को विचार करना चाहिए!
- बोधिसत्व, मुंबई वाया इलाहाबाद
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