संस्कृत के कवि और फारसी बोलने वाली लड़की का प्रेम !

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पंडित राज जगन्नाथ संस्कृत के कवि थे वे दक्षिण भारत से भेट थे उत्तर को भक्ति की तरह! रहते थे काशी में गंगा के भक्त थे। गंगा दर्शन गंगा पूजन जीवन था उन

संस्कृत के कवि और फारसी बोलने वाली लड़की का प्रेम !



ह कविता एक शोक पत्र है

पंडित राज जगन्नाथ संस्कृत के कवि थे
वे दक्षिण भारत से भेट थे उत्तर को
भक्ति की तरह!
रहते थे काशी में गंगा के भक्त थे।

गंगा दर्शन गंगा पूजन जीवन था उनका
गंगा भक्ति ही उनका आचरण था!

सावन हो या भादौं
गंगा को देखे बिना नहीं रहते थे
जो भी मिले 
उससे गंगा की महिमा कहते थे।

देश पर शाहजहां या औरंगजेब का शासन था
गंगा तब भी बहती थी
काशी की पसलियों में छिपा दुःख पोछती हुई!

एक दिन जब उफनाई थी काशी में गंगा
उन्होंने गंगा की सीढ़ियों पर एक मुसलमान लड़की को देखा
वह गंगा नहाने आई थी।

गंगा नहाते नहाते वह डूबने बहने लगी
उसने बचाव के लिए पुकारा फारसी में!

डूबने वाले की फरियाद की कोई भाषा नहीं होती
यह मर्म एक कवि से अधिक कौन समझ सकता था!
अपनी गंगा की स्तुति छोड़ कर जगन्नाथ कूद गए प्रवाह में 
उन्होंने उस लड़की को गंगा में बह जाने से बचाया और किनारे लेे आए।

फारसी और संस्कृत का एक मेल आरंभ हुआ गंगा की साक्षी में!

लड़की ने शुक्रिया कहा तो उन्हें ध्यान आया कि उन्होंने एक यवन लड़की को डूबने से बचाया है! 

"बचाओ" की करुण पुकार में जगन्नाथ भूल गए कि एक मुसलमान लड़की डूब रही थी
जिसे वे बचा चुके हैं!

और लड़की जीवन पा कर 
जा चुकी है!
गंगा बहती रहीं!

जगन्नाथ अशुद्ध हो गए थे एक यवनी को छू कर
उन्होंने खुद को शुद्ध करने के लिए प्रायश्चित किया
गंगा नहाए यज्ञ किया
पर शुक्रिया की आवाज भूल न पाए।

अगले दिन वह अनाम यवनी उन्हें फिर मिली और फिर अदा किया शुक्रिया। 

किन्तु आज वह बिना नहाए चली गई
जगन्नाथ उसे बिना नहाए जाते देखते रहे।

ऐसा ही चला कुछ दिन
कभी लहरतारा कभी मणिकर्णिका कभी दशाश्वमेध 
काशी की गलियों में काशी के घाटों पर मिलती रही 
वह यवन लड़की संस्कृत कवि जगन्नाथ को।

लड़की को पता चला कि उसके कारण अपवित्र हो गए हैं 
जगन्नाथ तो उसने माफी मांगी उनसे
और बोली अब आपकी गंगा में न नहाऊंगी
गंगा की सीढ़ियों पर भी न आऊंगी
गंगा मैया भी कहीं अपवित्र न हो जाएं मुझे छूकर।

माफी मांग लूंगी देवी गंगा से अनजाने में उनमें नहाने जो उतर गई थी उस दिन!

उसके बाद वह यवन लड़की नहीं दिखी पंडित जगन्नाथ को
किन्तु जगन्नाथ को कुछ भी नहीं भूल रहा था उस लड़की का
उसका डूबना उसका बचाव के लिए पुकारना उसका गंगा को त्याग कर चली जाना
फिर गंगा नहाने भी न आना!

जगन्नाथ भूल गए सारे छंद
जगन्नाथ भूल गए सारा व्याकरण
सारे रस
स्मृति में बह रही थी वह यवन लड़की!

एक दिन वे जा पहुंचे उसके घर तक
और उसे अपना मान कर साथ चलने को कहा
लड़की नहीं चाहती थी
जगन्नाथ को नष्ट करना
वह उनके साथ जाने को तैयार न थी
किन्तु हठ से हार गई उनके।

जो प्रेम हठ नहीं करता वो
बच नहीं सकता!

आगे इतना ही हुआ की यवनी से प्रेम जगन्नाथ को नहीं रहने दिया हिन्दू
वे त्याज्य हो गए
उनकी कविता अब एक दूषित हिन्दू की कविता थी
उनके श्लोक अब अपवित्र हो गए थे
क्योंकि वे एक यवनी से एकमेक हो गए थे।

उनको प्रेम करने से उनके युग के बादशाह ने नहीं
काशी के लोगों ने रोका।

जगन्नाथ उस यवनी से नफ़रत करते तो 
अपने समाज के शिखर होते
वे यवनों के नाश के छंद रचते तो 
पावन पूज्य होते प्रखर होते!

वे तो यवनी को गंगा मान बैठे थे
और उनको उनके प्रेम का प्रसाद मिला जीवित मरण
उनको गंगा ने अपने हृदय में दिया शरण।

गंगा की लहरों में लुप्त हों जाने के 
पहले अकेले पड़ गए कवि को प्रेम ने मारा
यह कैसा समाज है
जहां प्रेम ही हो जाता है हत्यारा!
संस्कृत के कवि और फारसी बोलने वाली लड़की का प्रेम !

जगन्नाथ ने लिखी गंगा की कहानी
जो आज गंगा की सबसे बड़ी वंदना है
एक अछूत कवि की अर्चना है 

काशी में गंगा हार गई
काशी में संस्कृत हार गई
काशी में कवि हार गया
काशी में प्रेम हार गया!

काशी में गंगाधर मौन रह गए 
कवि के प्रेम की रक्षा न कर पाए वे भी
काशी के कोतवाल सारे भैरव मूक हो गए
काशी में गंगा चूक गईं।

कवि के साथ काशी नहीं खड़ी हुई
प्रेमी के साथ काशी खड़ी नहीं हुई
नफरत करने की रीति वाले प्रबल थे काशी में!

प्रेम में डूबे कवि को डूब कर मरना पड़ा
जबकि डूबना चाहिए था काशी को
इस बासी नगर को बह जाना था
यवनी और जगन्नाथ के त्रास में
मिल जाना था धूल में बन कर चिता भस्म
उड़ जाना था आकाश में!

पर निर्लज्ज काशी देखती रही प्रेम के अंत का तमाशा!

जगन्नाथ को शरण मिली कृष्ण के वृंदावन में
वहां मरण हुआ उनके शरीर का सूनेपन में
जैसे कृष्ण एकाकी मरे प्रभास में!

जगन्नाथ के बहिष्कार को शुद्धि
और उनके अपमान मरण को मोक्ष कहते काशी के पावन पंडे
जगन्नाथ का प्रेम उनके लिए अपावन था
इसलिए काशी में जगन्नाथ की न कोई पूछ थी न कहीं आवन जावन था!

काशी में प्रेम करना निषिद्ध था
जबकि शिव गंगा का प्रेम विश्व प्रसिद्ध था
उसी काशी में!

उसी शिव की काशी में 
गंगा एक यवनी और अपने एक भक्त कवि को पवित्र न कर पाई!
शिव प्रिया गंगा अपने भक्त जगन्नाथ को काशी में न बसा पाई
काम न आई काशी में शिव की प्रभुताई
फिर काशी में किसकी दी जाए दुहाई!

जिस त्रिशूल पर काशी टिकी है वही
शिव का त्रिशूल 
प्रेम करने वालों को छाती में गड़ा है
हत्यारों का पक्ष आज भी बड़ा है!

डूबते को बचाने वाले मारे गए काशी में
प्रेम करने वाले मारे गए काशी में
घृणा करने वाले संहारक 
बने रहे काशी उद्धारक!



- बोधिसत्व, मुंबई

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