गीतिकाव्य के तत्वों के आधार पर विनय पत्रिका का मूल्यांकन

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गीतिकाव्य और विनय पत्रिका गीतिकाव्य के तत्वों के आधार पर विनय पत्रिका का मूल्यांकन हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य तुलसीदास की विनय-पत्रिका मूल्यांकन

गीतिकाव्य और विनय पत्रिका


भावों के सहज, स्वाभाविक, भावनात्मक एवं आवेगमयी गेय अभिव्यक्ति के प्रकाशन को गीति कहते हैं। ऐसे काव्य को, जिसमें भावात्मक व्यक्तित्व प्रधान होता है, उसे गीतिकाव्य कहा जाता है। इसमें कवि अपने हृदय में प्रविष्ट होकर अपने व्यक्तिगत अनुभवों और भावनाओं से प्रेरणा लेकर वर्ण्य-विषय की भावात्मक अभिव्यंजना करता है। इसमें कवि की निजी भावनाओं, अनुभूतियों एवं आदर्शों की ही प्रधानता रहती है, इसी कारण ही इनमें रागात्मकता एवं गीतात्मकता आ जाती है। Gitikavya Ke Adhar Par Vinay Patrika Ka Tatvik Mulyankan 

गीतिकाव्य के तत्वों के आधार पर विनय पत्रिका का मूल्यांकन
हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य की एक समृद्ध परम्परा रही है। इस परम्परा में तुलसीदास कृत विनयपत्रिका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विनय पत्रिका में कवि की गीतिकाव्य की विशेषताओं का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। कवि तुलसीदास ने कविकाल के प्रभाव एवं उसके अत्याचारों से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से अत्यन्त दैन्य भाव में विनय-पत्रिका की रचना की। गीतिकाव्य की दृष्टि से यह एक अमूल्य-निधि है। इसमें गीति काव्य के लगभग सभी तत्त्वों का समावेश हुआ है। तुलसी की गीति काव्य के विषय में श्री लालधर त्रिपाठी की मान्यता है- “संगीतात्मकता गीति का आत्मतत्त्व है। संगीतात्मकता से आशय है- रागों की भावानुकूल स्थिति, शास्त्रीय संगीत का निर्वाह एवं शब्द योजना। तुलसीदास जी ने लगभग 19 रागों में अपने पद गीतों को रचा है। केदारा, आसावरी, सोरठ, मारु, बिलावल, सारंग, सोहर, मलार, जैतश्री, इनमें प्रमुख हैं। विनयपत्रिका में संगीतात्मकता का समावेश हुआ है। सोष्ठ राग में विनयपत्रिका के कुछ पदों में दैन्य का पुट देखने को मिलता है।' विनयपत्रिका में पाये जाने वाले प्रमुख गीति काव्य के तत्त्वों का विवरण इस प्रकार है - 

रागात्मक आत्म निवेदन

गीतिकाव्य का यह तत्त्व विनयपत्रिका के पदों में प्रचुरता से पाया जाता है। दैन्य, आत्म निवेदन तथा भक्ति की आनन्ददायिनी गंगा का प्रवाह विनयपत्रिका में देखा जा सकता है। एक उदाहरण इस प्रकार है- 

ऐसी मूढ़ता या मन की। 
परिहरि राम भगति सुरसरिता आस करत ओसकन की ।। 
X X X X X X X X X X X X 
कहँ लौ कहाँ कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जन की। 
तुलसीदास प्रभु हरहु दुसह दुःख, करहु लाज निज पन की ।। 

कवि ने अत्यन्त दैन्य भाव में अपने मन की मूर्खता के विषय में प्रभु से बताते हुए उसे सावधान करने के लिए याचना की गयी है। 

आवेग की तीव्रता

गीति का प्रस्फुटन तभी होता है, जब भावों का तीव्र वेग हो । तलसीदास जी के भक्ति प्रधान गीतों में इस प्रकार का भावातिरेक देखने को मिलता है। विनयपत्रिका में आवेगों की तीव्रता विद्यमान है। इसका एक उदाहरण इस प्रकार है- 

मन पछितैहे अवसर बीते । 
दुरलभदेह पाइ हरिपद भजु करम वचन अरु ही ते ।। 
X X X X X X X X X X X X X 
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते । 
बुझे न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विनय भोग बहु घी ते ।। 

तुलसीदास मन को बार-बार सचेत करते हैं कि अवसर हाथ से निकल जाने पर मन को पश्चात्ताप करना पड़ेगा।
 

संक्षिप्ता

संक्षिप्ता गीति-काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। तुलसी की विनय पत्रिका में यह तत्त्व भी मिलता है। गीति के कोमल पंख न तो यथार्थ के अधिक भार को संभाल पाते हैं और न काव्यांगीय चमत्कार को। यहाँ तो गागर में सागर अर्थात्, संक्षिप्तता ही एक मात्र उपाय होती है। विनय पत्रिका का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- 

जाऊँ कहाँ तजि चरन तिहारो । 
काको नाम पतित पावन जग, के हि अति दीन पियारे । 
X X X X X X X X X X 
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब माया बिबस विचारे ।। 
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा आपन पौ हारे ।। 

संक्षेपतः कहा जा सकता है कि गीति-काव्य की जो विस्तृत परम्परा हिन्दी साहित्य में रही है, उसमें तुलसीदास की विनय-पत्रिका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें गीतिकाव्य के लगभग सभी तत्त्वों, संगीतात्मकता, रागात्मक, आत्म निवेदन, भावों का एकत्व, संक्षिप्त तथा मार्मिक अभिव्यंजना आदि का विधिवत् समावेश किया गया है।

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