तुलसीदास की रामराज्य की परिकल्पना

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तुलसीदास की रामराज्य की परिकल्पना


तुलसीदास ने जिस रामराज्य की परिकल्पना की थी ,वह एक समृद्ध सुशासन का पर्याय था। उसमें साम ,दाम ,दंड और भेद आदि नीतियों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। सब रोग और बैर से मुक्त थे और वेद सम्मत मार्गों पर चलते हुए बड़ों के आदेशों का पालन करते थे। प्रजा को प्रकृति के कोपभाजन का शिकार नहीं होना पड़ता था। चारों तरफ आनंद ही आनंद था। यह तुलसीदास की लोकमंगल भावना और समन्वयवादिता का परिणाम था। कवि रामराज की विशेषता बतलाते हुए लिखते हैं कि -

चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।

तुलसी राम राज्य की कल्पना

तुलसीदास की रामराज्य की परिकल्पना
तुलसीदास की रामराज परिकल्पना में राजा एवं प्रजा का सुनियोजन बहुत अच्छे ढंग से था। उन्होंने यहाँ आदर्श शासन व्यवस्था का प्रारूप प्रस्तुत किया। सभी लोग परस्पर प्रेम से जीवन निर्वाह करते हैं तथा कोई किसी के प्रति शत्रु भाव नहीं रखता है। तुलसी ने जिस रामराज की रुपरेखा यहाँ प्रस्तुत की है। उसमें सुख का आधार भौतिक समृद्धि न होकर अध्यात्मिक भावना है। tulsi ke ram rajya ki parikalpana ki visheshta राम मानवता के चरम आदर्श हैं ,उनका चरित्र अनुकरणीय है। राम राज की शासन व्यवस्था के विषय में कवि ने लिखा है कि -

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।

सभी लोग वर्णाश्रम धर्म का पालन करते थे और वेद विहित मार्ग पर चलकर प्रेम सहित जीवन व्यतीत करते थे। उस समय धर्म अपने चारों चरणों सत्य ,शौच ,दया ,दान सहित प्रतिष्ठित था ,पापकर्म विलुप्त हो गए थे ,कोई भी व्यक्ति स्वप्न में भी पाप नहीं करता था। सभी व्यक्ति राम की भक्ति में लीन होकर स्वर्ग के अधिकारी बन गए थे -
 
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥

रामराज पूर्णतः सुव्यवस्थित था।वनों में वृक्ष सदा फूलते फलते हैं , हाथी और सिंह वैरभाव भूलकर एक साथ रहते थे।  पशु पक्षी सहज वैर को भी भूलकर आपस में पारस्परिक प्रेम भाव विकसित कर रहते थे - 

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥

रामराज्य की कथा

रामचंद्र के राज्य में सब अपनी अपनी मर्यादा में रहते हैं। तालाब कमलों से परिपूर्ण है ,चंद्रमा अपनी शीतल किरणों से पृथ्वी को भर रहा है ,तो सूर्य उतना ही तप्त होता है ,जितनी आवश्यकता है। मेघ माँगने से जल देते हैं -
 
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज॥

तुलसीदास ने रामराज की कल्पना करते हुए राजा के लिए कुछ गुणों का उल्लेख किया है। यथा - लोक वेद द्वारा विहित नीति पर चलना धर्मशील होना ,प्रजापालक होना ,सज्जन एवं उदार होना ,स्वभाव का दृढ होना ,दानशील होना आदि। राम में आदर्श राजा के सभी गुण विद्दमान है। राम को अपनी प्रजा प्राणों से भी अधिक प्रिय है ,तो प्रजा को अपने राजा राम प्राणों से अधिक प्रिय है। प्रियजन ,पुरुजन ,परिजन ,गुरुजन सबके प्रति राम का व्यवहार आदर्श एवं धर्म के अनुकूल है। ऐसे रामराज में विषमता टिक नहीं सकती है और सभी प्रकार के दुखों से प्रजा को त्राण मिल जाता है। यही नहीं रामराज में जो व्यक्ति जिस वस्तु की इच्छा करता था वह उसे तत्काल प्राप्त होती थी। ऐसा कवि ने लिखा है - 

बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।

इन सब बातों के बाद भी कवि ने कर्म की प्रधानता पर बल दिया है। वे कहते हैं - 

जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥

राम राज्य की विशेषता

कवि अपने आदर्शों में यह भी बताया है कि दूसरों को किसी प्रकार से शोषित नहीं करना चाहिए ,क्योंकि 

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥

संक्षेपतः तुलसीदास ने रामराज का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए आदर्श राज्य की परिकल्पना की है। उसका मूल आधार भी तुलसी की राम राज परिकल्पना है। निश्चय ही यह एक आदर्श शासन व्यवस्था है ,जिसका मूल आधार लोकहित एवं मानवतावाद है। 


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