तुलसीदास के काव्य में सामाजिक पारिवारिक आदर्श

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तुलसीदास के काव्य में सामाजिक पारिवारिक आदर्श


तुलसीदास ने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल स्वीकार किया है। लोकमंगल का विधान तभी हो सकता है ,तब समान एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापना हो तथा उदात्त जीवन मूल्यों का सबका ध्यान केन्द्रित हो। रामचरितमानस में तुलसीदास की दृष्टि रामकथा के माध्यम से आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना की ओर केन्द्रित रही है। यही कारण है कि उसमें जीवन के विविध प्रसंगों का उल्लेख है और जीवन के किसी भी पक्ष की उपेक्षा नहीं हो सकी है। तुलसीदास एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे ,जो समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की पक्षधर हो। इसे व्यवस्थित रूप में तभी सामने लाया जा सकता था जब परिवार एवं समाज का एक आदर्श रूप हमारे सामने उपस्थित हो। वे एक ऐसे समाज की परिकल्पना कर रहे थे ,जहाँ सभी सुखी ,संपन्न ,सभी निरोग हों। 

तुलसीदास के काव्य में वर्ण व्यवस्था पर विचार

तुलसीदास के काव्य में सामाजिक पारिवारिक आदर्श
महाकवि तुलसीदास ने टूटती हुई वर्ण व्यवस्था को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया ,क्योंकि उनकी धारणा थी कि यह व्यवस्था मानव जीवन को उन्नत एवं विकसित करती है। इस व्यवस्था में न तो शोषण है ,न अन्याय एवं संघर्ष है। रामचरितमानस के उत्तरकांड में राम राज वर्णन के प्रसंग में उन्होंने इसी वर्णाश्रम धर्म में निरत समाज का उल्लेख किया है - 

बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग॥

भारतीय समाज की तत्कालीन पतन के लिए उन्मुख दशा का पता तुलसी के कलियुग वर्णन से चलता है। कवितावली में उन्होंने समाज की दयनीय दशा का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है - 

खेते न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘ कहाँ जाई, का करी ?’

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे स सबैं पै, राम ! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।


समाज का यथार्थ चित्रण

तुलसीदास की मान्यता थी कि समाज का कल्याण तभी संभव है ,जब समाज का प्रत्येक वर्ग अपनी भूमिका का निर्वाह करें ,किन्तु जब ब्राह्मण लोलुप और कामी होगा और शुद्र जप-तप करने वाले होंगे ,स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन न करके अन्य पुरुषों की रिझाती फिरेंगी ,विधवाएँ श्रृंगार करके समाज को भ्रष्ट करने का कार्य करेंगी तब समाज रसातल को चला जाएगा। 

तुलसीदास ने पारिवारिक आदर्श प्रस्तुत करते हुए विभिन्न पात्रों को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है। सीता पातिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत करती हुई पति का अनुगमन करते हुए चौदह वर्ष का वनवास स्वयं ले लेती हैं। राम आदर्श पुत्र हैं ,जो पिता की आज्ञा पर मिलने वाले राज्य को त्यागकर वन गमन हेतु तुरंत प्रस्तुत हो जाते हैं और कैकेयी से कहते है कि 

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

अयोध्या के सारे नर नारी भरत के प्रेम की सराहना  करते हैं और उन्हें श्रीराम के प्रेम की साक्षात प्रतिमूर्ति बताते हैं - 
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥

आदर्श रूप

भरत पर राम को इतना विश्वास है कि वे लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि भरत को अयोध्या का राज्य पाकर तो क्या ब्रह्म,विष्णु और महेश का पद पाकर भी राजमद नहीं हो सकता है - 

भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥

इस प्रकार कहा जा सकता है कि रामचरितमानस में पति का आदर्श रूप ,भाई का आदर्श रूप ,नृप का आदर्श रूप ,पत्नी का आदर्श रूप सब कुछ वर्णित है। 

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