गोस्वामी तुलसीदास का काव्य एवं काव्य दृष्टि महाकवि तुलसीदास की काव्यदृष्टि लोकमंगलकारी थी लोकनायक वही हो सकता है ,जो समन्वय कर सके ,तुलसीदास महात्मा
गोस्वामी तुलसीदास का काव्य एवं काव्य दृष्टि
महाकवि तुलसीदास की काव्यदृष्टि लोकमंगलकारी थी। इस सन्दर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि - लोकनायक वही हो सकता है ,जो समन्वय कर सके ,तुलसीदास महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक थे। उनका सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। " तुलसीदास जी अपनी काव्य दृष्टि के विषय में लिखते हैं -
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमंजस अस मोहि अँदेसा॥
अर्थात कीर्ति ,कविता और ऐश्वर्य वही सार्थक हो सकता है ,जो गंगा के समान सबका हित साधक हो।
तुलसीदास का काव्य सिद्धांत
महाकवि गोस्वामी तुलसीदास शास्त्रों में पारंगत विद्वान थे। उन्होंने वेद - वेदांगों का अध्ययन किया था। काव्य के विभिन्न तत्वों से वे भली भान्ति परिचित थे तथा उन्हें अच्छी बुरी कविता की पहचान थी। उन्होंने रामचरितमानस में अपने काव्य सिद्धांतों एवं काव्य दृष्टि का कथन स्थान स्थान पर किया है। रामचरितमानस के प्रारंभ में ही उन्होंने जहाँ रामकथा लेखन प्रारंभ करने की बात कही है ,वहीँ काव्य तत्वों का उल्लेख करते हुए लिखा है -
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
छंद सोरठा सुंदर दोहा। सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
कविता के तत्वों में उन्होंने अर्थ ,अलंकार ,छंद ,रीति ,भाव,रस ,गुण दोष ,ध्वनि और वक्रोक्ति आदि अनेक तत्वों की गणना की है। वे रस को काव्य का प्राणतत्व मानते हुए भी रीति एवं अलंकार के महत्व को स्वीकार करते हैं। जैसे - पुण्य में पराग , मकरंद और सुगंध होती है ,उसी प्रकार काव्य में अनेक प्रकार के अर्थ व्यंजित करने की क्षमता होती है। नवरस ही इस मानस के जलचर है और ध्वनि ही मीन है। इस प्रकार के रस और ध्वनि के घनिष्ठ सम्बन्ध को भी स्वीकारते हैं।
तुलसी की मान्यता है कि कविता रूपी सुन्दर मोती का जन्म ह्रदय रूपी सागर में पड़ी बुद्धि रूपी सीप में श्रेष्ठ विचार रूपी जल की बूँदें जब स्वाति रूपी शारदा की कृपा से बरसती हैं , तब होता है -
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥
तुलसी साहित्य में नवों रसों तथा लगभग सभी छंदों का प्रयोग है। रामचरितमानस कड़वक बद्ध है और साहित्यिक अवधी भाषा में हैं ,जबकि विनय पत्रिका ब्रजभाषा और पद शैली में हैं। कवि ने रामचरितमानस की रचना सन १५७४ ई. में की थी। इसकी भाषा का एक उदाहरण इस प्रकार है -
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।जो जस करहि सो तस फल चाखा॥
सकल पदारथ हैं जग मांही। कर्महीन नर पावत नाहीं ॥
विनयपत्रिका का एक उदाहरण -
जाके प्रिय न राम-बदैही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥
व्याकरण सम्मत भाषा
उनकी भाषा भाव संप्रेषण में सक्षम है तथा वह प्रसंगानुकूल एवं पात्रानुकूल भी है। यही नहीं अपितु वह परिशुद्ध ,व्याकरण सम्मत एवं समास बहुल है।
तुलसीदास अलंकारशास्त्र के तो पांडित्य थे। अलंकारों का प्रयोग उन्होंने भावों के उत्कर्ष के लिए किया है। उपमा ,रूपक ,उत्प्रेक्षा ,श्लेष ,यमक ,विभावना ,निदर्शना ,प्रतीप ,संदेह ,विरोधाभास जैसे अलंकार उनकी कविता में प्रचुरता में उपलब्ध है।
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