ब्रजभाषा का उद्भव और विकास

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ब्रजभाषा का उद्भव और विकास


ब्रजभाषा का साहित्यिक भाषा के रुप में विकास साहित्यिक भाषा के रुप में ब्रजभाषा ब्रजभाषा भाषा या बोली ब्रज भाषा का विकास ब्रज भाषा का क्षेत्र Hindi sahitya brajbhasha - ब्रजभाषा का उद्भव सन् 1000 ई. के आसपास माना जाता है। इस भाषा के प्रमुख केन्द्र में मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर, एटा, बदायूँ, बरेली आदि के आस-पास के क्षेत्र आते हैं। इसके अतिरिक्त हरियाणा का पलवल के आस-पास का क्षेत्र, राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर आदि जिलों का कुछ भाग तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले का पश्चिमी भाग भी ब्रजभाषा के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। वस्तुत: ब्रज शब्द का प्रयोग वेदों में पशुओं या 'गौओं' का समूह', 'चरागाह', 'या 'बाड़े' के रूप में हुआ है। इस क्षेत्र में पशुपालन के व्यवसाय का प्राधान्य होने के कारण ही यह प्रदेश ब्रज कहलाया और यहाँ की भाषा ब्रजभाषा कहलायी। यद्यपि डॉ० ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक 'लिंग्विस्टिक सर्वे' में इसे ' अन्तर्वेदी भाषा' का भी नाम दिया है, जो कि गंगा व यमुना के बीच के क्षेत्र की भाषा की द्योतक है। 

जैसाकि पहले ही कहा जा चुका है कि ब्रज भाषा का उद्भव सन् 1000 ई. के आस-पास माना जाता है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसके विकास को मुख्यतः भागों में बाँटा जा सकता है- आरम्भिक काल (सन् 1000 से सन् 1500 ई. तक), मध्य काल (सन् 1500 ई. से सन् 1800 ई० तक) तथा आधुनिक काल (सन् 1800 से आज तक) | आरम्भिक काल की ब्रजभाषा में हेमचन्द्र ने अपना व्याकरण 'शब्दानुशासन' की रचना की है। मध्यकाल की ब्रजभाषा में सूरदास, नन्ददास, केशव, बिहारी, भूषण, घनानन्द आदि कवियों ने अपनी काव्य-रचना की है। लल्लु लाल जी, भारतेन्दु, रत्नाकर आदि कवियों की कृतियों में आधुनिक काल की ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। 

ब्रजभाषा की बोलियाँ

ब्रजभाषा की पाँच प्रमुख उपबोलियाँ हैं- 
  • अन्तर्वेदी- यह एटा, बदायूँ, मैनपुरी के क्षेत्र में बोली जाती है। 1 
  • भुक्ता- यह नैनीताल के आस-पास बोली जाती है। 
  • डांगी- यह धौलपुर, भरतपुर व जयपुर जिले के पूर्वी भाग में बोली जाती है। 
  • मिश्रित- यह पलवल व भरतपुर के बीच के मध्य क्षेत्र में बोली जाती है। 
  • जादोवाटी- यह राजस्थान के करौली क्षेत्र के आसपास बोली जाती है। 

ब्रजभाषा का उद्भव और विकास
आगरा, मथुरा व अलीगढ़ क्षेत्रों में बोली जाने वाली ब्रजभाषा को 'परिनिष्ठित ब्रजभाषा कहा जाता है। ब्रजभाषा का साहित्य हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। बल्लभ सम्प्रदाय के अष्टछाप कवियों सूरदास, नन्ददास, नरोत्तमदास आदि से लेकर रीतिकाल के कवियों जैसे- बिहारी, घनानंद, देव, भूषण, मतिराम आदि सभी कवियों ने अपनी प्रमुख काव्य-रचना में इसी भाषा का प्रयोग किया है। यही नहीं, अवधी भाषा के महाकवि तुलसीदास ने भी अनेक ग्रंथों गीतावली, कवितावली, विनय-पत्रिका आदि की भी इसी भाषा में रचना की है। यदि हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के कृष्णकाव्य और सम्पूर्ण रीतिकाल को भाषा की दृष्टि से यदि 'ब्रजभाषा काल' कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। आधुनिक ब्रजभाषा में विदेशज शब्दों का भी प्रयोग होने लगा है। ब्रजभाषा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है- 

ब्रजभाषा की ध्वन्यात्मक विशेषता

  • ब्रजभाषा में ड, ड़ और ल ध्वनियों के स्थान पर 'र' ध्वनि का उच्चारण किया जाता है। जैसे- घरी (घड़ी), उरझत (उलछन), भोरी (भोली) आदि। 
  • ब्रजभाषा में अन्य स्वर ध्वनियों के साथ-साथ ऐ और औ की भी ध्वनियाँ भी मिलती हैं। अर्थात् इसमें कुल बारह स्वर-ध्वनियों का प्रयोग होता है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ एँ, ए, आँ, ओ, ऐ, औ । 
  • इसके सैंतीस व्यंजनों में 'न्ह', 'म्ह', 'रूह' व 'ल्ह' ध्वनियाँ भी मिलती हैं। इसके अतिरिक्त तीनों सकारों अर्थात् 'श्', 'ष्' व 'स्' में केवल 'स्' ही व्यंजन मिलता है।
  • ब्रजभाषा में 'ऋ' के स्थान पर 'इर' अथवा 'रि' का उच्चारण किया जाता है, जबकि इसका लेखन में प्रयोग होता है। 
  • इसमें ए और ओ के ह्रस्व रूप का भी प्रयोग होता है। 
  • ब्रजभाषा में कभी-कभी 'अ' का उदासीन रूप भी प्रयोग होता है और यह प्रायः शब्द के अंत में आता है जैसे- बहुअ । 
  • इसमें 'ह' का कभी-कभी लोप होने की प्रवृत्ति भी पायी जाती है। जैसे- साहुकार = साउकार, बारह = बारा आदि। 

ब्रजभाषा की व्याकरण सम्बन्धी विशेषताएँ 

(i) जिस प्रकार खड़ी बोली में आकारांत संज्ञाओं व क्रियाओं का प्रयोग होता है, वैसे ही ब्रजभाषा में ओकारांत संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है, जैसे- भला-भलो, लड़का-लड़कों, बिगड़ा-बिगरो आदि। 
(ii) ब्रजभाषा में संयुक्त परसर्ग का प्रयोग निम्न ढंग से होता है- 
(क) कर्त्ता-ने, नें, नै 
(ख) कर्म- कौ, कू 
(ग) करण- सौं, सों, सै, तै 
(घ) सम्प्रदान- कइं, कैं, ताई, हेत 
(ङ) अपादान-तैं, सैं, सें 
(च) सम्बन्ध- (पुल्लिंग एकवचन अविकारी) - को-कौ, (स्त्रीलिंग एकवचन अविकारी) - कि, की, (बहुवचन) - के। 
(छ) अधिकरण- महँ, माहि, महि, माहीं आदि । 
(iii) इसमें वर्तमान कालिक कृदन्तों में 'त' अथवा 'त्' प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसे- जात्, खात्, बल्त आदि। भूतकालिक कृदन्तों में पुल्लिंग एकवचन के साथ- औ या यौ प्रत्यय लगाया जाता है जैसे- चलौ, चल्यौ तथा स्त्रीलिंग ई या ईं प्रत्यय लगाया जाता है। जैसे- चली (एकवचन), चर्ली (बहुवचन) । 
(iv) इसमें ना और इबो प्रत्यय लगाकर क्रियार्थक सज्ञाएँ बनती हैं। जैसे- होनो, करिबो, चलिबो, बैठिबो आदि । 
(v) इसमें 'होनो' का सहायक क्रिया व अस्तित्ववाचक क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है, जो कि पुरुष व वचन व लिंग के अनुसार वर्तमानकाल में, हूँ, हाँ, हैं, हो आदि, भूतकाल निश्चार्थक में- हो, हुतौ, हतो, हुते, हुती, हुर्ती आदि तथा भविष्यकाल निश्चार्थक में- हौंगो, हुँगो, हैगो, ह्वै है, वे हैं, हवै हौ, हौंगी, हुँगी, हुँगी हैंगी आदि रूपों में प्रयुक्त होती है। 

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