सूरदास का सूरसागर की समीक्षा

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सूरदास का सूरसागर की समीक्षा सूरसागर भक्ति साहित्य का वह महान महाकाव्य है जो हिंदी साहित्य के आकाश में सूर्य के समान चमकता है। सूरदास द्वारा रचित यह

सूरदास का सूरसागर की समीक्षा

सूरसागर भक्ति साहित्य का वह महान महाकाव्य है जो हिंदी साहित्य के आकाश में सूर्य के समान चमकता है। सूरदास द्वारा रचित यह ग्रंथ मूलतः भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा है, परंतु उसमें केवल कथा नहीं, बल्कि भक्ति का वह अगाध सागर समाया हुआ है जिसमें डूबते ही जीव का सारा दुख-क्लेश मिट जाता है। सूर का काव्य केवल श्रृंगार और वात्सल्य का काव्य नहीं, अपितु समस्त मानव-जीवन को भक्ति की धारा में बहाकर परम तत्त्व तक पहुँचा देने वाला आध्यात्मिक महायान है।

जहाँ तक 'सूरसागर' की प्रामाणिकता का प्रश्न है, तो अधिकांश विद्वानों ने इसे सूरदास की रचना माना है। इस प्रकार इसकी प्रामाणिकता निर्विवाद है। लेकिन इसकी प्रामाणिक पद संख्या के विषय में विद्वानों में मतभेद है। 'सूरसागर' की रचना श्रीमद्भागवत के कथानक के आधार पर हुई है, जिसका उल्लेख 'सूर सागर' में प्राप्त होता है- 
  • श्रीमुख चारि श्लोक दये ब्रह्मा को समुझाइ । ब्रह्मा नारद सौं कहे, नारद ब्यास सुनाइ । ब्यास कहे सुकदेव सों, द्वादस - स्कन्ध बनाइ । 'सूरदास' सोई कहे, पदभाषा करि गाइ।।' 
  •  'सूर कहौ क्यों कहि सके, जन्म-कर्म अवतार। कहै कछुक गुरु कृपा तैं, श्री भागवत् अनुसार ।। ' 
  • 'सूरदास' हरि कौ जस गायौ, श्री भागवत् अनुसारी।' 
  • सुकदेव कह्यौ जाहि परकार, सूर कह्यौ ताही अनुसार।' 
इन कथनों के आधार पर यह कह दिया जाये कि 'सूरसागर' श्रीमद्भागवत् का पद्यानुवाद है तो यह तर्क संगत नहीं है, क्योंकि सूर का मन्तव्य भागवत की पूरी कथा कहना नहीं था। इस सन्दर्भ में डॉ० मुन्शी राम शर्मा ने लिखा है- 
सूरदास का सूरसागर की समीक्षा
सूरसागर को भागवत का अविकल अनुवाद नहीं कहा जा सकता। वह एक स्वतन्त्र रचना है। बालिका राधा, बालक कृष्ण के संग खेलने के प्रसंग और 'भ्रमरगीत' की व्यंग्यमयी उक्तियाँ भागवत में ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी। भागवत में उद्धव की कथा आती है, परन्तु उनके गोकुल पहुँचने पर गोपियाँ उन्हें चिढ़ाती नहीं। वे जो कुछ कहते हैं उसे चुपचाप सुन लेती हैं। उद्धव द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर उनकी विरह व्यथा शान्त हो जाती है। कृष्ण के प्रति दिये गये उनके उलाहने भी इतने तीव्र नहीं हैं। निर्गुण और सगुण का झमेला भी भागवत में दिखाई नहीं देता, जो सूरसागर के 'भ्रमरगीत' का प्रधान अंश है। कृष्ण-लीलाओं का स्मरण करती हुई एक गोपी अपने सामने गुनगुनाते हुए एक भ्रमरगीत में सूरसागर जैसा भावनाओं का उफान कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके अतिरिक्त भागवत सर्ग-विसर्ग आदि दस विषयों का वर्णन करती हुई भक्ति को मूर्धन्य स्थान देती है, पर सूरसागर में मुख्य रूप से राधा-कृष्ण लीला को ही प्रधानता दी गयी है। भागवत जहाँ निवृति-मूलक साधना का उपदेश करती है, वहाँ सूरसागर की राधा-कृष्ण लीला मनुष्य को प्रवृत्ति मार्ग में लगाने वाली है । अत: सूरसागर भागवत का अक्षरश: अनुवाद नहीं है।"
 
यों भी देखा जाये तो सूरसागर में भागवत के दशम स्कन्ध की कथा ही बहुतायत वर्णित है। अन्य स्कन्धों की कथाओं का वर्णन संक्षेप में हुआ है। 'सूरसागर' के अन्य समस्त स्कन्ध मिलकर दशम स्कन्ध पूर्वार्द्ध के लगभग छठें भाग के बराबर हैं।
 
'सूरसागर' की प्रतियों के जो हस्तलिखित रूप में पाये जाते हैं, वे दो प्रकार के हैं- द्वादश स्कन्धी क्रम के रूप और लीला क्रम के रूप। द्वादश स्कन्धी रूप वाली प्रतियों में 'सूरसागर' को ' भागवत' के अनुरूप बाह्य आकार प्रदान करने की चेष्टा परिलक्षित होती है।

लीला क्रम वाली 'सूरसागर' की प्रतियों में दशमस्कन्ध पूर्वार्द्ध की कृष्ण लीलाओं का चित्रण मिलता है। 'सूरसागर' की अद्यावधि प्राप्त प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों की समीक्षा से यही निष्कर्ष निकलता है कि लीलाक्रम वाला रूप ही वास्तविक 'सूरसागर' है, क्योंकि उसी की परम्परा प्राप्त होती है।जहाँ तक प्रश्न है 'सूरसागर' के पदों की संख्या का, तो यह आज तक विद्वानों के मध्य विवादास्पद प्रश्न रहा है। 'वार्ता' के अनुसार सूरदास जी ने सहस्रावधि पद किये - 
'सूरदास जी ने सहस्रावधि पद किये हैं, ताकौ सागर कहिये सो जगत में भये ।' श्री हरिराय जी ने 'भावप्रकाश' में कहा है कि सूरदास जी ने सवालाख पदों की रचना का संकल्प किया था। अन्तिम समय वे एक लाख पदों की रचना कर सके और शेष पच्चीस हजार कीर्तन स्वयं श्रीनाथ जी ने पूरे किये- "सो सूरदासजी मन में सवालाख कीर्तन प्रकट करिबे को संकल्प कियौ है। सो तामें लाख कीर्तन तो प्रकट भये हैं सो इच्छा तैं पचीस हजार कीर्तन और प्रकट करने हैं।"
 
'सूरसागर' में सवालाख पदों की बात को लेकर विद्वानों में बड़ी ऊहात्मक स्थिति बनी हुई है। अब तक जो भी खोजें हुई हैं उनके आधार पर सूरदास विरचित प्रामाणिक और अप्रामाणिक पदों की संख्या 10 हजार से अधिक नहीं है। यह भी कहा जाता है कि सूरदास जी कीर्तन में किसी पुराने पद को दुहराते नहीं थे। 'सूर निर्णय' के लेखकों ने गणितीय पद्धति के आधार पर भी 'सूरसागर' में सवालाख पद होने की बात को अविश्वसनीय मानते हुए लिखा है- "हमने सूरदास के पदों की जो आनुमानिक गणना की है, वह कम-से-कम है और प्रामाणिक आधार पर है, अतः इसमें शंका के लिए कोई स्थान नहीं है।"
 
वास्तव में महात्मा सूरदास हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य हैं और उनका सूरसागर उनकी 'काव्य-साधना का 'सुफल' है। भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्फुरण उनके अन्तस् में अनेक बार हुआ। 'वार्ता-साहित्य' में भी यह बात कही गयी है- “पुरुषोत्तम संहस्रनाम सुनने के पश्चात् सम्पूर्ण भागवत की लीला सूरदास के हृदय में स्फुरी और सूरदास जी ने प्रथम स्कन्ध से द्वादश स्कन्धपर्यन्त कीर्तन वर्णन किये।" महात्मा सूरदास सिद्ध कवि थे और अपने समय में ही उन्होंने बहुत प्रसिद्धि अर्जित कर ली थी, जिसका भी वर्णन 'वार्ता-साहित्य' में हुआ है।

सूरदास अंधे थे, यह बात साहित्य में बार-बार दुहराई जाती है, परंतु उनके काव्य में जो रंगों की छटा है वह किसी नेत्रवान कवि के काव्य में भी दुर्लभ है। यमुनाजी का नीला जल, मोरपंख की श्याम सलोनी मूर्ति, गोपियों के लाल-पीले वस्त्र, वृंदावन के कुसुमित उपवन, यह सब सूर ने अपने अंतरचक्षु से देखा था। उनकी कल्पना इतनी जीवंत है कि पाठक भी उसी दृश्य के भीतर पहुँच जाता है। यहाँ नेत्रहीनता कोई अभाव नहीं, बल्कि परमात्मा का विशेष अनुग्रह थी जिसने सूर को बाहरी रंगों से परे, आत्मा के रंग देखने की शक्ति दी।सूरसागर केवल भक्ति ग्रंथ नहीं, बल्कि समाज दर्पण भी है। उसमें जहाँ एक ओर राजसी ठाठ-बाट और द्वारका की राजनीति का वर्णन है, वहीं दूसरी ओर गोपियों की निरीहता, ब्राह्मणों की कृपणता, दुर्योधन जैसे अहंकारी राजाओं का चित्रण भी है। सूर ने कभी भक्ति के नाम पर सामाजिक विसंगतियों को ढँकने की कोशिश नहीं की। उनकी करुणा सर्वव्यापी है। वे ग्वाल-बाल तक को कृष्ण मान लेते हैं और साधारण गोपियों को भी राधा के समकक्ष स्थान देते हैं।

सूर का दर्शन बड़ा सरल पर गहरा है। वे कहते हैं कि न ज्ञान से, न योग से, न तप से, केवल प्रेम से ही हरि मिलते हैं। उनका प्रेम न स्वार्थी है, न सौदेबाजी करता है। वह तो गोपियों की तरह है जो कृष्ण को पाने के लिए अपना सर्वस्व लुटा देती हैं। सूरसागर पढ़ते हुए बार-बार लगता है कि भक्ति कोई कठिन साधना नहीं, बल्कि अपने अहंकार को माखन की तरह मथकर उसमें से प्रेम का घी निकाल लेना है।आधुनिक युग में भी सूरसागर की प्रासंगिकता कम नहीं हुई। जब जीवन यांत्रिक हो चला है, संबंध दिखावे के हो गए हैं, तब सूर का निःस्वार्थ, निष्काम प्रेम हमें फिर से मनुष्य बनने की प्रेरणा देता है। उनकी वाणी में जो मिठास है वह आज की कटुता को धो देती है। जब-जब हिंदी साहित्य की बात होगी, जब-जब भक्ति की बात होगी, जब-जब प्रेम की बात होगी, तब-तब सूरसागर का नाम सबसे ऊपर लिया जाएगा।यह ग्रंथ कोई साधारण काव्य नहीं, बल्कि जीता-जागता तीर्थ है। इसमें डुबकी लगाने वाला चाहे जितना भी पतित हो, बाहर निकलेगा तो अवश्य ही पवित्र होकर। सूरदास ने अपने अंधे नेत्रों से जो सूर्य देखा था, उसकी एक किरण भी यदि किसी के हृदय में पड़ जाए तो वह जीवन धन्य हो जाता है। यही सूरसागर की महिमा है और यही इसकी अमरता का रहस्य।

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