सूरदास की सूरसारावली भक्ति काव्य की उस दुर्लभ रचना है जो अपने छोटे से परिमाण में भी इतनी गहन और बहुआयामी है कि उसे पढ़ते हुए लगता है मानो सूर ने सारी
सूरदास की सूरसारावली
सूर सारावली सूरदास द्वारा विरचित मानी जाती है। इसमें कुल 1107 युग्म हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० हरवंशलाल शर्मा द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'सूरदास' में लिखा गया है- “जिस प्रकार अठारह हजार श्लोक वाले श्रीमद्भागवत महापुराण को सुविधा की दृष्टि से आचार्य ने पुरुषोत्तम सहस्रनाम के 256 श्लोकों में बाँध दिया, उसी प्रकार सहस्रावधि (लक्षावधि) पद वाले अपने सागर को भी सूर ने सारावली के 1107 युग्मों में संक्षिप्त कर दिया। 'सूर सारावली' की अन्तिम बारह पंक्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें सूर के दीर्घ काल तक के कवि कर्म, लीलागान, तत्त्वज्ञान आदि का स्पष्ट संकेत मिलता है।
ये पंक्तियाँ हैं-
'करम-जोग पुनि ज्ञान-उपासना, सबही भ्रम भरमायौ ।
श्री बल्लभ गुरु तत्त्व सुनायौ, लीलाभेद बतायौ ।।
ता दिन तें हरि लीला गाई, एक लक्ष पद बंद ।
ताकौ सार सूरसारावलि, गावत अति आनन्द ।।
तब बोले जगदीश जगत्-गुरु, सुनौ सूर मम गाथ।
तव कृत मम जस जो गावैगो, सदा रहे मम साथ ।।
धरि जियनेम सूर सारावलि, उत्तर-दच्छिन काल ।
मन वाँछित फल सबहीं पावै, गाय मिटै जन्म जंजाल ।।
सीखै, सुनै, पढ़ें मन राखै, लिखै परम चितलय ।
ताके संग रहत हौं निसिदन, आनंद जन्म बिहाय । ।
सरस समसतर लीला गावै, जुगल चरन चित लावै ।
गरभ-बास बंदीखाने में, सूर बहुरि नहिं आवै ।।'
उपर्युक्त पंक्तियाँ अनेक रहस्यों की ओर संकेत करती हैं जैसे-
- प्रेम प्रधान भक्तियोग के अभाव में कर्मकाण्ड और ज्ञानोपासना आदि भ्रमयुक्त है। गुरु बल्लभाचार्य जी ने ही सूर को श्रीकृष्ण की लीलाओं का ज्ञान कराया।
- जिस दिन से मुझे (सूर) गुरु द्वारा श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान प्रारम्भ किया तथा उन लीलाओं को एक लक्ष पदों में बाँधा है।
- श्री कृष्ण की उसी लीला का सार रूप यह 'सारावली' है।
- - इस सारावली को भगवत्कृपा प्राप्त है। स्वयं भगवान् और श्रीगुरु ने अपने श्रीमुख से इसके माहात्म्य का वर्णन किया है।
इस प्रकार इस 'सारावली' को 'सूरसागर' के पदों का सार या सूची कहा गया है। छन्द संख्या 966 के अन्त में भी यह भाव व्यक्त हुआ है-' इति दृष्टि कूट सूचनिका सम्पूर्ण ।
'सूर-सारावली' की प्रामाणिकता को लेकर विद्वत्समाज में पर्याप्त मतभेद है। कतिपय विद्वानों ने इस कृति को सूर की रचना मानते हुए इसकी प्रामाणिकता सिद्ध की है और कुछ विद्वानों की राय में 'सारावली' सूरदास विरचित नहीं है, बल्कि यह किसी अन्य कवि की रचना है। इस मत के प्रमुख समर्थक डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा हैं। देखा जाये तो आज तक 'सारावली' की कोई हस्तलिखित प्रति नहीं प्राप्त हो सकी है। परम्परानुसार 'सारावली' को सूरदास की रचना मान लिया गया है। 'सारावली' को सूरसागर को सूची पत्र कहा गया है। लेकिन, 'सारावली' और 'सूरसागर' में डॉ० वर्मा ने अनेक अन्तर प्रतिपादित किया है। जैसे-
- 'सारावली' के कथानक का प्रारम्भ ब्रह्म के होली खेलने के रूपक से प्रारम्भ होता है, जबकि 'सूरसागर' में ऐसी कल्पना नहीं है ।
- 'सारावली' का कथानक दो प्रकार का प्रतीत होता है। पहले प्रकार में सृष्टि रचना का वर्णन ' भागवत्' के अनुसार हुआ है। इसमें भगवान् के अवतारों की कथा है। दूसरे प्रकार में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन 'सूरसागर' के अनुसार हुआ है। किन्तु, 'सूरसागर' में यह बात नहीं है।
- 'सारावली' में अवतार वर्णन के लिए भागवत का आश्रय लिया गया है।
- 'सूर सागर' का आश्रय नहीं लिया गया है।
- 'सारावली' में नन्द का जैसा गौरवपूर्ण वर्णन प्राप्त होता है उतना गौरवपूर्ण वर्णन नन्द का 'सूरसागर' में नहीं मिलता।
- पूतना वध प्रकरण में दोनों रचनाओं में अन्तर पाया जाता है।
- 'सारावली' में बलराम जी के जन्म का वृहत्विवेचन प्राप्त होता है, जबकि 'सूरसागर' में यह वर्णन सीमित है और साथ ही दोनों ग्रन्थों में कृष्ण और बलराम के नामकरण में भी अन्तर पाया जाता है।
- 'सारावली' में 'माखन चोरी', 'कालियदमन', गोवर्धन धारण आदि लीलाओं का वर्णन 'सूरसागर' जैसा विस्तृत नहीं है। साथ ही इनके क्रम में भी पर्याप्त भिन्नता है ।
- 'सारावली' में कंस वध का प्रकरण अत्यन्त व्यापक रूप में वर्णित है। इसमें कंस वध की तिथि, वार, नक्षत्र आदि का उल्लेख हुआ है, जबकि 'सूर सागर' में ये बातें नहीं पायी जाती हैं।
- 'सारावली' में कृष्ण के मथुरा चले जाने पर ब्रजवासियों की विरह दशा का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है, जबकि 'सूरसागर' में ब्रजवासियों की विरह दशा का व्यापक वर्णन हुआ है।
- श्रीकृष्ण के विद्याध्ययन का वर्णन 'सूरसागर' में मात्र एकाध पदों में वर्णित है, जबकि 'सारावली' में श्रीकृष्ण के विद्याध्ययन का वर्णन विस्तार से हुआ है।
- श्रीकृष्ण उद्धव को ब्रज में क्यों भेजते हैं। 'सूर सागर' में कृष्ण ने उद्धव को ब्रज भेजने के उद्देश्य को छिपाया है और 'सारावली' में उद्धव को ब्रज भेजने के उद्देश्य का स्पष्टीकरण हुआ है।
- 'सूर सागर' में राधा-कृष्ण का रस केलि-वर्णन ग्रामीण वातावरण में वर्णित है, जबकि 'सारावली' में इसका वर्णन सम्पन्नतापूर्ण गौरवशाली रूप में वर्णित है।
- 'सारावली' में राधा कृष्ण को मथुरा जाने से रोकती हैं और संकर्षण के मुख की अग्नि से सकल ब्रह्माण्ड के जलने का वर्णन है, जबकि 'सूरसागर' में यह वर्णन नहीं मिलता।
- 'सूरसागर' और 'सारावली' दोनों ही ग्रन्थों में 'फाग' और 'होली' का वर्णन भिन्न प्रकार से हुआ है।
- 'सारावली' और 'सूरसागर' दोनों ही ग्रन्थों में इन अन्तरों के अतिरिक्त और भी अनेक अन्तर पाये जाते हैं जैसे- दानलीला-प्रसंग में अन्तर, कृष्ण कथाओं में अन्तर आदि ।
उपरिलिखित इन अन्तरों के आधार पर डॉ० वर्मन ने यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सारावली' के कवि और 'सूरसागर' के कवि में अन्तर है। कृष्ण के व्यक्तित्व के जिन गुणों के प्रति 'सूरसागर' के कवि में उदासीनता का आभास देखा जाता है। वहीं पर 'सारावली' के कवि ने उन्हीं गुणों को प्रतिष्ठित किया है। 'सूरसागर' नन्द-नन्दन, गोपाल की लीलाओं का वर्णन है और 'सारावली' में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण के असुर-संहारक और भक्त-उद्धारक स्वरूप की यशोगाथा का विस्तार से वर्णन हुआ है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है 'सारावली' को सूरदास की रचना मानने की एक परम्परा-सी चली आ रही है। अनेक विद्वानों ने 'सारावली' को सूरदास की ही रचना माना है, जिनमें डॉ० मुंशी राम शर्मा, डॉ० प्रभुदयाल मीतल और डॉ० हरवंश लाल शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। डॉ० शर्मा ने अपने ग्रन्थ 'सूर और उनका साहित्य' में सारावली की प्रामाणिकता का विवेचन करते हुए लिखा है- “इस प्रकार 'सारावली' को सूरदास की एक स्वतन्त्र सैद्धान्तिक रचना है। डॉ० मुंशीराम शर्मा भी ' सारावली' को सूरकृत मानते हुए उसकी प्रामाणिकता पर विश्वास करते हैं। लेकिन, डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा ने अपने तर्क संगत प्रमाणों के आधार पर 'सारावली' को अप्रामाणिक माना है और लिखा है- "निष्कर्ष रूप यह निःसंकोच कहा जा सकता है कथावस्तु, भाव, भाषा-शैली और रचना के दृष्टिकोण के विचार से 'सूरसारावली' सूरदास की प्रामाणिक रचना नहीं जान पड़ती।"
'सूर सारावली' और 'सूरसागर' दोनों की ही भाषा ब्रजभाषा है। लेकिन दोनों की भाषा में भी डॉ० वर्मा ने अन्तर ढूँढ़ निकाला है। इस सन्दर्भ में कतिपय तथ्य प्रस्तुत हैं- 'सारावली' में कर्त्ता के साथ 'ने' परसर्ग का प्रयोग मिलता है, जबकि 'सूर-सागर' में कर्त्ता के साथ 'ने' परसर्ग का प्रयोग नहीं हुआ है। सारावली में पूर्वकालिक रूप भी आधुनिक काल के प्रयोगों के निकट हैं।
सारावली में नि:शोक, जैसे, तैसे, कृत्य, गुल्मलता, वृतान्त, कृष्णचन्द्र श्राद्ध, दक्षिणा, योग्य, यही, प्राची, प्रतीची, उदीची, अवाची आदि अर्वाचीन शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है, जबकि 'सूरसागर' में ऐसे शब्दों का अभाव है। डॉ॰ वर्मा ने दोनों ग्रन्थों की भाषिक संरचना में और भी अनेक अन्तरों का उद्धृत किया है जैसे- 'सारावली' और 'सूरसागर' में परसर्ग 'को' का प्रयोग, आधुनिक खड़ी बोली से मिलते-जुलते 'गे' शब्द का प्रयोग आदि है।
इस प्रकार सूर का श्रृंगार कभी भी केवल शारीरिक नहीं रहा; वह तो भक्ति का ही एक रूप था। राधा-कृष्ण का संयोग हो या वियोग, दोनों में परमात्मा से मिलन की उत्कट अभिलाषा ही तो है ही। सूरसारावली में वह युवा सूर बोल रहा है जो अभी भक्ति के रंग में पूरी तरह रंगा नहीं है, पर जिसकी भक्ति में जोश, उन्माद और सौंदर्य का पुट इतना प्रबल है कि वह बाद में शांत होकर वात्सल्य में बदल जाता है।'सूरसारावली' में भक्ति, वैराग्य, और दार्शनिक तत्त्वों का सुन्दर समन्वय है, जो कवि की गहरी आध्यात्मिक चेतना को दर्शाता है। संक्षेप में, यह कृति सूरदास के व्यापक ज्ञान और उनकी काव्य-प्रतिभा का सार है, जो कृष्ण भक्ति मार्ग के सिद्धांतों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।


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