साकेत महाकाव्य का नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा | मैथिलीशरण गुप्त

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साकेत नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा मैथिलीशरण गुप्त 'साकेत' 12 सर्गों में आबद्ध एक विशाल महाकाव्य है। इसके प्रबन्ध-शिल्प की चर्चा में विशेष

साकेत नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा | मैथिलीशरण गुप्त


विवर मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी-साहित्य के इतिहास में द्विवेदीयुगीन कवियों में माने जाते हैं। गुप्तजी के महनीय प्रबन्धकाव्य 'साकेत' की सर्जना की प्रेरणा का एक विशिष्ट एवं मार्मिक कारण है। उस समय आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-सेवियों के अग्रणी प्रेरणा पुरुष थे और उनके प्रयत्न से साहित्य-साधना में परिष्कार का तथा राष्ट्रवादी नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना का कार्य चल रहा था। इसी क्रम में साहित्य-सेवियों का दिशा-निर्देशन करते हुए उन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा के द्वारा कई अछूते विषयों की ओर संकेत किया, जिस पर कवियों को लेखनी चलाने का पूरा और अच्छा अवसर प्राप्त हो सकता था। ऐसा ही एक ऐतिहासिक संकेत उन्होंने 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' नामक निबन्ध लिखकर किया जो 'सरस्वती' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसे पढ़कर साहित्य-जगत् विचारोत्तेजित हो उठा, क्योंकि इसमें उर्मिला को समुचित महत्त्व न देने के आरोप में रामकाव्य के प्रणेताओं को खरी-खोटी सुनायी गयी थी। लेखक ने अपनी बात रामायणकार महाकवि वाल्मीकि से लेकर उस समय तक के रचनाकारों के आधार पर की है। गुप्त जी को 'साकेत' महाकाव्य के प्रणयन की प्रेरणा द्विवेजी जी के उक्त लेख के पढ़ने से प्राप्त हुई, जो महाकाव्य की प्रारम्भिक पंक्तियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है- 'महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।'
 

साकेत के नवम सर्ग का स्वरूप

'साकेत' 12 सर्गों में आबद्ध एक विशाल महाकाव्य है। इसके प्रबन्ध-शिल्प की चर्चा में विशेष रूप से आलोचकों ने इसके नवम सर्ग पर अनेक प्रकार की बातें कही हैं। ये टिप्पणियाँ गुणात्मक भी हैं और निषेधात्मक भी। जैसे- विरह-व्यञ्जना की अभिव्यक्ति के लिए, गीति-योजना के लिए मौलिक और विशिष्ट कोटि की वस्तु-योजना के लिए तथा कवि-कर्म के अन्यान्य सूक्ष्म तत्त्वों के विनियोजन के लिए इस सर्ग की बड़ी प्रशंसा हुई है, पर काव्य के प्रबन्ध-सौष्ठव में इस सर्ग के बारे में साधारणतः यह कहा जाता है कि यह शेष काव्य से असम्बद्ध है या अलग-सा लगता है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने साकेत के नवम सर्ग की चर्चा करते हुए लिखा है कि- "साकेत का नवम सर्ग प्रबन्ध-योजना की मुख्यधारा से अलग है।" वाजपेयी जी की यह बात वस्तुत: उनकी अकेले की धारणा न थी, हाँ, एक समर्थ समीक्षक होने के नाते से उन्होंने यह बात विश्वासपूर्वक कही। ऐसा भी नहीं है कि ऐसा कह देने से साकेत की सारी असाधारण गुणवत्ता, दृष्टि से ओझल हो गयी है। बात तो यहाँ मात्र काव्य के प्रबन्ध-शिल्प की थी, जिसमें उन्होंने नवम सर्ग को शेष काव्य से कुछ अलग-अलग अनुभव किया। यदि आग्रह-मुक्त होकर देखें, तो वाजपेयी जी के इस कथन में सत्यता प्रतीत होती है। भूलकथा से नवम सर्ग का सम्बन्ध-विश्लेषण करने से पहले हमें नवम सर्ग के समग्र स्वरूप पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। इसमें निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं-

  1. यह सर्ग एक स्वतन्त्र विरह-काव्य की तरह लगता है, जो गीतों और मुक्तकों के समूह से योजित है । कवि आरम्भ में ही घोषणा करता है कि उसका ध्यान यहाँ विरहिणी उर्मिला पर ही केन्द्रित है ! वह कहता है- अवधि शिला का था उरपर गुरुभार । तिल-तिल काट रही थी दृग जलधार ।।
  2. नवम सर्ग में कथा का विकास अवरुद्ध-सा रहता है, वह तनिक भी आगे नहीं बढ़ती है, एकदम विरमित है।
  3. इसमें एक विरहिणी की स्वाभाविक मानसिकता के अनुरूप वर्षभर का प्राकृतिक परिवेश, पर्व-त्योहार, विविध प्रकार के वर्णन आदि मिलते हैं। इन सबका अपना स्वतन्त्र महत्त्व है। ऐसा नहीं लगता कि इनका प्रबन्ध-योजना के भीतर होना ही इनकी विशेषता का बोध करा सकता है। 
  4. भाव-सौन्दर्य कल्पना-तत्त्व और लोकानुभूति की दृष्टि से भी इस सर्ग की कविताएँ अधिक समृद्ध हैं। 
  5. नवम सर्ग अपेक्षाकृत अधिक बड़ा है। इसमें कवि की काव्य-साधना उच्चकोटि की है। कलात्मक अवयवों का इसमें अतिसुष्ठु एवं संयत प्रयोग व्यापक मात्रा में हुआ है।
 

मूलकथा से नवम सर्ग की असम्बद्धता

मौलिकता की नवीनता लाने की अभिलाषा के कारण कवि ने कथावस्तु के ढेर सारे परम्परागत प्रसंगों को छोड़कर
साकेत नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा | मैथिलीशरण गुप्त
कुछ नये-नये प्रसंगों की कल्पना करके अपनी कथावस्तु का स्वरूप संगठित किया है। कवि ने 'साकेत' को श्रेष्ठ प्रबन्ध और महाकाव्य का शिल्प प्रदान करने के लिए भारतीय महाकाव्य-परम्परा के बाह्य-ढाँचे को काफी कुछ अपनाया है। नवीन प्रसंगों की उद्भावना के कारण कथा के प्रवाह में अवरोध एवं उसमें अनेकों त्रुटियाँ परिलक्षित होती हैं। नवम सर्ग तो कथा-गठन से एकदम शून्य हो गया। इसमें नयी भाषा और पुरानी शैली के सहारे उर्मिला के विरह-वेदना को विस्तार दिया गया है। इससे गुप्त जी इस प्रबन्ध पर यह आक्षेप लगा कि इसका नवम सर्ग मूलकथा से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। कुछ लोगों ने यह कहा कि यदि इसे काव्य से हटा भी दिया जाय तो इसकी प्रबन्ध-धारा में कोई अवरोध उपस्थित नहीं होता । यह आक्षेप निराधार नहीं था। अतः इसके प्रत्युत्तर में कोई अकाट्य तर्क नहीं दिया जा सकता था। इस प्रकार 'साकेत' के प्रबन्ध-शिल्प के बारे में यह मान्यता प्रचलित हो गयी। प्रस्तुत प्रसंग में विचारणीय यह है कि नवम सर्ग का ऐसा स्वरूप कथावस्तु में कितना अवरोध उपस्थित करता है और ऐसा किन परिस्थितियों में हुआ होगा, इसके बारे में निम्नलिखित बातें उल्लेखनीय हैं- 
  1. कवि को इस काव्य की रचना की प्रेरणा आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के एक निबन्ध से मिली थी, जिसका शीर्षक था- "कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता।" इससे स्पष्ट है कि साकेत के रचयिता को साहित्य में उर्मिला की उपेक्षा का गहरा दुःख था और वह कोई-न-कोई अवसर निकालकर इस वियोगिनी की विरह-व्यथा को पूरी शक्ति से अंकित करना चाहता था। नवम सर्ग उसकी इसी अदम्य अभिलाषा का परिणाम है।
  2. आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने जब इस सर्ग को मूलकथा से भिन्न सम्बन्ध रखने की ओर ध्यान आकर्षित किया था, तो उनका उद्देश्य निषेधात्मक कदापि नहीं था। वह यह भी बताना चाहते थे कि गुप्त जी प्रेमानुभूति की गइराई को विस्तृत प्रसंगों में उतारने वाले कवि हैं। 
  3. उर्मिला की इस मनोदशा का वर्णन कवि को अभीष्ट था और उसने इसे कथा- विकास के चरमोत्कर्ष पर रखा भी है। उसके पश्चात् कथा की गति उपसंहारात्मक हो जाती है। 
  4. कथा के बीच में किसी सर्ग या अध्याय में ठहरकर कोई महत्त्वपूर्ण वर्णन करने लगना अथवा नीति-उपदेश के वृत्तान्त सुनाने लगना, भारतीय महाकाव्यों में बहुत पहले से प्रचलन में है। 'साकेत' में यह पहली बार नहीं हुआ है। इसमें कथा ठहरी हुई अवश्य है, पर वर्ण्य-विषय के केन्द्र में कथा की मुख्य पात्रा उर्मिला ही है, कोई अन्य व्यक्ति नहीं। 
  5. नवम सर्ग में कथा-रस आगे नहीं बढ़ता, बल्कि काव्य-रस आगे बढ़ता है। वियोग- श्रृंगार का यहाँ उत्कर्ष दिखायी पड़ता है। इससे इस काव्य का कलापक्ष और भावपक्ष दोनों समृद्ध हुआ है। 
अब प्रश्न उठता है कि साकेत के नवम सर्ग के वर्ण्य विषय का औचित्य क्या है ? वस्तुत: काव्य का स्रष्टा कवि अपनी रचना को मनोवाञ्छित स्वरूप प्रदान करने के लिए सर्वथा स्वतन्त्र और अधिकार-सम्पन्न होता है। 'असारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापतिः ।
हाँ! यह बात अवश्य है कि उसका अनुभव करने वाला या अनुशीलन करने वाला भी अपनी धारणा बनाने के लिए स्वतन्त्र है। 'साकेत' की रचना जिस प्रेरणा से की गयी, उसकी यह माँग थी कि उपेक्षित उर्मिला के उस विशिष्ट वियोग को पूरी शक्ति से काव्य में उतारा जाय, जो असाधारण त्याग, महान् मर्यादा, अतुलित धैर्य और अद्भुत सहिष्णुता से भरा हुआ है। उर्मिला की मनोदशा की गहराइयों में उतरकर जब गुप्त जी ने ऐसे वर्णन का उपक्रम किया, तो इस विस्तृत संरचना की स्थिति बहुत स्वाभाविक थी, अतः उससे काव्य में किसी असन्तुलन की बात न्यायोचित नहीं लगती, क्योंकि यदि इस प्रयत्न में कमी होती, तो रचना का उद्देश्य ही अपूर्ण रह जाता।
 
'साकेत' में उर्मिला के वियोग-वर्णन की पृष्ठभूमि बहुत व्यापक है। नवम सर्ग में इस वियोग-चर्चा के बहाने से प्रकृति का व्यापक परिवेश चर्चित है, जिसमें ऋतुओं का वर्णन सर्वप्रमुख है। विभिन्न ऋतुओं के साथ वियोगिनी का मानसिक जुड़ाव किस प्रकार का है, यह बताना कवि को अभीष्ट है। वर्ण्य-विषय का यह भाग प्राचीन तथा परम्परागत काव्यों की शैली पर है, जिसमें ऋतु-वर्णन और बारहमासा आदि को वियोग-वर्णन की एक परिपाटी मानकर अपनाया गया है। उर्मिला प्रत्येक ऋतु का आनन्द अपने प्रिय के अभाव में नहीं ले पाती, यह तो पारम्परिक कथ्य है, किन्तु वह आदर्शगृहिणी सभी ऋतुओं के स्वरूप में अपने परमप्रिय की छाया देखती है और आगमन के समय का एक दृश्य निभालनीय है-

निरख सखी ये खंजन आये । 
फेरे उन मेरे रंजन ने नैन इधर मन भाये ।। 
फैला उनके तप का आतप मन से सर सरसाये । 
स्वागत-स्वागत शरद भाग्य से मैंने दर्शन पाये ।। 

ऐसी ही स्थिति पर्व-त्योहार की चर्चा और घर-गृहस्थी की विभिन्न परिस्थितियों के वर्णन में भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि 'साकेत' के नवम सर्ग का वर्ण्य विषय स्वाभाविक भी है और बहुउद्देश्यीय भी। इसके न होने पर प्रबन्ध-धारा भले न बाधित होती, पर इस काव्य का वैसा विशिष्ट प्रभाव न होता जैसा है। यह सर्ग प्रबन्ध-योजना से असम्बद्ध है, यह कहना भी ठीक नहीं है, केवल कथा में ठहराव की बात ही कही जा सकती है, बिखराव की नहीं। सुप्रसिद्ध समीक्षक आचार्य शुक्ल ने मार्मिक प्रसंगों की सघनता को ही श्रेष्ठ प्रबन्ध की कसौटी माना था। साकेत का नवम सर्ग, तो एक गम्भीर और व्यापक मार्मिक प्रसंग ही है, जो कवि और काव्य के कथ्य का प्राण है। अतः इस सर्ग के वर्ण्य विषय के औचित्य में सन्देह करने का तनिक भी औचित्य नहीं है। 

भाषा की दृष्टि से नवम सर्ग साकेत का सर्वोत्तम सर्ग माना जाता है। यहाँ गुप्त जी की खड़ी बोली पूर्ण परिपक्वता पर है। ब्रजभाषा का प्रभाव लगभग शून्य है, भाव गहन हैं, किन्तु भाषा सरल और प्रवाहमयी है। लय अत्यन्त मधुर है, विशेषकर जब उर्मिला अपनी वेदना व्यक्त करती हैं, तब पद्य जैसे स्वतः गेय हो उठता है। छन्द मुख्यतः दोहा-चौपाई और सवैया है, किन्तु इतनी कुशलता से प्रयुक्त कि कहीं भी बोझिल नहीं लगता।समीक्षा की दृष्टि से नवम सर्ग ने ही साकेत को अमर बना दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था कि “साकेत में उर्मिला के चरित्र ने ही काव्य को उच्चतम शिखर प्रदान किया।” डॉ. नगेन्द्र ने इसे “हिन्दी का सबसे मार्मिक नारी-चरित्र” कहा। आधुनिक समीक्षक इसे नारीवादी दृष्टिकोण से भी देखते हैं और कहते हैं कि गुप्त जी ने उर्मिला के माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज द्वारा नारी के त्याग को स्वीकार कर लेने की मानसिकता की आलोचना की है, हालाँकि प्रत्यक्ष रूप में यह आलोचना नहीं, सहानुभूति है।

संक्षेप में, साकेत का नवम सर्ग केवल एक सर्ग नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य में नारी-त्याग, एकाकीपन और मौन बलिदान का सर्वोच्च दस्तावेज है। मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला को जो स्थान दिया, वह न केवल रामायण की, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय चेतना की उपेक्षिता नारी को उसका खोया हुआ सम्मान लौटाता है। यही कारण है कि आज भी जब कोई उर्मिला का नाम लेता है, तो आँखें सजल हो जाती हैं और हृदय में एक गहरी श्रद्धा जागती है। यह सर्ग पढ़ते समय पाठक उर्मिला के साथ-साथ स्वयं को भी अकेले में पाता है और समझ जाता है कि सबसे बड़ा त्याग वही है जो कभी कहा नहीं जाता।

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