साकेत नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा मैथिलीशरण गुप्त 'साकेत' 12 सर्गों में आबद्ध एक विशाल महाकाव्य है। इसके प्रबन्ध-शिल्प की चर्चा में विशेष
साकेत नवम सर्ग की विशेषता, विश्लेषण और समीक्षा | मैथिलीशरण गुप्त
साकेत के नवम सर्ग का स्वरूप
- यह सर्ग एक स्वतन्त्र विरह-काव्य की तरह लगता है, जो गीतों और मुक्तकों के समूह से योजित है । कवि आरम्भ में ही घोषणा करता है कि उसका ध्यान यहाँ विरहिणी उर्मिला पर ही केन्द्रित है ! वह कहता है- अवधि शिला का था उरपर गुरुभार । तिल-तिल काट रही थी दृग जलधार ।।
- नवम सर्ग में कथा का विकास अवरुद्ध-सा रहता है, वह तनिक भी आगे नहीं बढ़ती है, एकदम विरमित है।
- इसमें एक विरहिणी की स्वाभाविक मानसिकता के अनुरूप वर्षभर का प्राकृतिक परिवेश, पर्व-त्योहार, विविध प्रकार के वर्णन आदि मिलते हैं। इन सबका अपना स्वतन्त्र महत्त्व है। ऐसा नहीं लगता कि इनका प्रबन्ध-योजना के भीतर होना ही इनकी विशेषता का बोध करा सकता है।
- भाव-सौन्दर्य कल्पना-तत्त्व और लोकानुभूति की दृष्टि से भी इस सर्ग की कविताएँ अधिक समृद्ध हैं।
- नवम सर्ग अपेक्षाकृत अधिक बड़ा है। इसमें कवि की काव्य-साधना उच्चकोटि की है। कलात्मक अवयवों का इसमें अतिसुष्ठु एवं संयत प्रयोग व्यापक मात्रा में हुआ है।
मूलकथा से नवम सर्ग की असम्बद्धता
- कवि को इस काव्य की रचना की प्रेरणा आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के एक निबन्ध से मिली थी, जिसका शीर्षक था- "कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता।" इससे स्पष्ट है कि साकेत के रचयिता को साहित्य में उर्मिला की उपेक्षा का गहरा दुःख था और वह कोई-न-कोई अवसर निकालकर इस वियोगिनी की विरह-व्यथा को पूरी शक्ति से अंकित करना चाहता था। नवम सर्ग उसकी इसी अदम्य अभिलाषा का परिणाम है।
- आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने जब इस सर्ग को मूलकथा से भिन्न सम्बन्ध रखने की ओर ध्यान आकर्षित किया था, तो उनका उद्देश्य निषेधात्मक कदापि नहीं था। वह यह भी बताना चाहते थे कि गुप्त जी प्रेमानुभूति की गइराई को विस्तृत प्रसंगों में उतारने वाले कवि हैं।
- उर्मिला की इस मनोदशा का वर्णन कवि को अभीष्ट था और उसने इसे कथा- विकास के चरमोत्कर्ष पर रखा भी है। उसके पश्चात् कथा की गति उपसंहारात्मक हो जाती है।
- कथा के बीच में किसी सर्ग या अध्याय में ठहरकर कोई महत्त्वपूर्ण वर्णन करने लगना अथवा नीति-उपदेश के वृत्तान्त सुनाने लगना, भारतीय महाकाव्यों में बहुत पहले से प्रचलन में है। 'साकेत' में यह पहली बार नहीं हुआ है। इसमें कथा ठहरी हुई अवश्य है, पर वर्ण्य-विषय के केन्द्र में कथा की मुख्य पात्रा उर्मिला ही है, कोई अन्य व्यक्ति नहीं।
- नवम सर्ग में कथा-रस आगे नहीं बढ़ता, बल्कि काव्य-रस आगे बढ़ता है। वियोग- श्रृंगार का यहाँ उत्कर्ष दिखायी पड़ता है। इससे इस काव्य का कलापक्ष और भावपक्ष दोनों समृद्ध हुआ है।
ऐसी ही स्थिति पर्व-त्योहार की चर्चा और घर-गृहस्थी की विभिन्न परिस्थितियों के वर्णन में भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि 'साकेत' के नवम सर्ग का वर्ण्य विषय स्वाभाविक भी है और बहुउद्देश्यीय भी। इसके न होने पर प्रबन्ध-धारा भले न बाधित होती, पर इस काव्य का वैसा विशिष्ट प्रभाव न होता जैसा है। यह सर्ग प्रबन्ध-योजना से असम्बद्ध है, यह कहना भी ठीक नहीं है, केवल कथा में ठहराव की बात ही कही जा सकती है, बिखराव की नहीं। सुप्रसिद्ध समीक्षक आचार्य शुक्ल ने मार्मिक प्रसंगों की सघनता को ही श्रेष्ठ प्रबन्ध की कसौटी माना था। साकेत का नवम सर्ग, तो एक गम्भीर और व्यापक मार्मिक प्रसंग ही है, जो कवि और काव्य के कथ्य का प्राण है। अतः इस सर्ग के वर्ण्य विषय के औचित्य में सन्देह करने का तनिक भी औचित्य नहीं है।
भाषा की दृष्टि से नवम सर्ग साकेत का सर्वोत्तम सर्ग माना जाता है। यहाँ गुप्त जी की खड़ी बोली पूर्ण परिपक्वता पर है। ब्रजभाषा का प्रभाव लगभग शून्य है, भाव गहन हैं, किन्तु भाषा सरल और प्रवाहमयी है। लय अत्यन्त मधुर है, विशेषकर जब उर्मिला अपनी वेदना व्यक्त करती हैं, तब पद्य जैसे स्वतः गेय हो उठता है। छन्द मुख्यतः दोहा-चौपाई और सवैया है, किन्तु इतनी कुशलता से प्रयुक्त कि कहीं भी बोझिल नहीं लगता।समीक्षा की दृष्टि से नवम सर्ग ने ही साकेत को अमर बना दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा था कि “साकेत में उर्मिला के चरित्र ने ही काव्य को उच्चतम शिखर प्रदान किया।” डॉ. नगेन्द्र ने इसे “हिन्दी का सबसे मार्मिक नारी-चरित्र” कहा। आधुनिक समीक्षक इसे नारीवादी दृष्टिकोण से भी देखते हैं और कहते हैं कि गुप्त जी ने उर्मिला के माध्यम से पितृसत्तात्मक समाज द्वारा नारी के त्याग को स्वीकार कर लेने की मानसिकता की आलोचना की है, हालाँकि प्रत्यक्ष रूप में यह आलोचना नहीं, सहानुभूति है।
संक्षेप में, साकेत का नवम सर्ग केवल एक सर्ग नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य में नारी-त्याग, एकाकीपन और मौन बलिदान का सर्वोच्च दस्तावेज है। मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला को जो स्थान दिया, वह न केवल रामायण की, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय चेतना की उपेक्षिता नारी को उसका खोया हुआ सम्मान लौटाता है। यही कारण है कि आज भी जब कोई उर्मिला का नाम लेता है, तो आँखें सजल हो जाती हैं और हृदय में एक गहरी श्रद्धा जागती है। यह सर्ग पढ़ते समय पाठक उर्मिला के साथ-साथ स्वयं को भी अकेले में पाता है और समझ जाता है कि सबसे बड़ा त्याग वही है जो कभी कहा नहीं जाता।


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