रसोई | हिंदी लघु कथा माँ अकेली थीं। हमेशा की तरह। समय काटने के लिए वे आँखें गड़ाए टीवी स्क्रीन को देखती रहती थीं। माँ की रुचि के अनुसार केवल पाक-कला
रसोई | हिंदी लघु कथा
माँ अकेली थीं। हमेशा की तरह। समय काटने के लिए वे आँखें गड़ाए टीवी स्क्रीन को देखती रहती थीं। माँ की रुचि के अनुसार केवल पाक-कला वाला एक चैनल बेटे ने विशेष रूप से सेट कर दिया था। लगातार देखते-देखते माँ की आँखों में दर्द होने लगा था। नींद वैसे ही कम थी।
“आँखों का दर्द सहना ही पड़ेगा!” — माँ ने खुद से कहा।
अकेलापन—उन्हें याद है, हमेशा से ऐसा ही रहा। रसोई से बाहर की कोई दुनिया उनके स्मृतिपटल पर कभी थी ही नहीं। बचपन में वे अपनी माँ की परछाईं बनकर, उनकी “डाँट खाने वाली बेटी” बनकर रहीं। विवाह तक अपने मायके की रसोई में खेल, हँसी, रोना और थोड़ी-सी पढ़ाई के साथ बचपन-किशोरावस्था बीती।
विवाह के बाद रसोई नामक “पिछवाड़े के राज्य” की रानी बनाकर माँ का राज्याभिषेक हुआ। तभी से नींद कम हो गई। प्रसव के छोटे-छोटे अंतरालों को छोड़ दें तो उनका संसार हमेशा वही रसोई रही—यह सोचकर माँ ने गहरी साँस ली।
कालिख से सने कपड़ों और शरीर के साथ, आँगन की कुर्सी पर लेटे हुए वे अपने पति के पुरुषार्थों को अपनी उपलब्धियाँ मानकर गर्व करती थीं। बच्चों की पढ़ाई और अन्य क्षेत्रों में सफलता पर वे रसोई में काम करते-करते, इधर-उधर चलते हुए आँखों में आँसू भर लेती थीं—रोमांच से।पति और बच्चों की असफलताओं में वे रसोई की दीवार से टिककर दुखी होती थीं। भीतर-ही-भीतर जलती रहती थीं।
अपने लिए किसी चीज़ में उन्होंने न कभी खुशी खोजी, न दुख।“मेरे पास सुरक्षित रहने के लिए यह रसोई तो है”—यही सोचकर वे संतोष कर लेती थीं।पति की मृत्यु के बाद वह संसार भी उनसे छिन गया। जैसे पिता की मौत का इंतज़ार ही था—बच्चों ने गाँव का घर बेच दिया। शहर में बस गए। एक बेटे के साथ रहने के लिए।बेटा शहर की एक प्रसिद्ध मल्टी-नेशनल कंपनी में नौकरी करता था। उसकी पत्नी भी उसी कंपनी में एक उच्च पद पर थी।
मातृभाषा पर पाबंदी वाले सेंट्रल स्कूल में उनके बच्चे—माँ के पोते-पोती—गर्व के साथ पढ़ रहे थे। ऐसे में गाँव का घर—एक अनावश्यक बोझ ही तो था! गाँव वाले माँ के “भाग्य” से ईर्ष्या करने लगे।बुज़ुर्ग माँ को अपने घर में रख रहे हैं—वह भी उम्रजनित बीमारियों की परवाह किए बिना! आज की पीढ़ी में, आज के समय में—दुर्लभ पुण्य!
भाग्यवती! गाँव की औरतें विशेष रूप से—ईर्ष्याभरी आहें भरती थीं।घर छोड़ने से पहले माँ रसोई में गईं। उस हवा को भरपूर साँसों में भरा। फिर सीढ़ियाँ उतर गईं।शहर में बेटे का एक आलीशान विला था। अंदर कदम रखते ही माँ ने रसोई खोजी।लेकिन उस “मिनी बंगले” में कोई रसोई नहीं थी।एक कॉल या एसएमएस—और खाना उड़ता हुआ आ जाता था।फिर जगह और पैसे बर्बाद कर रसोई रखने की क्या ज़रूरत?
माँ का मन अशांत हो गया।उन्होंने सोचा—पोते-पोती को दुलार कर समय बिताएँगी।लेकिन बच्चों के पास दुलार लेने का भी समय नहीं था।हमेशा ऑनलाइन पढ़ाई का बोझ।उनके छोटे-से चेहरों पर उनसे भी भारी चश्मा।“अगर काला चश्मा लगा होता तो ये सचमुच अंधे लगते,” माँ दुखी हुईं।इसी व्याकुलता में माँ ने बेटे से “पाक-कला के कार्यक्रम” माँगे।बेटे ने एक पूरा कंप्यूटर सिस्टम ही तैयार कर दिया। मलयालम पाक-कार्यक्रम डाउनलोड करके माँ की आँखों में भर दिए।
एक-दो हफ्ते माँ का जीवन शांत और सुखद लगा।धीरे-धीरे उन्हें यह भी उबाऊ लगने लगा।पाक-कला देखने के लिए नहीं होती—परोसने के लिए होती है, है न? इसलिए माँ ने खुद खाना बनाना शुरू कर दिया।लेकिन बेटे, बहू और पोते-पोती के पास बैठकर खाने का समय नहीं था।तो माँ ने अपने लिए एक बिल्ली, एक कुत्ता, एक गाय और एक बकरी का “परिवार” बना लिया।उन्हें पंक्ति में बैठाकर खिलाती रहीं।पर यह ज्यादा न नहीं चला।माँ पर बहुत ध्यान दिया जाने लगा था।और इस तरह—माँ उस रसोई-विहीन विला से हमेशा के लिए “मुक्त” कर दी गईं।
शहर के अति-समृद्ध लोगों के लिए ही उपलब्ध एक सुपर-स्पेशियलिटी अस्पताल में—मनोचिकित्सा विभाग के एक वातानुकूलित कमरे में—माँ को “स्थापित” कर दिया गया।(कितनी भाग्यवती हैं, है न?)एक बटन दबाने से सब कुछ मिल जाता था।लेकिन वहाँ माँ को अपनी “आत्मा”—रसोई—नहीं मिली।उस चेतना को मिटाने में प्रसिद्ध मनोचिकित्सक भी असफल रहे।
और इस तरह—माँ स्वयं एक रसोई बन गईं।चूल्हा बन गईं।बिजली को समर्पित हो गईं।लेकिन शायद वह अंतिम पकवान जबरन बनाया गया था—इसलिए पूरी तरह जल गया।
चलो! मृत्यु के बाद ही सही—माँ को कहीं अपना एक रसोई-युक्त स्वर्ग या नरक मिल जाए—यही हम कामना करें।
इस समय में,जब हमारी अपनी रसोई भी धीरे-धीरे हमसे छिनती जा रही है—इतनी उदारता ही अब हमारी अंतिम सांत्वना हो।
- Binoy.M.B,
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