चाँद की थकी हुई रोशनी चाँद पसीना बहाती हुई एक रात है, निलाव की ठंडी साँसों में लिपटी हुई। आकाश के माथे पर थकान उतर आई है, जैसे उजास भी आज बोझिल हो गय
चाँद की थकी हुई रोशनी
चाँद पसीना बहाती हुई एक रात है,
निलाव की ठंडी साँसों में लिपटी हुई।
आकाश के माथे पर थकान उतर आई है,
जैसे उजास भी आज बोझिल हो गया हो।
नींद के पीछे-पीछे चमकते, जलते हुए
ओ सितारो, तुम क्यों इतने बेचैन हो?
क्या स्वप्नों ने तुम्हें भी जगा रखा है,
या अँधेरे से कोई पुराना हिसाब है?
यह रात सिर्फ़ विश्राम नहीं माँगती,
यह प्रश्नों की आग में तप रही है।
चाँद की रोशनी में पिघलता समय,
हर क्षण को चुपचाप टपकने देता है।
तारों की झिलमिल में काँपती उम्मीदें,
नींद की दहलीज़ पर ठिठक जाती हैं।
जो सो नहीं पाते, वे ही देखते हैं
इस उजास का छिपा हुआ दर्द।
ओ जागते हुए नक्षत्रो, बताओ अब,
आख़िर तुम क्या पूरा कर पाओगे?
क्या किसी टूटे मन को राह दोगे,
या सिर्फ़ दूरी की चमक बनकर रह जाओगे?
रात की हथेलियों में काँपता प्रश्न,
सुबह तक क्या कोई उत्तर बनेगा?
घर का उजाला, घर का आधार
"यदि कहा जाए
स्त्री घर का दीप है,
तो समझना चाहिए—
वह केवल रोशनी नहीं।
जो छत को थामे,
मौन में
भार उठाए।
पर दीप
अकेला नहीं जलता,
उसे हवा से
साथ निभाना पड़ता है।
और स्तंभ भी
अकेला नहीं टिकता,
उसके साथ
अन्य सहारे चाहिए।
पुरुष
घर की दीवार बनता है,
आँधी को रोकता,
बोझ बाँटता।
स्त्री और पुरुष—
दोनों मिलकर
घर बनाते हैं।
एक के बिना
दूसरा
अधूरा है।"
स्मृति की एक पूँछ
“क्या कुछ भूल तो नहीं गया?”—
यही प्रश्न
बार-बार
मेरे भीतर
स्मृति की नोक से
मुझे कुरेदता रहता है;
कुछ भटके हुए रास्ते,
कुछ बेचैन मोड़।
जितना भी उन्हें
पूरी ताक़त से
दूर ठेल देने का
मैं प्रयास करता हूँ,
वे बिना आवाज़ किए,
बिना थके,
मुझसे अलग नहीं होतीं—
हर दिन,
निरंतर,
मेरे ही पीछे
चलती रहती हैं।
सोच के भँवर में
जब बहुत देर तक
मैं उलझा रहता हूँ,
तभी अचानक
एक सच्चाई स्पष्ट होती है—
कि मैं कोई और नहीं।
मैं वही हूँ
जो माँ के दुःख की आग में
खुद जलकर
आकार ले चुका है;
मैं वही कड़वी स्मृति हूँ
जिसे मैं
बार-बार झटककर
मीठी चाय की तरह
पी जाने की कोशिश करता रहा।
उस मिठास में
थोड़ी राहत थी,
पर मुक्ति नहीं;
क्योंकि सच तो यह है—
मैं उस मीठी चाय के सिवा
और कुछ नहीं,
जो माँ की जलती पीड़ा से
उत्पन्न हुई कड़वाहट को
एक पल के लिए
ढँक देती है।
यही है वह यथार्थ—
जिससे मैं
कितना भी भागूँ,
वह मेरा पीछा नहीं छोड़ता;
मैं स्वयं
माँ के दुःख से जन्मी
एक चुभती हुई स्मृति हूँ,
और वही
मेरा असली परिचय है।
जड़ संस्कार
"रीथों की गोल परिक्रमा में
दम घुटकर मर गई साँसें,
और फूल—
जो कभी मिट्टी से उठे थे,
आज शोक की सजावट बन
मौन की दीवारों पर टाँग दिए गए।
आँखें खोलता हुआ पानी—
अब नदी नहीं,
झरना नहीं,
प्यास का भाई नहीं;
“मिनरल वाटर” कहलाकर
बोतलों की कैद में
अपनी ही पारदर्शिता से शर्मिंदा है।
जिस जल को हथेलियाँ
आशीर्वाद की तरह पीती थीं,
आज वही जल
सीलबंद ढक्कन के नीचे
कीमत माँगता है—
मानव स्पर्श से सीमित,
मानव लोभ से परिभाषित।
कितना अजीब है यह समय!
जहाँ अमूल्य सब कुछ
मूल्यपत्र से तौला जाता है,
और मूल्यहीन मनुष्य
रीथों के नीचे दबा
एक आँकड़ा बन जाता है।
फूलों की सुगंध भी
अब संवेदना नहीं जगाती,
वे तो बस
औपचारिकता की भाषा बोलते हैं—
“श्रद्धांजलि” लिखी पर्चियों के साथ
थोड़ी देर चमकते,
फिर कूड़े में फेंक दिए जाते हैं।
यह जड़-संस्कार है—
जहाँ जीवन की ऊष्मा
अनुष्ठानों की ठंडक में
दम तोड़ देती है,
और मृत्यु भी
एक व्यवस्थित कार्यक्रम बन जाती है।
यहाँ रोना भी
समयबद्ध है,
मौन भी निर्देशित,
और संवेदना—
केवल उतनी ही
जितनी सभ्यता अनुमति दे।
हाय! जड़-संस्कार!
जहाँ पानी प्यास नहीं बुझाता,
फूल दुख नहीं समझते,
और मनुष्य
मनुष्य को छूते-छूते
पत्थर हो जाता है।"
- Binoy.M.B,
Thrissur district, pincode:680581,
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