रामायण की सर्वकालिक प्रासंगिकता

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रामायण की सर्वकालिक प्रासंगिकता आदिमहाकाव्य रामायण आज जिस सबसे मौलिक चुनौती का सामना कर रहा है, वह यह तर्क है कि रामायण पर केवल वाल्मीकि का अधिकार

रामायण की सर्वकालिक प्रासंगिकता


दिमहाकाव्य रामायण आज जिस सबसे मौलिक चुनौती का सामना कर रहा है, वह यह तर्क है कि रामायण पर केवल वाल्मीकि का अधिकार नहीं है, और जो कोई भी रामकथा रचता है, उसकी रचना भी वाल्मीकि रामायण के समान ही प्रामाणिक मानी जानी चाहिए। संघ–परिवार की विचारधाराओं को कमजोर करने के उद्देश्य से चलाए जा रहे इस दुर्भावनापूर्ण अभियान के पीछे, भारतीय आध्यात्मिक कृतित्व की महान परंपराओं को तथाकथित “बहुस्वरता” के नाम पर विखंडित करने की बौद्धिक साज़िश निहित है।

सनातन हिंदू समाज, जो रामायण को हृदय से अपनाता है, इस महाकाव्य पर होने वाले आक्षेपों से विशेष मानसिक आघात भले न अनुभव करता हो, परंतु यह तथ्य भी स्पष्ट है कि मूल रामायण के शिल्पकार वाल्मीकि अब मानहानि का मुकदमा दर्ज कराने नहीं आएँगे—इसी निश्चिंतता के बल पर ऐसे निंदात्मक विमर्श अकादमिक समाज में उत्सव की तरह प्रचारित किए जाते हैं।

रामायण की सर्वकालिक प्रासंगिकता
स्वयं को “प्रगतिशील” कहने वाले—वास्तव में कृतक मानवतावादी—इतिहासकार और लेखक रामायण नामक हिमालय की चोटी को भेदने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं। वोट-बैंक राजनीति से पोषित वामपंथी समर्थन भी इस प्रवृत्ति को ऊर्जा देता है। भारतीय आध्यात्मिक महाकाव्य परंपरा की इस प्रकार की क्षति हमारी सांस्कृतिक विरासत की दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है। ए. के. रामानुजन की “तीन सौ रामायण” वाली व्याख्या को आधुनिक काल में रामायण की केंद्रीय आत्मा को तोड़ने के लिए एक प्रमुख औज़ार की तरह प्रयुक्त किया जा रहा है।

यहाँ तक कहा जाने लगा है कि ऐसे भी “रामायण” हैं जिनमें रावण सीता को अपहरण करने के बाद पश्चाताप करता है, राम को सीता सौंप देता है और सब शांति से विदा हो जाते हैं। किंतु यही वर्ग यह प्रश्न उठाने से बचता है कि क्या इसी प्रकार “तीन सौ बाइबिल” या “तीन सौ क़ुरान” भी हो सकते हैं? शायद यह विवेक-बोध ही उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ने से रोकता है।

श्रीराम को नीचा दिखाने के साथ-साथ तथाकथित “प्रतिरामायणों” का भी प्रचार हो रहा है—जहाँ रामायण को केवल नायक-पूजा का ग्रंथ बताया जाता है। मलयालम और अखिल भारतीय स्तर पर ऐसे अनेक साहित्यिक और अकादमिक प्रयास हुए हैं, जो रामायण की मूल काव्य-न्याय प्रणाली को समझे बिना उसके विरुद्ध खड़े होते हैं।

यह स्मरणीय है कि महान आलोचक के. कृष्णन मारार तक ने कभी यह प्रश्न उठाया था कि क्या राम वास्तव में “मर्यादा पुरुषोत्तम” हैं। महात्मा गांधी जैसे रामभक्त भी जनस्वीकृति की आकांक्षा में कभी असमंजस में पड़े। बाद में मारार जैसे विद्वानों ने आत्मचिंतन के साथ अपने पूर्व दृष्टिकोण से पीछे हटना उचित समझा, किंतु छद्म प्रगतिशीलता के नाम पर रामायण-विरोध आज भी जारी है।

रामायण की महत्ता को समझने के लिए पूरे ग्रंथ का शाब्दिक अध्ययन आवश्यक नहीं। स्वयं यह तथ्य कि रामायण-विरोध के बावजूद भारतीय आस्तिक समाज में उसकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण है—यही उसकी प्रमाणिकता का सबसे बड़ा साक्ष्य है।

यदि मानवता के आदर्श माने जाने वाले व्यक्तित्वों को भी सूक्ष्म परीक्षण में रखा जाए, तो उनके आलोचक स्वयं नैतिक रूप से शून्य हो जाते हैं। परंतु रामायण और उसे मानने वाले समाज के लिए यह विशेषता है कि वे आलोचना को सहने की क्षमता रखते हैं—यह भारत की अद्वितीय सांस्कृतिक उदारता का प्रमाण है।

सनातन हिंदू परंपरा की मूल आत्मा वेद–उपनिषद हैं। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य उन वेदांत सिद्धांतों का सरलीकृत रूप हैं—पूरा सत्य नहीं, बल्कि उसका सुगम सार। जैसे नमक नहीं, बल्कि नमक में डाली गई वस्तु।

रामायण के रचयिता के प्रश्न पर आज भी सर्वसम्मति से उत्तर मिलता है—वाल्मीकि। राम–रावण युद्ध का कारण सीता का बलात् अपहरण ही था—इसमें कोई संदेह नहीं। कुछ विकृत विचारधाराएँ रावण के कृत्य को “पितृवत्सल प्रेम” तक बताने का दुस्साहस करती हैं, किंतु ऐसे विचार अपने आप में ही निंदनीय हैं।

रामायण का मूल—रामायण का काथल—राम के जीवन का नैतिक संघर्ष है। परिवार-धर्म और राज्य-धर्म के बीच फँसे एक मनुष्य की शाश्वत दुविधा ही रामायण का हृदय है। यह केवल भाषा-ज्ञान या इतिहास-बोध से नहीं, बल्कि गहन मानवीय संवेदना से ही समझी जा सकती है।

इसी संवेदना के कारण कुमारनाशान जैसे कवि ने राम-निंदा पर नहीं, बल्कि राम में लय होने वाली सीता पर अपने काव्य का समापन किया। श्रीराम का सरयू में आत्मसमर्पण किसी अपराध-बोध से नहीं, बल्कि आत्मालोचन की चरम अवस्था से उपजा हुआ है।

श्रीराम ने जो मौन पीड़ा सहन की—वह मानवीय इतिहास में अद्वितीय है। जिस दिन यह करुणा और आत्मसंयम मानवता से लुप्त हो जाएगा, उस दिन तक ही रामायण जीवित रहेगा। श्रीराम के इस नैतिक महत्त्व के सामने क्षुद्र आलोचनाएँ तुच्छ हैं।एक दीमकों की सेना भी किसी जीवित वटवृक्ष को गिरा नहीं सकती—यही रामायण की सनातन सत्यता है।

शुभम्।



- विजी एम. बी.
कलरिक्कल (हाउस),अंबलपुरम
पेरिंगंडूर डाकघर, त्रिशूर,केरल

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